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जब काशी नरेश ने कहा, काशी की लाज रखने के लिए स्वामी दयानन्द को पराजित करना होगा

आज से 150 वर्ष पहले महर्षि दयानन्द जी का मंगलवार 16 नवम्बर, 1869 को काशी के आनन्दबाग में अपरान्ह 3 बजे से सायं 7 बजे तक लगभग पांच हजार दर्शकों की उपस्थिति में विद्यानगरी काशी के शीर्षस्थ 30 पण्डितों से अकेले मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ हुआ था। इसी उपलक्ष्य में आर्यसमाज संगठन की ओर से काशी में 11 से 13 अक्टूबर, 2019 तक तीन दिवसीय स्वर्ण शताब्दी वैदिक धर्म महासम्मेलन होने जा रहा है.

आखिर क्या था काशी शास्त्रार्थ और इसकी वर्षगांठ  क्यों मनाई जा रही है?

काशी शास्त्रार्थ के 150 वर्ष के उपलक्ष्य में…

शास्त्रार्थ पूर्व की स्थिति – पण्डित वर्ग में मची खलबली

काशी नरेश की दृष्टि में काशी की लाज रखने के लिए स्वामी दयानन्द को पराजित करना होगा

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– स्मृतिशेष डॉ. भवानीलाल भारतीय

लगभग एक मास तक रामनगर में रह कर कार्तिक कृष्णा द्वितीया अथवा तृतीया (22 या 23 अक्टूबर 1869) को स्वामी दयानन्द काशी आये। प्रारम्भ में वे गोसांईजी के बाग में ठहरे, पश्चात् अमेठी के राजा माधोसिंह के दुर्गाकुण्ड स्थित उद्यान में चले गये। काशी जैसे स्थान पर स्वामीजी का आगमन एक प्रचण्ड धर्मान्दोलन का कारण बना। नित्य प्रति सैंकड़ों की संख्या में लोग उनसे वार्तालाप, शास्त्र चर्चा तथा शंका समाधान के लिए उपस्थित होने लगे। इनमें जहाँ सच्चे जिज्ञासु थे, तो केवल कौतूहल शान्त करने के लिये आने वालों की संख्या भी कम नहीं थी। काशी निवासियों के लिये यह एक अभूतपूर्व तथा अश्रुतपूर्व प्रसंग था कि कोई संन्यासी मूर्तिपूजा का खण्डन करे।

काशी के विद्वत् समुदाय ने प्रथम तो संन्यासी के प्रति उपेक्षा भाव प्रदर्शित किया। ऐसा कर मानो वह यह दिखाना चाहता था कि भगवान् पिनाकपाणि के त्रिशुल पर स्थित काशी में मूर्तिपूजा का विरोध करने वाला व्यक्ति अपने उद्देश्य में कभी सफल नहीं हो सकता। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अकेले इस परमहंस ने ही काशी के सम्पूर्ण वातावरण को प्रतिमा पूजन के प्रतिकूल बना दिया है, तो उनका ध्यान आगन्तुक संन्यासी को ओर जाना स्वाभाविक ही था। स्वामीजी के मूर्तिपूजा खण्डन का प्रत्यक्ष प्रभाव इस रूप में दृष्टिगोचर हुआ कि जो लोग दुर्गा मन्दिर में दर्शनार्थ आते थे, वे प्रथम तो इस दिव्य संन्यासी के तेजस्वी उपदेश को सुनने के लिए रुक जाते, तत् पश्चात् जब उनकी मूर्ति पूजन के प्रति धारणा में ही परिवर्तन हो जाता, तो वे देवी का दर्शन किये बिना ही अपने घरों को लौट जाते। इस प्रकार श्रद्धालु भक्तों की संख्या का कम होना मन्दिर के पुजारी के लिए खतरे की घण्टी थी। उन्होंने स्वामीजी से निवेदन किया कि वह कहीं अन्यत्र पधार जायें।

शास्त्रार्थ के लिए सामने आने से पूर्व काशी की विद्वन् मण्डली ने स्वामीजी के वैदुष्य तथा उनके शास्त्र ज्ञान की परीक्षा लेने का विचार किया। प्रत्यक्ष रूप में तो वे उनसे वार्तालाप करने से कतराते थे, अत: कभी प्रच्छन्न रूप में उनकी सभा में आते और कभी स्वयं न आकर अपने विद्यार्थियों को स्वामी जी की शास्त्र विषयक जानकारी की थाह लेने के लिए भेजते। जो विद्वान् इस प्रकार गुप्त रूप से स्वामीजी के निकट आकर उनके शास्त्र ज्ञान का परिचय प्राप्त कर सके, उनमें रामशास्त्री, दामोदर शास्त्री, बालशास्त्री आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। सम्भवत: राजाराम शास्त्री भी गोपन रूप में आये थे।

इधर काशी नरेश का यह आग्रह बढ़ रहा था कि दयानन्द को शीघ्रातिशीघ्र शास्त्रार्थ समर में पराजित कर काशी की लाज रखनी चाहिए। उन्होंने पण्डितों को आहूत कर शास्त्रार्थ की तैयारी करने का आग्रह किया। परन्तु विद्वान् लोगों को शास्त्रार्थ साम्मुख्य में संकोच हो रहा था। प्रथम तो उन्होंने दयानन्द की अगाध विद्वत्ता, तलस्पर्शी शास्त्रज्ञान, अपूर्व वाग्मिता, अद्भुत तर्क कौशल तथा असाधारण शास्त्रार्थ पटुता को देखा था। साथ ही वे यह भी जान चुके थे कि दयानन्द का आग्रह मूर्तिपूजा की सिद्धि में वेदों के प्रमाण प्रस्तुत करने पर है । वस्तुस्थिति यह थी कि उनकी न तो वेदों में गति ही थी और न वे मूर्तिपूजा की सिद्धि में कोई वैदिक प्रमाण प्रस्तुत ही कर सकते थे।

कहते हैं कि काशिराज ने पं. सखाराम भट्ट से प्रस्ताव किया था कि वे भावी शास्त्रार्थ में पौराणिक पक्ष के मुख्य प्रवक्ता बन कर इस वाद का संचालन करें। परन्तु भट्ट जी उनके इस प्रस्ताव से सहमत नहीं हुए। सम्भवत: वे जान गये थे कि वैदिक प्रमाणों के अभाव में दयानन्द को परास्त करना सम्भव नहीं होगा और यदि अपनी नीति एवं प्रकृति के अनुकूल काशी के पण्डित मुख्य विषय से हट कर दयानन्द को व्याकरण विषयक प्रश्नों में उलझाना चाहेंगे, तब भी उन्हें सफलता नहीं मिलेगी, क्योंकि वैयाकरणमूर्धन्य विरजानन्द दण्डी के शिष्य को शब्दशास्त्र हस्तामलकवत् प्राप्त है। ऐसी स्थिति में वे शास्त्रार्थ में उपस्थित रहने के लिए भी राजी नहीं हुए।

पण्डित वर्ग ने काशी नरेश का जब शास्त्रार्थ विषयक मन्तव्य, जो आदेश के रूप में ही था, जान लिया तो बड़े सिटपिटाये। प्रथम तो शास्त्रार्थ से कन्नी काटने के लिये वे अनेक प्रकार के बहाने बनाने लगे। उन्होंने यह कहना आरम्भ किया कि दयानन्द क्रिस्तान [ईसाई] है, गोरी सरकार का गुप्तचर है। कभी कहते, व्याकरण को छोड़ कर उनकी किसी शास्त्र में गति नहीं हैं। परन्तु बहाने करके भी शास्त्रार्थ से पिण्ड छुड़ाना कठिन हो गया। जब महाराजा ने स्पष्ट कहा कि आप लोगों की जीविका ही मूर्तिपूजा के सहारे चलती है, लाखों रुपये दक्षिणा रूप में आपको प्रतिमा पूजन से ही प्राप्त होते हैं, अत: आपका कत्तंव्य है कि आप इस सनातन (अथवा परम्परा प्राप्त) व्यवस्था का समर्थन करें। इस प्रकार राजा का प्रत्यक्ष निर्देश पाकर पण्डितों ने शास्त्रार्थ करना स्वीकार तो किया, किन्तु नरेश से यह भी अनुरोध किया कि इसकी समुचित तैयारी के लिये उन्हें पर्याप्त समय दिया जाय। राजा ने उनके इस प्रस्ताव को मान लिया।

[स्रोत : नवजागरण के पुरोधा दयानन्द सरस्वती, काशी शास्त्रार्थ प्रकरण, प्रस्तुति : भावेश मेरजा]

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