मेरठ के लक्खीपुरा पिछले सप्ताह यहाँ के एक गंदे नाले में बोरे में बंद लाश जैसी कोई राहगीरों को चीज दिखाई देती है। मामला पुलिस के पास और पहुंचा पुलिस की उपस्थिति में जब बोरा खोला गया तो एक लड़की की सिरकटी लाश थी। मामला संगीन था तो क्राइम ब्रांच की टीम को दे दिया गया। क्राइम ब्रांच की टीम ने बड़ी तेजी से काम किया और पता चल गया कि यह सिरकटी लाश लिसाड़ी गेट, शालीमार गार्डन में रहने वाली शाइना उर्फ़ सानिया की है।
पुलिस घर पहुंची मामले की जाँच की और अंत में पुलिस ने सानिया के हत्या के आरोप में सानिया के पिता शाहिद उसकी मां शहनाज और भाई को हिरासत में ले लिया। आप सोचिये हत्या का क्या कारण हो सकता है? कारण सिर्फ ये था कि सानिया वसीम से प्यार करती थी और उसके साथ घर बसाना चाहती थी। अब इसमें आप सोच रहे होंगे कि अड़चन क्या थी! जब दोनों मुसलमान थे? दरअसल वसीम छोटी जाति का मुसलमान था और सानिया उससे कुछ ऊँची जाति की मुस्लिम थी। यानि सानिया कुरैशी थी यानि कसाई बिरादरी से और वसीम सैफी बिरादरी से। मुसलमानों का अन्दर का ना दिखाई देने वाला गहरा जातिवाद सानिया की मौत का कारण बना, जिससे उसका सर तन से जुदा किया गया। मां शहनाज को पहले से से सब कुछ पता था हत्या के बाद शहनाज पति शाहिद के जुर्म को छुपाने के लिए खामोश रही।
सानिया की हत्या पर भले ही मीडिया खामोश हो। मुसलमानों के अन्दर के इस भयानक रूप ले चुके जातिवाद पर भले ही विमर्श ना करते हो, इसे दबाकर रखते हो। हिन्दुओं के जातिवाद को लेकर कितना भी शोर मचाया जाता हो लेकिन किसी गंदे नाले में तैरती सानिया की लाश अब इनकी पोल खोल रही है।
सिर्फ लाश ही नहीं अब्दुल बिस्मिल्लाह का लिखा कुठांव उपन्यास इस भारतीय मुस्लिम समाज के एक दिखने वाले ढांचे पर भयंकर प्रहार करता है। ये सच है कि भारत के करीब 20 करोड़ मुसलमानों में से ज़्यादातर स्थानीय हैं। जिनका धर्मांतरण किया गया है, कैसे किया वो सब जानते है। लेकिन अधिकांश मुस्लिम उलेमा मौलाना या इमाम अक्सर ये कहते दिख जाते कि हिन्दुओं में जातिवाद था इस कारण ये लोग मुसलमान बन गये। आगे कहते है कि इस्लाम बराबरी की बात करता है, मसावात की बात करता है। हालाँकि मौलानाओं का ये कथन ये झूठ थोड़े समय पहले बखूबी पकड़ा गया था।
ये हकीकत है कि भारत पाकिस्तान बांग्लादेश जैसे मुल्कों में आमतौर पर सभी मुस्लिम हिन्दू से मुसलमान बने लेकिन वो जिस जाति और वर्ग से आए, उन्हें मुस्लिम होने के बावजूद उसी जाति या वर्ग का आज भी समझा जाता रहा है। जब हद से जयादा अपमान किया जाने लगा तो 90 के दशक में बिहार से डॉ. एजाज़ अली के आल इंडिया बैकवर्ड मुस्लिम मोर्च बनाया। इसके बाद अली अनवर के आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ और महाराष्ट्र से शब्बीर अंसारी के आल इंडिया मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाईजेशन जैसे संगठनों ने मुसलमानों के भीतर जाति भेदभाव को लेकर आंदोलनों को नयी गति दी।
लेकिन असल सच तब सामने निकलकर आया जब चार शोधकर्ताओं जिनमें प्रशांत के त्रिवेदी, श्रीनिवास गोली, फ़ाहिमुद्दीन और सुरेंद्र कुमार ने अक्टूबर 2014 से अप्रैल 2015 के बीच उत्तर प्रदेश के 14 ज़िलों के 7,000 से ज़्यादा मुस्लिम घरों का सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण में दलित मुसलमानों के एक बड़े हिस्से का कहना है कि उन्हें गैर-दलितों की ओर से शादियों की दावत में निमंत्रण नहीं मिलता। उन्हें बड़ी जाति के मुसलमानों से जाति सूचक शब्द सुनने को मिलते है और उनका अपमान किया जाता है।
दूसरा इस सर्वेक्षण में दलित मुसलमानों के एक समूह ने कहा था कि उन्हें गैर-दलितों की दावतो में अलग बैठाया जाता है। उच्च-जाति के लोगों के खा लेने के बाद ही उन्हें खाना दिया जाता हैं। बहुत से लोगों ने यह भी कहा था कि उन्हें अलग थाली में खाना दिया जाता है। जातिवाद का यह नंगा नाच भेदभाव सिर्फ शादी तक सिमित नहीं है बल्कि दलित मुसलमानों ने कहा कि मदरसों में उनके बच्चों को कक्षा में और खाने के दौरान अलग-अलग पंक्तियों में बैठाया जाता है।
साथ इस सर्वेक्षण में सामने आया कि बड़ी जाति के कब्रिस्तानों में अपने मुर्दे नहीं दफ़नाने दिए जाते अगर दफना दिया जाये तो लाश को कब्रिस्तान से बाहर फेंक दिया जाता है। इसके अलावा मस्जिदों में इन भयानक भेदभाव की खबरें आप रोज पढ़ते है जिसमें अरब से लेकर एशिया तक शिया सुन्नी अहमदिया बोहरा एवं हर एक जाति और फिरके की अलग-अलग मस्जिद है। भूल से कोई एक दूसरें की मस्जिद में चला भी जाये तो जलील करके निकाला जाता है।
सर्वेक्षण करने वाली जब यह टीम ऊँची जाति के मुसलमानों के घर गयी और उनसे पूछा कि जब कोई दलित मुसलमान उनके घर आता है तो क्या होता है। इस पर उन्होंने ने कहा कि कोई दलित मुसलमान उनके घर नहीं आ सकता और जिनके घऱ दलित मुसलमान आते भी हैं तो दलित मुसलमानों को उन बर्तनों में खाना नहीं दिया जाता जिन्हें वह आमतौर पर इस्तेमाल करते हैं।
इस विषय पर काम करने वाले राजनीति विज्ञानी डॉक्टर आफ़ताब आलम कहते हैं मुसलमानों के लिए जाति और छुआ-छूत जीवन की एक सच्चाई है। तथा अध्ययनों से पता चलता है कि छुआछूत मुस्लिम समुदाय का सबसे ज़्यादा छुपाया गया रहस्य है। साफ़ और गंदी जातियां मुसलमानों के बीच मौजूद हैं। लेकिन इस पर ना कभी मीडिया बहस करता और ना वो दलित डर या शर्म की वजह से बाहर आते जो इसका शिकार होते है। आप भले ही उन्हें मुसलमान कहिये लेकिन वो लोग आज भी दलित है और भेदभाव का शिकार है। लेकिन शर्म की बात है मिडिया इन खबरों की कवरेज नहीं करता ना देवबंदी बरेलवी अहले हदीस या अहमदियों के मौलानाओं को बुलाकर डिबेट करता। हाँ अगर यही सानिया किसी हिन्दू जाति से होती और वसीम किसी कथित पिछड़े वर्ग से तो न्यूज़ रूम के एंकर और मौलाना चार दिन इस पर लम्बी-लम्बी डिबेट करते और हिन्दू समाज को बदनाम करते। किसी न्यूयॉर्क टाइम्स या वाशिंगटन पोस्ट में किसी बरखा दत्त या राणा अयूब के लम्बे-लम्बे आर्टिकल छपते। किन्तु मामला मुसलमानों की अंदरूनी मसावात की जंग का है, बराबरी की लड़ाई का है तो सब मौन है। लेकिन अब फैसला दलित मुसलमानों को लेना होगा कि मजहब बदलने पर भी उनके साथ भेदभाव क्यों?
Rajeev Choudhary