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खोदा पहाड़ निकला चूहा

कहने का मूल तात्पर्य यह है की कोई बड़ा काम करो और उसका हल कुछ ना निकले इसी का एक जिन्दा उदहारण फ्रांस की राजधानी पेरिस में देखने को मिला पृथ्वीके बढ़ते तापामन और जलवायु परिवर्तन के मसले पर पेरिस में आयोजित संयुक्तराष्ट्र जलवायु सम्मेलन में हुए समझौते की हर ओर तारीफ हो रही और इसेऐतिहासिक समझौता करार करार दिया है। धरती के बढ़ते तापमान और कार्बनउत्सर्जन पर अंकुश लगाने वाले इस समझौते को 196 देशों ने स्वीकार किया है। प्रधानमंत्री जी ने अपने 39 पन्ने के मसौदे को जिस तरह यजुर्वेद के मन्त्र से समझाने की कोशिस की वो वाकई स्वागत योग्य होने साथ सत्य भी है कि बिना वेदों को जाने प्रकृति को जानना समझना असम्भव है|
इस समझौते के अनुसार,वैश्विक तापमान की सीमा दो डिग्री सेल्सियस से ‘काफीकम’रखने प्रस्ताव है। इस सब को देखकर सुनकर लगा कि जैसे आज इन्सान और प्रकृति की मानो कोई प्रतियोगिता हो और इन्सान हर हाल में प्रकृति से जीतना चाह रहा हो किन्तु प्रकृति और मानव के इस युद्ध में अंततः यह बात हर कोई जानता है कि जीत अंत में प्रक्रति की होगी तो क्यों प्रकृति से नाहक बैर मोल लिया जाये| आज दो डिग्री पर जिस तरह पूरा विश्व समुदाय एकत्र हुआ वैसे देखा जाये तो तापमान वृद्धि पर अंकुश की यह बात भारत और चीन जैसे विकासशील देशों की पसंद के अनुरूप नहीं है,जो औद्योगिकीकरण के कारण कार्बन गैसों के बड़े उत्सर्जक हैं। लेकिन भारत ने शिखर बैठक के इन नतीजों को ‘संतुलित’और आगे का रास्ता दिखाने वाला बताया।
इस समझौते में सबको अलग-अलग जिम्मेदारी’ के सिद्धांत को जगह दी गई है, जिसकी भारत लंबे अर्से से मांग करता रहा है। जबकि अमेरिका और दूसरे विकसित देश इस प्रावधान को कमजोर करना चाहते थे। पेरिस समझौते में कहा गया है कि सभी पक्ष, जिसमें विकासशील देश भी शामिल हैं- कार्बन उत्सर्जन कम करने के कदम उठाये। इसका अर्थ हुआ कि विकासशील देशों को इसके लिए कदम उठाने होंगे, जो कि विकास के उनके सपने में एक रोड़ा साबित हो सकता है। और विकसित देशों ने चालाकी दिखाते हुए पर्यावरण को स्वस्थ रखने में अपनी जिम्मेदारी में कटोती कर सारी जिम्मेदारी विकासशील देशों के कंधो पर डाल दी| और उन्होंने अपनी तरफ से कह दिया कि किसी भी क्षति और घाटे के लिए हम जिम्मेदार नहीं होंगे न किसी हम पर किसी मुआवजे आदि का (विकसित देशों) पर कोई वास्तविक दायित्व भी नहीं होगा। अगर कहा जाये जलवायु सम्मेलन एक किस्म से एक व्यापारिक सम्मेलन था बड़े देश छोटे-छोटे देशो से पैसा वसूल करेंगे| क्योंकि विकसित आज आर्थिक रूप से और औधोगिक रूप सक्षम है| किन्तु जैसे ही विकासशील देशों ने उद्योगों के जरिये अपने विकास का रास्ता खोजा तो ही विकसित देश जलवायु परिवर्तन का नगाड़ा बजा बैठे| हालाँकि जलवायु परिवर्तन है सच में ही एक विचारणीय विषय है पर क्या जहरीली गैसों के लिए विकासशील देश ही जिम्मेदार है|
आज जिस तरीके से समस्त विश्व विकास के लिए तड़फ रहा है किन्तु यह एक बात क्यूँ नहीं सोच रहा है कि विकास मानव समुदाय के लिए किया जा रहा और विकास से उत्पन्न बीमारी भी मनुष्य समाज को खा रही है क्या बिना रासायनिक विकास के जीवन नहीं जिया जा सकता?

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