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क्यों जरूरी है महासम्मेलन में विराट यज्ञ का आयोजन

जरा सोचिये! क्या नजारा होता होगा जब वैदिक काल में सैंकड़ों हजारों की संख्या में उपस्थित लोग एक साथ मिलकर यज्ञ किया करते होंगे। हालाँकि प्राचीन काल में हर घर में भी दैनिक यज्ञ होते थे किन्तु इसके उपरान्त भी पहले बड़े-बड़े राजा महाराजा भी यज्ञ के रहस्य को भली प्रकार समझते थे। समाज को एक करने लिए वह बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन किया करते थे। पाण्डवों ने योगिराज कृष्ण की अनुमति से राजसूय यज्ञ कराया था। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अश्वमेधादि बहुत बड़े-बड़े यज्ञ कराये थे। दुष्यन्त के पुत्र भरत के एक सहस्त्र अश्वमेध यज्ञ का वर्णन मिलता है। महाराजा अश्वपति ने ऋषियों को सम्बोधित करते हुए कहा था हे-महाश्रोत्रियो! मेरे राज्य में कोई चोर, कृपण, शराबी विद्यमान नहीं है क्योंकि मेरे राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक प्रतिदिन यज्ञ करता है। तीर्थों की स्थापना का आधार यज्ञ ही थे। असल में इस पुण्य भूमि में इतने यज्ञ होते रहे कि हमारा देश ही यज्ञिय देश कहलाया गया।

जहाँ बड़े-बड़े स्तर पर यज्ञ होते थे उसी स्थान को तीर्थ मान लिया जाता था। प्रयाग, काशी, रामेश्वरम्, आदि सभी क्षेत्रों में तीर्थों का उद्भव यज्ञों से ही हुआ है। हमारे वेद शास्त्रों का पन्ना-पन्ना यज्ञ की महिमा से भरा पड़ा है। जिनमें कहा गया हैं यज्ञ से परमात्मा प्रसन्न होते हैं। माना जाता है यज्ञ एक धार्मिक क्रिया है जो ब्रह्माण्ड की ‘‘महान शक्ति’’ परमपिता परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश करती है। यानि समस्त सनातन संस्कृति का ईश्वर की उपासना का एक ही ढंग यज्ञ था।

किन्तु आज ये गौरवशाली परम्परा विलुप्त सी हो गयी है। इस कारण यज्ञ की इस परम्परा को बचाए रखने और विकसित करने तथा सनातन संस्कृति को एक करने के उद्देश्य से इस वर्ष दिल्ली में होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय आर्य महासम्मेलन में आर्य समाज ने पचास हजार के करीब लोगों को एकत्र कर, एक समय, एक स्थान और एकरूपता में ढ़ालने के लिए यज्ञ करने का निर्णय लिया है। यज्ञ का यह विराट स्वरूप भारत के इतिहास में अपने आप में एक ऐसा ऐतिहासिक उदाहरण होगा जिसमें समस्त भारत के याज्ञिक उत्तर से दक्षिण तक और पूर्वोत्तर से लेकर पश्चिम तक के आर्यजन भाग लेंगे। एक स्थान पर वैदिक काल के बाद समस्त भारत के आर्यजन इस तरह के आयोजन में इससे पहले शायद ही एकत्र हुए होंगे।

इसकी आवश्यकता इसलिए भी महसूस हुई कि आज वर्तमान में यदि देखें तो बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व में पचास करोड़ से अधिक लोग है जो अपने बौद्ध पर्व को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं, एक जगह एकत्र होकर अपनी धार्मिक एकता का प्रदर्शन भी करते है। इसी तरह इस्लाम मत को मानने वाले लोग ईद के मौके या प्रत्येक शुक्रवार को अपनी वेश-भूषा परम्परागत ढंग से पहनकर अपने-अपने घरों से ईदगाह या मस्जिद परिसर में नमाज के लिए एकत्र होते हैं तथा एक क्रम एक पंक्ति में अपनी इबादत करते दिखते है। शायद यह इनकी धार्मिक शक्ति का प्रदर्शन होता है और इसाई मत को मानने वाले लोग भी प्रत्येक रविवार को जमा होते हैं तथा एक साथ सस्वर अपनी प्रार्थना करते हैं।

इस सबके विपरीत जब हम अपने सनातन धर्म को देखते हैं तो ऐसा कुछ देखने को नहीं मिलता। कुछ दिवसों जैसे मंगलवार या शनिवार या फिर उत्सवों या त्योहारों आदि में लोग मंदिरों में एकत्र तो होते हैं लेकिन घंटों अपनी-अपनी प्रार्थना की बारी आने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। लम्बी-लम्बी कतारें मंदिरों में आसानी से देखी जा सकती हैं। इस तरीकें में न तो हमें समरसता देखने को मिलती, न एकरूपता और न ही एकता दिखाईई देती है।

यह सोचने वाली बात है कि जिनकी आस्थाओं की जड़ें विदेशों में हैं वे प्रार्थना शैली के नाम पर एकत्र हैं और जिनकी जड़ें हजारों वर्ष पुरानी परम्पराओं में विकसित हुईई वे सब अलग-अलग तरीकें लिए बैठे हैं। आखिर इसका उपाय क्या है? धार्मिक दृष्टि से कम होती एकता का इलाज क्या है? आखिर धार्मिक रूप से प्रार्थना के समय लोगों में सामाजिक एकता, धार्मिक समानता, प्रार्थना की एकरूपता कैसे स्थापित हो?

आज यह विचारणीय प्रश्न है कि एकरूपता की ये जड़ आखिर कहाँ है और उसे कैसे सींच सकते हैं। जिसके अनुसार हम एक समय एक स्थान पर बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी कथित ऊंच-नीच के और गरीबी-अमीरी से अलग हटकर इस कार्य में नींव के पत्थर से लेकर आधार स्तम्भ पर टिकी छत तक का काम कर सकें। इसका एक ही उपाय है और वह सामूहिक एकरूप यज्ञ।

स्वयं सोचिये क्या नजारा होगा जब एक स्थान पर हजारों लोग उमड़ेंगे। यज्ञ का महा आयोजन होगा और हजारों कंठों से वेद की वाणी एक साथ वायुमंडल में गुंजायमान होगी। इस यज्ञ को एक विशाल वैश्विक नाम देना होगा वह नाम जो जोड़ कर रखेगा समस्त सनातन धर्म को, मिटायेगा जातीयता के भेद को, रक्षा करेगा धर्म और समाज की जो समस्त संसार को एक ही सन्देश देगा कि हमारी वंशावली ऋषि परिवारों से आरम्भ होती है तो अपने पूवर्जों का धर्म, उनकी दी संस्कृति, परम्पराओं का स्वेच्छिक पालन उपासना की एकरूपता यज्ञ के अलावा भला क्या हो सकती है?

लेख-विनय आर्य

(महामंत्री)

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