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क्यूँ हमारा जन्म होता है और क्यूँ मृत्यु?

पता नहीं क्यूँ उसका जन्म हुआ था और क्यूँ मृत्यु! जन्म का कारण मैं नहीं जानता तो आज मृत्यु का कारण क्यूँ पूछूँ? लोग तरह -तरह की बातें कर रहे थे। कोई कह रहा था आदमी अच्छा था। तो कोई कह रहा था, ज्ञानी था सारा जीवन बस सेवा में लगा रहा। सबकी चिंता रखता था सबके सुख-दुःख में शामिल होता था. लोगों की बातें सुनकर ऐसा लग रहा था जैसे वो भगवान के दरबार में हो और ये सब उसके गवाह।

अरथी अभी उठी नहीं थी। आज सुबह तक जिसकी इंसानों में गिनती थी अब वो एक लाश थी। लोगों के चेहरे शान्त थे। जिन्दा लोगों की भीड़ कम भी नहीं थी और ज्यादा भी नहीं थी। कुछ उसके कुटुम्ब कुनबे के लोग थे तो कुछ उसके दूर के रिश्ते नातेदार। कुछ लोग भीड देखकर आ गये थे। तो कुछ संवेदना प्रकट करने के बहाने समय पास कर रहे थे। कोई कह रहा था जीवन कुछ नहीं होता। तो कोई कह रहा था, जीवन पानी के बुलबुले की तरह है पता नहीं कब फूट जाये और प्राण वायु बाहर निकल जाए। सारी जीवित भीड़ दार्शनिक मुद्रा में थी। जैसे जीवन और मृत्यु पर आज कोई बड़ा फैसला सुनाया जाना हो! सब के चेहरों पर एक अजीब तरह की शान्ति थी! जैसे इन्होंने तो मृत्यू पर विजय प्राप्त कर ली हो।

खैर भीड़ का हिस्सा मैं भी था। तभी भीड़ से एक दो आवाजें आई अरे! भाइयों अब देर मत करो जल्दी करो!

सबने हाँ में हाँ मिलाई। शायद कुछ को अपने घर जाने की जल्दी थी तो कुछ ऐसे डरे थे कि कहीं यह फिर से जिन्दा होकर कुछ माँग न ले। तभी चार लोगों ने आगे बढ़कर अर्थी उठायी और तेज कदमों से शमशान घाट पहूँचे। अंतिम संस्कार हुआ और फिर लोग दुगना तेज कदमों से अपने घरों की ओर लौटने लगे। जो लोग थोड़ी देर पहले जीवन मृत्यु की बात कर रहे थे अब वे अपने जीवन यापन की बात कर रहे थे।

मैं खाली था। वही बैठकर  धू-धू कर जलती चिता को देखने लगा। जिसकी चिता में देख रहा था। कभी इसका नाम बंदा भगत हुआ करता था। अपने बाप से इसे विरासत में एक कच्चा मकान और भूत प्रेत उतारने की कुछ सिद्धी मिली थी। इसने उस विरासत में न कुछ बढाया और न कुछ घटाया था। बच्चे अक्सर इसके घर के सामने से दौडकर निकलते। कहते बंदे भगत के घर में बहुत सारे भूत, प्रेत कैद है जिस दिन ये उन्हें छोड देगा गाँव विपदा में आ जाएगी। पर ये कोई नहीं जानता था, कि असली विपदा उसके घर में भूख के नाम से रह रही थी। उसे कभी कुछ खाने को मिलता तो खा लेता वरना नीम के पेड के नीचे एक खटोले पर लेटा गुनगुनाता रहता- यू बेरण भूख बडी होशियार, जिसके घर खाने को होवे माल उससे भागे दूर, जाके घर कुछ ना होवे उसको देती मार। ये बेरण भूख बडी होशियार

मैं कभी- कभी उसके घर के अन्दर जाकर भूत प्रेत देखने का साहस करता। भूत-प्रेत तो मुझे कभी नहीं दिखे पर मैं उसकी गरीबी को कई बार देख आता। उसके घर में एक टूटा चरखा, एक दो मिटटी और सिल्वर के बरतन, एक सिलबटटा, और एक टूटी फूटी चिलम का हुक्का था। ये उसकी सम्पति थी जिसकी रखवाली में वो कोई ढील न बरतता था। यदि वो कहीं बाहर जाता तो ये काम फिर उसका एक मरियल सा कुत्ता शेरू करता जितना संतोषी स्वभाव का बंदा भगत था उससे कही ज्यादा उसका कुत्ता शेरू।

मैं कभी -कभी उससे बात करने का साहस करता पर मेरे पास कोई बात न होती फिर भी मैं पूछ लेता बाबा हुक्के की चिलम फूटी है नई क्यूँ नहीं लाते? तब वः अपनी गरीबी को अनोखी मुस्कान के आवरण से ढककर कहता – फूटी चिलम से हुक्का पीने का मजा ही निराला है। ये सुनकर मैं खुश हो जाता कि चलो मुझसे बात तो की वरना उसकी गरीबी की मुस्कुराहट का मुझे भी अंदाज था। फिर ये सब बातें में अपनी उम्र के बच्चों को बताता कि मैं आज भगत के घर गया था, कुछ तो सुनकर दूर भाग जाते पर कुछ मुझे मेरी इस हिम्मत की दाद देते।

मुझे वो समय याद तो नहीं! पर सुनते आया हूँ, कि भगत की एक घरवाली भी थी जो अब इस दुनिया में नहीं थी। कहते हैं, जब वो पेट से थी तो बहुत बीमार रहती थी। घर से बाहर कम ही निकलती थी, यदि भगत के पास कहीं से एक दो रूपया आ जाता तो दवा-दारू कर देता वरना आसुँओ के पानी के साथ सात्वना की खुराक देकर कह देता सब ठीक होगा। धीरे -धीरे समय बीतता गया प्रसव के दिन नजदीक आ गये और एक रात वो प्रसव वेदना से कराह उठी। भगत दौडा-दौडा दाईं के पास पहुँचा पर दाईं अपने घर में नहीं मिली। वो पडोस के गांव गयी थी। भगत ने एक दो अडोस-पडोस की औरतों को आवाज दी लेकिन वो इस भय से नहीं आयीं कि भगत घर में भूत प्रेत का साया हैं। भगत चिल्ला चिल्लाकर कहता रहा कि भूत प्रेत का नहीं, मेरे घर भूख और गरीबी का साया हैं। पर भगत की चीखें किसी को सुनाई न दी।

प्रसव पीड़ा बढी वो दर्द से कराह कर शान्त हो गयी। कहते हैं प्रसव के बाद बच्चे का तो जन्म होता ही है, साथ में माँ का भी नया जन्म होता है। किन्तु यहाँ तो होनी को कुछ और ही मजूँर था। जब तक भगत वापिस आया दोनों के प्राण प्रखेरू उड चूके थे। जिस घर में नवजीवन की किलकारी गूँजने वाली थी! अब उस घर में मातम था। भगत खुद ही रोता खुद को ही सम्हालता उसने औलाद को लेकर जितने सपने पाले थे सब मिट चूके थे। जिस झूठे भूत-प्रेत के धन्धे से लोगो को बहकाकर खाता था। आज वो ही धँधा उसके परिवार को खा गया। वो कभी खुद को कोसता तो कभी अपने काम को कभी समाज को।

अचानक कुत्ते के भौकनें की आवाज से मैं अतीत के आईने से बाहर आया। देखा इक्का-दुक्का किसान ही अपने खेतों में थे। पंछी अपने घोसलों की ओर लौट रहे थे। भगत की चिता की लपटें उस देह को लील चुकी थी. मैं चलते समय उसके कुत्ते शेरू को आवाज दी पर शेरू ने कुँ कुँ कर पूंछ हिला दी, जैसे मुझे कह रहा हो तुम जिस समाज के मालिक हो मैं उस समाज का दास हूँ तुम भले ही इंसान हो पर संवेदना हमारे अन्दर ज्यादा है। तुम अपनी संवेदना स्वार्थ के लिए प्रकट करते हो पर हम सेवा के लिये, तुम इंसान होकर अपना धर्म भूल चुके हो पर हम जानवर अपना धर्म मरते समय तक निभाते हैं।

चलते-चलते मैं फिर सोचने लगा कि, क्यूँ हमारा जन्म होता है और क्यूँ मृत्यु? राजीव चौधरी

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