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दिव्य दयानन्द का दिव्य चिन्तन

-आचार्य चन्द्रशेखर शास्त्री, अन्तर्राष्ट्रीय कथाकार, सम्पादक अध्यात्म पथ

आर्य समाज के संस्कापक महर्षि दयानन्द सरस्वती दिव्यगुणों से युक्त थे। उनका व्यक्तित्व महान एवं प्रेरक था, वे आदित्य ब्रह्मचारी, परम आस्तिक एवं अद्भुत योगी थे। बचपन से ही उन्हें आस्तिकता के संस्कार मिले थे और शिव भक्ति की प्रेरणा उन्हें अपने पिता श्री कर्षन जी तिवारी से प्राप्त हुई थी। शिवरात्रि के अवसर पर व्रत रखने वाले इस बालक ने देखा कि आधी रात होते-होते सभी भक्त जन निद्रा निमग्न हो गये हैं। और शिव की पिण्डी पर चूहे उछल-कूद मचा रहे है, इस दृश्य को देखकर उन्हें लगा कि यह सच्चा शिव नहीं हो सकता और मुझे सच्चे शिव की खोज करनी चाहिए। अपनी बहिन और चाचाश्री की मृत्यु के दृश्य ने उनके मन में यह प्रश्न उत्पन्न कर दिया कि मृत्यु क्यों होती है और इससे कैसे बचा जा सकता है? संसार में दुःख क्यों है? और उनके परिशमन का क्या उपाय है? इन्हीं प्रश्नों के समाधान और सच्चे शिव की खोज में बालक मूलशंकर घर से निकल पडत्रे। उन्होंने बहुत से स्थानों का भ्रमण किया और ढांगी संन्यासियों ने उन्हं ठगने में कोई कोर कसर न छोडत्री, पर बालक मूलशंकर निराश नहीं हुए अपितु, सच्चे शिव की खोज और योगविद्या की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे, अन्ततः उन्हें कुछ ऐसे गुरु मिले कि जिन्होंने उन्हें योग के गूढ़ रहस्यों को समझाया।

महर्षि दयानन्द सरस्वती दया के सागर थे। उनमें आनन्द का स्रोत निरन्तर प्रवाहित रहता था इसलिए वे मानापमान से ऊपर उठ गये थे। कोई उनकी निन्दा करे या स्तुति, पत्थर मारे या गालियां दे, वे दुःखी नहीं होते थे। उन्हें सरस्वती सिद्ध थी। वे ज्ञान का अद्भुत भण्डार थे।

स्वामी जी में मानव के प्रति करुणा का भाव चरमोत्कर्ष पर था। संन्यासी होने पर भी उन्होंने संसार के जीवों को तथाकथित वैरागियों की भांति उपेक्षित कर दया और आनन्द के अमृत से वंचित नहीं रखा, सच तो यह है कि वह विश्वबन्धुत्व एवं मानवता के उद्धारकों में इस दया और आनन्द का पात्र प्राणिमात्र को बनाकर वह मूर्धन्य स्थान के अधिकारी बन गये हैं।

अनूपशहर में एक दुष्ट ने उन्हें विषयुक्त पान दिया, चबाने से पता लगा तो उन्होंने न्योलिक्रिया द्वारा वमन कर विष निकाल दिया। वहां सैय्यद मुहम्मद तहसीलदार आपका भक्त था। उसने हत्यारे को पकडत्रकर बन्दीगृह में डालने की बात कही। स्वामी दयानन्द जी ने देव सुलभ अप्रतिम दयालुता का परिचय देते हुए यह स्मरणी वाक्य कहा कि मैं संसार को कैद कराने नहीं आया हूं अपितु कैद से छुड़ाने आया हूं।

दयानन्द को न केवल वेदों के मंत्र और सत्शास्त्रों के श्लोक कण्ठस्थ थे वरन् उनकी तर्कना शक्ति भी बेजोड़ थी। शास्त्रार्थ में उन्हें पराजित करना किसी के लिए सम्भव नहीं था।

एक दिन अहमदगढ़ के पंडित कमलनयन और अलीगढ़ के पण्डित सुखदेव अपने पन्द्रह-बीस साथियों सहित कुछ अतिक्लिष्ट प्रश्न पूछने के लिए महाराज के पास आये। उस समय महाराज कहीं गये हुए थे। थोड़ी प्रतीक्षा के पश्चात् जब स्वामी जी वहां आये, तब इन सबने  अभ्युत्थानपूर्वक अभिवादन किया। महाराज आसन पर बैठकर थोड़ी देर के लिए ध्यानावस्थित हो गये। फिर आंखें खोलकर आगन्तुकों से कई बार कहा कि जो कुछ पूछना है, पूछ लो, परन्तु किसी के मुख से एक शब्द भी नहीं निकला। तब स्वामी जी ने उपदेश देना आरम्भ किया। वे लोग सुनते रहे और सत्य है, सत्य है, कहते रहे। वहां से लौटते हुए मार्ग में वे लोग कहने लगे कि पता नहीं दयानन्द में कौन सी शक्ति है कि उसके समक्ष जाकर हम सबके मुंह पर ताले लग गये और हम एक भी प्रश्न न पूछ सके।

सबसे अधिक उल्लेखनीय घटना स्वामी जी और पादरी डब्ल्यू पार्कर का शास्त्रार्थ है। यह शास्त्रार्थ पन्द्रह दिन तक चला और प्रतिदिन 2-3 घण्टे हुआ करता था।। स्वामी जी ने शास्त्रार्थ में पादरी महोदय को निरुत्तर कर दिया। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि किसी मनुष्य के द्वारा ईश्वर और मुक्ति की प्राप्ति मानना मूर्तिपूजा से भी बुरा है। एक दिन शास्त्रार्थ का विषय सृष्टि-उत्पत्ति था। जब पादरी महोदय ने यह पक्ष लिया कि सृष्टि को उत्पन्न हुए पांच सहस्त्र वर्ष हुए हैं, तब स्वामी जी एक बिल्लौर-पत्थर उठा लाये और पूछा कि आप लोग साइंस जानते हैं। यह पत्थर इस रूप में कितने वर्षों में आया होगा? तब उत्तर मिला कई लाख वर्षों में। इस पर पादरी महोदय ने कहा कि मेरा अभिप्राय यह है कि मनुष्य-सृष्टि को पांच सहस्त्र वर्ष हुए हैं, परन्तु स्वामी जी ने इस पर भी आक्षेप किया कि सृष्टि की उत्पत्ति का प्रश्न है, जिसमें मनुष्य भी आ गया। इस पर पादरी महोदय निरुत्तर हो गये।

अपने-अपने मौला पर सबको बड़ा नाज है। मेरा दयानन्द तो सबका सरताज है।

कहूंगा पीरों पैगम्बर से तुम रुतवे में हारे हो। दयानन्द चौदहवीं का चांद है, तुम सब(टिमटिमाते) सितारे हो।

अपने त्याग और तपस्या के बल पर दयानन्द ने ऋषित्व प्राप्त किया था, अतः उन्हें महर्षि दयानन्द सरस्वती कहना सार्थक है।

पतंजलि ऋषिकृत महाभाष्य में ऋषियों की संख्या 88 हजार बतायी गयी है। (अष्टाशीति सहस्त्राणि ऋषयः बभूवुः) उनमें से केवल आठ ऋषियों ने गार्हस्थ धर्म का निर्वाह किया। उस समय ऋशि बनना आसान था क्योंकि ऋषिपुत्र भी ऋषि ही होते थे। स्वामी दयानन्द के साथ ऐसा नहीं था, परम आस्तिक होते हुए भी उनके पिताश्री ऋषि नहीं थे, अपनी गहन साधना, त्याग-तपस्या एवं वेदों में गहरी निष्ठा के कारण दयानन्द ने न केवल ऋषित्व प्राप्त किया अपितु महर्षि बने।

वेद को स्वतः प्रमाण मानकर ऋषिवर दयानन्द ने अन्य शास्त्रों को परतः प्रमाण माना। वेदों का तर्क संगत भाष्य कर उन्होंने अनेक भ्रान्तियों का निवारण किया।

युगनिर्माता वेदोद्धारक, समाज सुधारक का जन्म भारतीय जन-जीवन के सुधार के निमित हुआ था। जिस समय दयानन्द जी का प्रादुर्भाव हुआ उस समय भारत की दशा शोचनीय थी।

उस समय देश में चारों ओर अंधकार एवं अशान्ति के बादल मंडरा रहे थे। जिधर ही देखो उधर त्राहिमाम् की करुण क्रन्दन सुनाई देती थी। देश की सामाजिक दुरावस्था, धार्मिक विभिन्नता, बहुदेवतावाद, छुआछूत-भेदभाव के परिणाम स्वरूप भारतवर्ष शताब्दियों से जर्जरित हो रहा था। मानव-मानव का रक्त पीने के लिए तैयार था। योग के नाम पर ढोंग, ईश्वर के नाम पर पाखण्ड, धर्म के नाम पर दुकानें खोल जा रही थी। गृहदेवियां तथा शूद्रों को समाज में हीन दृष्टि से देखा जाता था। वेद किस चिड़िया का नाम है किसी को पता नहीं था।

भारतीय संस्कृत या इसके प्राचीन साहित्य को पढ़े तो पता लगता है कि-

सर्वेषां तु नामानि, कर्माणि च पृथक-पृथक।

वेद शब्देभ्यः एवादौ, पृथक संस्थाश्च निर्ममे।।

अर्थात् : सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने वेद के माध्यम से सबको नामकर्मादि की शिक्षा दी है। जहां अपौरुषेय  वेदों को मध्यकालीन स्वार्थी व्यक्तियों ने जनता-जनार्दन से दूर और अनुपयोगी एवं अश्रद्धेय बनाने में भी कोई कसर नहीं छोडत्री। ‘त्रयो वेदस्य कर्तारः धूर्तभाण्ड निशाचराः’ ऐसी अनर्गल किंवदन्तियां प्रचलित थीं। वेद का पढ़ना तो दूर, सुनना भी प्राणों के लिए घातक था।

ऐसी विकट परिस्थिति में सूर्य समान तेजस्वी ब्रह्मचारी देव दयानन्द ने अनेक मत-मतान्तर रूपी पापान्धकार को नष्ट करने के लिए तथा वेदों का संदेश देने के लिए ऋषि शास्त्रार्थरूपी रणांगन में आये थे। ऋषि दयानन्द साहस और धैर्य से कष्टों को हंसते हुए सहन करके सर्वत्र जनहित कल्याणी की दुन्दुभि बजाते रहे। उन्होंने वेदों के प्रमाण देते हुए ललकारते हुए कहा-

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः

ब्रह्मराजन्याभ्यां, शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।

अर्थात् : वेद पढ़ने और पढ़ाने का सब मनुष्यों को अधिकार है। चाहे स्त्री हो या पुरुष, सभी वेद को पढ़के तदुक्त आचरण कर सकते हैं और ये वाक्य कहे-

सुमंगली प्रतरणी गृहाणाम्

अर्थात् : विदुषी स्त्रियां ही राष्ट्र व समाज रूपी घर की नौका है। इस प्रकार का मार्मिक संदेश राष्ट्र को स्वामी जी ने दिया।

श्री रामचन्द्र जी ने लंका पर चढ़ाई करी, पत्नी का बदला रावण से चुकाया था।

जर और जमीं पर पांडव, कौरव लड़े, भाई ने भाई का रक्त रण बीच बहाया था।

कंस से लड़ाई करी श्री कृष्ण योगी ने, केश पकड़ मारा वंश दैत्यों का मिटाया था।

मगर लड़े दयानन्द ‘राघव’ देश की भलाई को, जीवन भर गला पाखंड का दबाया था।

महर्षि दयानन्द की सबसे बडत्री विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं किया अपितु वेदो की प्रतिष्ठा में जीवन न्योदावर कर दिया। ऋषि कहते हैं कि संसार को लाभ पहुंचाना ही मुझको चक्रवर्ती राज्य के तुल्य है। परमात्मा की कृपा से मेरा शरीर बना रहा और कुशलता से वह दिन देखने को मिला कि वेदभाष्य सम्पूर्ण हो जावे तो निःसन्देह इस आर्यावर्त देश में सूर्य का-सा प्रकाश हो जावेगा कि जिसके मेटने और झांपने को किसी का सामर्थ्य न होगा।

महर्षि दयानन्द ने बाल शिक्षा पर बल दिया, बाल विवाह का विरोध किया। नारी शक्ति का महत्व बताते हुए नारीशिक्षा को अत्यावश्यक बताया। समाज का निर्माण करती है नारी, श्रद्धा और सम्मान की अधिकारिणी है, ताडन या उत्पीड़न का नहीं। विधवा विवाह को वेदानुकूल बताया। घृणित, सतीप्रथा का विरोध किया। राष्ट्र में स्वतन्त्रता का अलख जगाया। स्वराज्य के प्रबल समर्थक महर्षि दयानन्द क्रान्तिकारी थे तथा भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भी उनका बहुत बड़ा योगदान है। गांधी और तिलक से पहले दयानन्द जी ने सुराज और स्वराज्य का नारा दिया है। ऋषि ने ही अपने शिष्य श्याम जी कृष्ण वर्मा में देश की स्वतन्त्रता के लिए अनुपम अग्नि प्रचण्ड की थी। देव दयानन्द के ग्रन्थों में स्वतन्त्रता की इच्छा और प्रेरणा कूट-कूट कर भरी हुई है। हम यहां केवल दो उऋरण प्रस्तुत करते हैं-

‘‘अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी किन्तु आर्यावर्त्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो है सो भी विदेशियों से पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोडत्रे राजा स्वतन्त्र है। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपति उत्तम होता है। अथवा मत मतान्तर के आग्रह-रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं है।’’ -सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास

हे प्रभो! आप ‘वरुण’ सर्वोत्कृष्ट होने से वरुण हो, सो हमको वरराज्य, वर विद्या (और) वरनीति देओ।-आर्याभिविनय

स्वामी जी निडर, सत्य के पोषक थे। भय शब्द से उनका परिचय नहीं था। उनकी सत्यवादिता और निर्भीकता ने समाज में प्राण फूंक दिये।

बर्फ का पत्थर इरादे तोड़कर गलता रहा, धूप और रोशनी देकर सूरज ढलता रहा,

गजब का अन्दाज था ऋषि दयानन्द तेरा, आंधिया चलती रही और दिया जलता रहा।

संसार में जितने भी मत हैं उनमें एक पक्षीय भावना है उनके पन्थ के प्रचार के निमित्त किसी न किसी व्यक्ति का नाम लिया जाता है, जो उसका प्रवर्त्तक माना जाता है। सर्वविदित है कि मानव का ज्ञान स्वल्प है उसके चिन्तन की सीमा है उसे वह दृष्टि नहीं मिलती जो ईश्वर को और उसके सृष्टि को समग्रता में देख सके, वेद का जहां तक प्रश्न है किसी व्यक्ति विशेष से वह जुड़ा हुआ नहीं है, आस्तिक आर्यों का यह विश्वास है कि वेद परमात्मा का ज्ञान है अन्य मतावलम्बियों ने पन्थाई के सूत्रधारों को आगे रखकर ऐसा लगता है कि उनके गुणों का व्यक्तिरूप में गान किया है और यत्र-तत्र उनमें कल्याणकारी का भाव दृष्टिगोचर होता है तो वह भी गौणरूप में है। परन्तु वेद में जो सन्देश है वो किसी काल और प्रदेश की सत्ता के अधीन नहीं हे, वह सार्वभौम और सार्वकालिक है। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज का प्रथम निमय बनाकर जहां तक ज्ञान के आदि स्रोत होने का प्रश्न है, ईश्वर के वर्चस्व को अकाट्यरूप से प्रतिष्ठित किया है।

उन्हांने लिखा है-सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।

ये नियम इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि ऋषि को गुरुडम से कितनी घृणा थी और हमारे सम्मति से ये नियम गुरुडम के नींव पर प्रबलतम आघात हैं। महर्षि दयानन्द का आर्यों को सन्देश-

आर्यों! मेरी बात पर ध्यान देना। समाधि मेरी कहीं तुम न बनाना।।

न चद्दर न फूल माला तुम चढ़ाना। न पुष्कर गया में अस्थियां लेके जाना।

न गंगा में तुम मेरी अस्थियां बहाना। न यह व्यर्थ के झगड़े तुम पाल लेना।।

मेरी अस्थियां किसी खेत में डाल देना। कि जिससे मेरी अस्थियां खाद बनकर।।

काम आयें कभी कृषक दीन जन के। आर्यों मेरे नाम से कोई पाखण्ड न चलाना।।

यज्ञों में दी जाने वाली पशुवलि का प्रबल विरोध करते हुए ऋषि पूर्ववर्त्ती भाष्यकारों के ऐसे शब्दों का शास्त्रानुमोदित, तर्क संगत अर्थ दिया-जैसे अश्वो वै अन्नः, अर्थात् अश्वमेध यज्ञ में अश्व की बलि का विधान नहीं है अपितु विशिष्ट अन्नों की आहुतियों का विधान है। संस्कृत के उद्भट विद्वान होते हुए भी ऋषि दयानन्द हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने न केवल अपना जीवन चरित्र हिन्दी में लिखा वरन् वेदों के भाष्य भी हिन्दी में किये। श्री केशव चन्द सेन की प्रेरणा से उन्होंने अपने प्रवचन भी हिन्दी में दिये ताकि जनमामान्य उनसे लाभान्वित हो सके।

कोई महापुरुष किसी नदी के प्रवाह में, डूबते हुए का हाथ थाम के बचा गया।

कोई महापुरुष जो निराश बैठे हुए थे, उन्हें पार दूसरे किनारे पे लगा गया।

कोई महापुरुष बड़े प्यार से हुलार से, दिलों को तसल्ली दे के हौसला बढ़ा गया।

कोई महापुरुष आ के डूबते मुसाफिरों के, सरों से पहाड़ सी मुसीबतें हटा गया।

डूबने की बात पथिक पास ही न आ सके, देव दयानन्द हमें तैरना सिखा गया।

गुजरात के महाकवि श्री रमणलाल वसंत भाई देसाई ने एक बार कहा था। जिस क्षण देह में दुर्बलता प्रतीत हो, उसी क्षण एक महान विशालकाय संन्यासी का स्मरण करो। जिस क्षण तुम्हारे मन में शिथिलता या कायरता का प्रवेश हो, उसी क्षण जीवन और उत्साह से ओतप्रोत उस तेजस्वी देशभक्त का स्मरण करो। जिस क्षण तुम्हारे हृदय में मोह और विलास का साम्राज्य प्रवृत्त हो, उसी क्षण धन को ठोकर मारने वाले उस नैष्ठिक ब्रह्मचारी की ओर दृष्टि करो। अपमान से आहत होकर जिस क्षण तुम नजर ऊंची न उठा सको, उसी क्षण हिमालय के समान अडिग और उन्नत व्यक्ति के ओजस्वी मुख को अपनी कल्पना में उपस्थित करो। मृत्यु का वरण करते हुए डर लगे, तो उस निर्भयता की मूर्ति का ध्यान करो। द्वेषभाव से खिन्न होकर, जब तुम्हें अपने विरोधी को क्षमा करने में हिचकिचाहट हो, तो उसी क्षण विष पिलाने वाले को आशीर्वाद देते हुए एक रागद्वेषमुक्त गुजराती संन्यासी को याद करो।

वह व्यक्ति महान् आत्मा स्वामी दयानन्द है। यह गौरव शाली पुरुष भारतीय महापुरुषों में अग्रस्थान पर विराजमान है।

महर्षि दयानन्द प्रभावशाली प्रवचनकर्त्ता ही नहीं, उच्चकोटि के लेखक भी थे, उनके दिव्य चिन्तन की जानकारी सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, संस्कार विधि, सवमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश, गोकरुणानिधि और वेद भाष्यों से मिलती है। दयानन्द सूर्य के समान तेजस्वी थे किन्तु सूर्य सायंकाल के समय ढल जाता है, इस दृष्टि से वे सूर्य से विशिष्ट थे। दिव्य दयानन्द का व्यक्तित्व एवं कृतित्व अनूठा एवं निराला था।

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