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जिन्होंने राष्ट्र का गौरव बढ़ाया आज राष्ट्र उनका गौरव बढ़ा रहा है “

गरीबों आदिवासियों के सच्चे मसीहा , भारतीय संस्कृति , संस्कार , सभ्यता को अपने पवित्र धन से सींचने वाले एमडीएच मसाले के चैयरमेन और मेरे लिए एक मजबूत स्तंभ आदरणीय महाशय धर्मपाल गुलाटी जी को भारत के तृतीय सर्वोच्च पुरस्कार पद्मभूषण से सम्मानित करने पर भारत सरकार का धन्यवाद।

 मैं अगर अपने जीवन का अवलोकन करके ऐसे व्यक्तियों की सूची तैयार करूं। जिन्होने मेरे जीवन को सर्वाधिक प्रभावित किया है। तो उस सूची में तांगे वाले से लेकर एमडीएच मसाले के चैयरमैन तक का सफर तय करने वाले आदरणीय श्री महाशय धर्मपाल गुलाटी जी का नाम सबसे अग्रिम पंक्ति में आता है। और उनका नाम आते ही श्रद्धा से शिर झुक जाता है। और रंगों में उष्ण रक्त का संचार होता है। आज मैं अभी तक की जिंदगी में कोई बड़ा तीर नहीं मारा पाया हूं । पर यहां तक के सफर मैं भी मुझे सबसे पहले सबसे ज्यादा अपनेपन का अहसास आदरणीय महाशय जी ने करवाया है। कहावत है – इतने छोटे बनों की हर कोई आपके साथ बैठ सके। और इतने बड़े बनों की आप खड़े हो जाओ तो कोई बैठा ना रहे। ये किसी व्यापारी की स्तुति नहीं अपितु कामयाबी की बुलंदियों पर काबिज एक महामना के प्रति समर्पण है। कि बेहद सामान्य परिवार से आने वाले लोगों को भी वो अपनापन और प्यार देते हैं। जीवन का एक ही ध्येय मानते हैं । तन – मन – धन सब समाज के अर्पण। और आज भी इनका अतीत और कामयाबी की कहानी मेरे जैसे लाखों सामान्य परिवार से आने वाले नौजवानों को प्रेरणा देती है। आज कीर्ति नगर स्थित एमडीएच की फैक्ट्री जाकर मुलाकात की, और कुशलक्षेम पूछा यह एक ऐसे चैयरमैन हैं जो सातों दिन बिना छुट्टी के 96 साल की उम्र में  हर दिन  18 घंटे काम करते हैं। संडे को भी फैक्टरी आते हैं। कामयाब होना और चोटी पर बने रहना दोनों के लिए खुद को तपाना पड़ता है और तपते रहना पड़ता है। ऐसे थाली में सजाकर कोई नहीं देता लेकिन लंबा पुरुषार्थ फिर स्वयं ही आनंद देने लगता है।

महाशय जी कर्मठता, संघर्ष, और चुनौतियों से भरे जीवन का सबसे बड़ा उदाहरण हैं। जिन्होंने अपने जीवन यात्रा में हर कड़वे अनुभव और तकलीफ़ को महसूस किया है। पर कभी हार नहीं मानी।

निरंतर चलते रहना!  बिना रुके, बिना थके। और सिर्फ काम पर ध्यान देना ही उनके जीवन का मूलमंत्र है।

शल्य महाभारत में जब अपने सामने इंद्र को ब्राम्हण भेष में देखता है। तो कर्ण से कहता है – दान मत देना! तुम्हारे सामने खड़ा व्यक्ति कोई ब्राम्हण नहीं है। यह इंद्रराज हैं,जो अपने पुत्र अर्जुन की रक्षा के लिए तुमसे तुम्हारे  कवच और कुंडल मांगने आया है ।

तो दानवीर कर्ण ज़बाब देते हैं – शल्य क्या तुम्हें लगता है कि मुझे पता नहीं है, कि मेरे सामने  याचक बनकर खड़ा व्यक्ति इंद्र हैं। हां मैं जानता हूं। लेकिन फिर भी सूर्योदय के समय अगर मुझसे कोई याचना करता है। तो मैं अपने दान देने के संकल्प से प्रतिबद्ध हूं।

और एक साधारण से सूत के घर में जन्म लेने वाला   सामान्य सा बालक ऐरावत हाथी को चलाने वाले देवराज इन्द्र को दान देकर संतुष्ट करेगा इस से बड़ी बात मेरे लिए और क्या हो सकती है।

और सुनो शल्य –

शिक्षा क्षयं गच्छति कालपर्ययात् , सुभद्धमूला निपतन्ति पादपा: !

जलं जलस्थानगतं च शुष्यति। हुत्तं च दत्तं तथैव तिष्ठति ।।

शल्य एक समय ऐसा आता है, जब मनुष्य का अर्जित किया हुआ ज्ञान नष्ट हो जाता है। और वटवृक्ष चाहे कितना भी मजबूत हो आंधी का पुरजोर झटका अपनी पर आ जाये तो उसको भी समूल जड़ से उखाड़ फेंकता है।

और एक दिन ऐसा भी आता है , कि तालाब का जल चाहे कितना भी गहरा हो सूख जाता है।

पर यज्ञ में दी गई आहुति और सत्पात्र को दिया गया दान कभी नष्ट नहीं होते ।

वह सूक्ष्म रूप में हृदय पटल पर अंकित हो व्यक्ति का यश बन जन्म जन्मांतर तक उसके साथ सफर करते हैं ।

आदरणीय महाशय जी के जीवन के दो सबसे प्रमुख कर्म

प्रतिदिन यज्ञ करना और दान देना  हैं। कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है। जिसमें दान देकर आपने यश ना कमाया हो।

मेरी नज़र में आज के समय में वह सबसे बड़े दानी हैं।

जो आने वाले हर व्यक्ति को अनुभव, समय, धन, स्नेह, ज्ञान और  मार्गदर्शन में से कोई एक दान देकर जरूर विदा करते हैं।

ईश्वर ऐसे कर्मयोगी को चरैवेति चरैवेति चरैवेति के पथ पर निरंतर अग्रसर रखें ताकि समाज ऐसे कर्मठ, योग्य और दानी व्यक्ति का उनके मसालों के साथ ऐसे ही लाभ उठाता रहे।

फंडा यह है कि – महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि आप कितने पढ़ें लिखें हैं , और कितने बड़े ओहदे पर हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि आप में खुद के भीतर बैठे हुनर को पहचान कर उसे कठोर परिश्रम के सांचे में ढालने का साहस है, या नहीं। अगर है, तो फिर आप भी चाहे पांचवीं फेल ही क्यों ना हों। आप किसी अन्य क्षेत्र के महाशय धर्मपाल बनकर इतिहास रच सकते हैं। और यह समाज और राष्ट्र आपसे लाभ उठा सकता है और वह हुनर हर व्यक्ति में किसी ना किसी रूप में विद्यमान रहता है। बस उसे पहचान कर स्वयं के आलस्य के साथ लड़ते हुए खुद को संघर्ष के मैदान में परखना होता है।

सोमवीर आर्य

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