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जन्म-मरण धर्मा जीवात्मा

  अपश्य गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्च्रन्तं| स सध्रीची: स विशुचिवसान आ भुवव्नेष्वंत: || ऋग्वेद १०/१७७/3

अर्थ- मैं (गोपाम`) इन्द्रियों के स्वामी (अनिपद्यमानम) अविनश्वर, नित्य (आ च परा च) शारीर में आने और जाने के (पथिभि:) मार्गों से (चरन्तम) कर्मफल भोगते हुए जीवात्मा को (अपश्यम) देखता हूँ | (स:) वह (सध्रीची:) पुण्य कर्म और (विषूची:) पाप कर्म की वासनाओं से (वसान:) अच्छादित हुआ (भुवनेषु अंता:) लोक-लोकान्तरों एवं विभिन्न योनियों में (आव्रिवर्ती) आता-जाता रहता है|

मन्त्र में आत्मा के लिए चार बातें कहीं हैं-

आत्मा इंद्रियों का स्वामी है, वह नित्य है, कर्मों का फल भोगने के लिए एक शारीर में आता-जाता है और पुण्य कर्मों से पुण्य लोक तथा पाप कर्मों से अधम लोक या योनियों में इन कर्मों का फल भोगता है| इन पर क्रमश: विचार करते हैं-

1-     मन्त्र में आत्मा को अनिपद्यमान अर्थात अविनाशी, नित्य मन है| ईश्वर, जीव, प्रक्रति यह तीनों अनादी तत्व हैं | यदि आत्मा का प्रारंभ माना जाये तो उसे उत्पन्न करने वाला कौन था | यदि ईश्वर ने इस शारीर में रूह फूंक दी, जैसा बाइबिल और कुरान में है तब आत्मा का अंत भी होना चाहिए और जिस पदार्थ में आत्मा का निर्माण हुआ है, प्रवाह से अनादि होने के कारण उसकी समाती भी हो जाएगी | जब ईश्वर ही नवीन आत्माओं की उत्पत्ति करता है तो कोई सुखी-दुखी, मंदबुद्धि-बुद्धिमान धनि-निर्धन किसके आधार पार होता है | वह जिसको चाहे जन्नत दे और दूसरों को दोजख की अग्नि | ऐसा मानने पर उसमें पक्षपात का दोष आयेगा | इसलिए आत्मा को अनादी मनना ही ठीक है | आत्मा जब शारीर धारण क्र लेती है तब उसकी जीव संज्ञा हो जाती है|

2-     आत्मा गोपा अर्थात इन्द्रियों का रक्षक, स्वामी है| पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कमेंद्रियाँ और मन यह सब आत्मा के सहयोगी है| यह इन्द्रियां जड़ हैं परन्तु आत्मा के सानिध्य में चेतनवत कार्य करती दिखाई देती है| मन, बूद्धि, चित्त, अहंकार, चरों अंत:करण अर्थात आन्तरिक इन्द्रियां मानी गयी हैं| पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कमेंद्रियाँ, पांच प्राण, मन, बूद्धि, इन सत्रह तत्वों का संघात सूक्षम शरीर कहलाता है| जो मृत्यु के पश्चात पश्चात दुसरे शारीर में आत्मा को आवेष्टित किये हुए जाता है| प्रलय कल अथवा मुक्ति को छोड़ इस सूक्ष्म शारीर से आत्त्मा आवेष्टित रहता है|

3-     आ च परा च पथिभिश्च्ररतम– शारीर में आने और जाने के मार्गों से कर्मफल भोगते हुए जीवात्मा को मैं देखता हूँ| यह वचन किसी योगी का ही हो सकता है| योगी और परमात्मा ही जीवों के गमनागमन कू जान सकते है| आत्मा जब शरीर को छोड़ती है तो सूक्ष्म शारीर के साथ उदान प्राण इसे शारीर के किसी द्वार से निकल कर ले जाता है| इसके जाने की तीन गतिया हैं | जो जीव दान, पुण्य आदि शुभ कर्म करता है | वह पित्र्यन के मार्ग से चंद्रलोक अर्थात जो सुख देने वाले लोक या शारीर है उनको प्राप्त करता है | इनमें भी जो जीव जिस इन्द्रिय में अधिक आसक्त है वह उसी मार्ग से जाता है | विषय वासनाओं में फंसे हुए अधम मार्ग से जाते हैं| जिन्होंने योग साधना और देवयान का मार्ग चुना है और जो मुक्त हो गए हैं उधर्व मार्ग मूर्धा के द्वार से जाते हैं| उनका पुनरण मुक्ति का जितना कल है, उतने समय तक नहीं होता| वे परमात्मा के आनंद में सर्वत्र अव्याहत गति से स्वछंद भ्रमण करते और मुक्ति के आनंद को भोगते हैं | जो देवयान पित्र्याण के मार्ग से पृथक सामान्य पशु- सद्रश जीवन जीते हैं वे जायस्व- प्रियस्व बार-बार उत्पन्न होते और मरते रहते हैं |

जब पाप पुण्य बराबर होता है तब साधारण मनुष्य का जैम मिलता है | पाप का प्रतिशत कुछ अधिक बढ़ जाने पर पशु योनी और पुण्य कर्मों के अधिक होने पर देव अर्थात विद्वानों का शारीर मिलता है | जब जीवात्मा इस शारीर से निकलती है उसी का नाम मृत्यु और शारीर से संयोग होने का नाम जन्म है | जब शारीर झोड़ता तब यमालय अर्थात आकाशस्थ वायु में रहता है और अपने कर्मानुसार दूसरी योनी को प्राप्त होता है | जैसे तन जलायु (सुण्डी) किसी तिनके के आगे वाले भाग को एकड़ कर फिर अपने आपको पिछले तिनके से खींच लेती है वैसे ही जीवात्मा इस शारीर रुपी तिनके को फेंक कर दूसरे शरीर का आश्रय ले उसी में प्रविष्ट हो जाता है | इस प्रकार आवागमन का यह चक्र मुक्ति ना हो तब तक चलता रहता है |

4-     स सध्रीची: स विसुचिव्रसान आ वरीवर्ति भुव्नेष्वंत: जो कर्म किया जाता है उससे संस्कार बनते हैं | संस्कारों से वासना अर्थात जैसे संस्कार है वैसे ही कर्म करने की इच्छा उत्पन्न होती है | यह वासनाएं ही जीवतमा को अगली योनियों में ले जाती है | जो सध्रीची: अर्थात सहयोगिनी और पुण्य वासना होती है वे पुण्य लोक को प्राप्त कराती है और विषूची: पीडा दायक, पापरूप पाप योनियों में ले जाती है | व्यक्ति जैसा संकल्प करता है, वैसा ही कर्म करता है | जैसा कर्म करता है उसको वैसा ही फल मिलता है | इसलिए क्रतुमय: पुरुष: कहा गया है | जब कामनाएं समाप्त हो जाती हैं तो जीवन्मुक्त हो जाता है |

शारीर, वाणी मन से किये पापों को उन्हीं से भोगा जाता है | अर्थात शारीर किये पापों का फल शारीर को ही भोगना पड़ेगा | शारीर से किये पाप-चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मरने आदि दुष्ट कर्मों का फल वृक्षादी स्थावर का जन्म, वाणी से किये असत्य, कठोर सम्भाषण, चुगली और बकना आदि का फल पक्षी मृगादि की योनियाँ और मन में किसी को मरने की इच्छा, किसी के धन को हडपने की इच्छा तथा नास्तिक-बुद्धि वालों को चाण्डाल आदि का शारीर मिलता है | जो गुण इन जीवों के देह में अधिकता से वर्त्तता है, वह गुण उस जीव को अपने सद्रश कर लेता है | तमोगुण का लक्षण काम, रजोगुण का अर्थ-संग्रह की इच्छा और सत्वगुण का लक्षण धर्म सेवा करना है | किन कर्मों का क्या फल मिलता है इसके लिये मनुस्मृति का बारहवां अध्याय अथवा सत्यार्थप्रकाश का नवम समुल्लास देखना चाइये |

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