विदेशियों के पैरों तले हम एक हजार वर्ष तक इसलिये दबे पड़े रहे कि स्वतंत्र चिन्तन और विवेक पूर्वक दिशा निर्धारण की प्रक्रिया खो बैठे थे जो कुछ होना है जो होगा देवताओं की, भाग्य की नक्षत्रों की कृपा से होगा। हमारी स्वतंत्र चेतना तो निरर्थक है। इस प्रकार की मान्यता हमारी सबसे बड़ी दुर्बलता है। इस दुर्बलता का फूहड़ उदाहरण फलित ज्योतिष अथवा नवग्रह पूजन के रुप में देखा जा सकता है। जन्म पत्रों में ही हमारा सब कुछ भूत-भविष्य लिखा है। यह मान्यता हमारे पुरुषार्थ को निरर्थक सिद्ध करती है।जो होना है तो जन्म कुण्डली में राशी में ही लिखा है। हमें इसी के अंगुलि निर्देशों पर घूमना है। यह मान्यता स्वतंत्र चिन्तन और पुरुषार्थ पूर्ण कर्त्तव्य के सारे द्वारा बन्द कर देती है। कैवल गणित ज्योतिष ठीक है। फलित नहीं जन्म-पत्र बनवाने और किसी को दिखाने का अर्थ है। अपने ऊपर बैठे ठाले एक चिन्ता भय एवं अशान्ति का आवतरण तान लेना नौ ग्रहों में से कभी कोई प्रतिकूल न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। ज्योतिषी इसी बात को बताकर डरा देगा अपने ऊपर जो आशंका और भीति सवार हो गई यह हर घड़ी खून सुखाती रहेगी और मानसिक शांति को नष्ट करती रहेगी। शुकुन मुहूर्त हमारी गतिविधियों को पग पग पर रोकते है। अभी कोई काम आवश्यक करना है। मुर्हूत नहीं निकला तो उसे रोकना ही पड़ेगा। बिल्ली का रास्ता काट जाना, कुत्ते का कान फड़फड़ा देना, छींक का आना आदि इस प्रकार के कहीं अंधविश्वास अपशकुन हो गया तो दिल धड़कने लगा हिम्मत आधी रह गई।
यह ग्रह नक्षत्र ऋतु परिवर्तन आदि द्वारा केवल हमारे भौतिक शरीर को ही प्रभावित करते हैं। यह सत्य है। लेकिन ये मनुष्य जीवन के भाग्य विधाता नहीं हैं, ईश्वर प्रार्थना का अभिप्राय: परमात्मा से पुरुषार्थ के लिये प्रेरणा और प्रोत्साहन प्राप्त करना है। उसके लिये बल संचय करना है। ईश्वर से प्रार्थना का अर्थ यह नहीं है कि हम पुरुषार्थ हीन होकर भाग्य और ईश्वर पर सब कुछ छोड़ दे प्रार्थनाओं के साथ-साथ अपने पुरुषार्थ द्वारा ऋतु अनुसार गलत कुप्रभावों से अपनी रक्षार्थ अनेकानेक उत्तम साधनों को जुटाना भी आवश्यक है। अर्थात् मकान, वस्त्र, ऋतु अनुकूल भोजन द्वारा अपने शरीर की रक्षा भी करनी है।
जो लोग ईश्वरोपासना का अर्थ एक भिक्षा जीवी की भांति निठल्ले रहकर ईश्वर में सही सब कुछ मिल जाने की आशा पर ही बैठे रहते है, ऐसे लोगों ने ईश्वर को ही नहीं समझा है और न ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना के अर्थ को ही जाना है। इन ग्रहों द्वारा मुर्हुत आदि बनाने वाले (फलित) ज्योतिष विदो का मत है कि जिस प्रकार आकाशीय ग्रह और नक्षत्र अपनी गति द्वारा ऋतु परिवर्तन एवं शीतोष्ण उत्पन्न करके मनुष्य जीवन को प्रभावित करते है। उसी भांति वे उनके भाग्य विधाता अर्थात् कर्म फल दाता भी है तथा जो सुख दुख मनुष्य भोगता है। वह सब इन ग्रहों के शुभाशुभ प्रभाव का परिणाम है। उनका यह मत सर्वथा निराधार है एवं भ्रम मूलक है। सुख दु:ख ग्रहों के कारण प्राप्त नहीं होते वरन् अपने शुभाशुभ कर्मों के आधार पर प्राप्त होते हैं।
यह ठीक है कि सूर्य आदि सभी ग्रह अपना-अपना प्रभाव डालते हैं जिसके कारण वस्तुओं में विभिन्न परिवर्तन भी होते हैं परन्तु यह परिवर्तन या प्रभाव विभिन्न वस्तुओं की अपनी ही अवस्था के कारण होते हैं। जैसे सूर्य ग्रह है अब एक वृक्ष पृथ्वी पर लगा हुआ है। पास ही दूसरा वृक्ष कटा हुआ पड़ा है। सूर्य की किरणें एक ही काल या मुहूर्त में दोनों वृक्षों पर समान रुप से पड़ रही है। परंतु जो कटा हुआ वृक्ष है वह सुख रहा है। और जमीन लगा हुआ है वह बढ़ रहा है। जब किरणें दोनों वृक्षों पर समान रुप से पड़ रही है। तब एक में क्षीणता क्यों व एक में वृद्धि क्यों है? वहीं सूर्य का प्रकाश पत्थर पर पड़ रहा है। और वही बर्फ पर पड़ रहा है परन्तु पत्थर में शक्ति आ रही है और बर्फ गल रही है। उसी सूर्य के प्रकाश से स्वस्थ नेत्रों वाला व्यक्ति सुन्दर दृश्यों को देखकर प्रसन्न होता है, परन्तु जिसकी आंख दुखनी हैं (आंखे आ जाती है) उसे वही सूर्य का प्रकाश दुखदायी प्रतीत हो रहा है। स्पष्ट है सूर्य ने न किसी को दुख दिया और न सुख। सूर्य तो जड़ तत्व है जैसी जिस वस्तु की स्वयं की अवस्था है उसी के अनुसार उसमें परिवर्तन एवं हानि लाभ का अनुभव होता है।
यदि ग्रहों को फलित ज्योतिषियों द्वारा निर्धारित प्रत्येक मनुष्य के भाग्य का नियामक मान लिया जावे तो सभी एक राशि वालों पर समान प्रभाव और अलग-अलग राशि वालों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ना चाहिए पर ऐसा नहीं होता है क्यों? सूर्य से कमल खिलता है और चन्द्र से कुमुदनी यह दोनों पौधे किसी भी मौसम में और किसी देश में तथा किसी भी नक्षत्र में उगाये गये हो तथा उनका कोई सा भी भेद हो नियम वहीं रहेगा कि कमल सूर्य से खिलेगा और कुमुदनी चन्द्र से एक ही नक्षत्र से एक-एक ही पाये में सैकड़ों बच्चें पैदा हो रहे है। क्या सबके भविष्य को एक जैसा करने का ठेका कौन विद्वान व फलित ज्योतिष विद लेगें। आठ बजकर दस मिनिट पर एक बच्चा राजा के यहां एक इंजीनियर के यहाँ एक भील के यहाँ और एक भंगी के यहाँ और एक कंजर के पैदा होता है। कौन कह सकता है एक समय एक पल एक घड़ी एक नक्षत्र एक तिथिवार चौकड़िया में अलग-अलग घर बच्चे एक साथ एक ही समय में जन्म लेते हैं कौन कह सकता है।
सबका भविष्य एक जैसा होगा? वास्तव में सही बात तो यह है कि प्रत्येक प्राणी अपने कर्मो का ही फल भोगता है। कर्म फल से कभी भी छुटकारा नहीं मिल सकता है। अपने अच्छे बुरे कर्मो से जीवात्मा सुख-सुख पाता है। इस ईश्वरीय व्यवस्था में ग्रह क्या दखल देगें।
पृथ्वी से बड़े-बड़े ग्रह स्वयं ही जड़ है। हम लोगों पर क्या नाराज क्या प्रसन्न होंगे? रामायण में तुलसीदासजी ने कहा है-‘’कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस कर सो तस फल चाखा’’ हर समय, हर दिन ईश्वर का बनाया हुआ है। इसलिए प्रत्येक ही दिन घड़ी पल नक्षत्र वार, तिथि, माह, वर्ष आदि एक से एक बढ़कर सुन्दर और पवित्र है। कौन सा दिन शुभ, और कौन सा दिन अशुभ है। यह विचार करते समय हम एक प्रकार से ईश्वर की महानता पर और उसकी महान कृतियों पर संदेह करने का ही दुस्साहस करते है। हमें जानना चाहिए कि शुभ कर्मों के लिए हर दिन शुभ है और अशुभ कर्मों के लिए हर दिन अशुभ है।
अठ्ठाईस नक्षत्रों में से ६ नक्षत्र मूल माने जाते है इन मूलों में उत्पन्न हुए बच्चे पिता-माता, भाई, बहिन मामा आदि के लिए अशुभ माने जाते है। २८ नक्षत्रों में ६ मूल होने के कारण लगभग २२% बच्चें मूलों में उत्पन्न होते है और वे सब माँ-बाप के लिए प्रसन्नता की अपेक्षा अशंका का कारण बने यह कितनी बूरी बात है। लड़कों और लड़कियों को मंगली घोषित कर दिया जाता है। उनके लिए मंगली ही साथी चाहिये इस अड़ंगे में कितनी ही कन्याएं बहुत बड़ी हो जाती है। उनकी आयु के लड़के नहीं मिल पाते हैं। तब उस बेचारी की जिंदगी ही एक तरह से बर्बाद हो जाती है।
यह अच्छी बात नहीं है और यही मंगली कैवल हिन्दुओं में ही घोषित किया जाता है। अगर यह ठीक है तो हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, यहूदी, पारसी आदि सब में समान रुप से होना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं होता है। इन व्यर्थ भ्रम जंजालों से हिन्दू समाज को जितनी जल्दी छुड़ाया जा सके उतना ही अच्छा है। सच्चाई यह है कि हर घड़ी, हर पल, हर दिन और हर नक्षत्र शुभ है। किसी दिन न किसी का जन्म अशुभ है बल्कि शुभ है।
विवाह में लग्न का बहुत बड़ा महत्व है। हम पंचांग के लग्न की बात नहीं कर रहे है, वर-वधु का एक-दूसरे के प्रति लग्न होना, एक दूसरे के ऊपर ध्यान देना। कभी-कभी हम कहते है भाई थोड़ा लग्न से काम करो अर्थात् ध्यान से काम करो? एक ऐसी तिथि निश्चित करे जो विवाह संस्कार करने में वर-वधू के दोनों पक्षों के लिए एवं अतिथियों के लिए सुविधाजनक हो इसी तरह लड़के-लड़की के गुण मिलान को पौथी (पंचाग) से नहीं करें, दोनों के विचार-रहन-सहन संस्कार आदि एक-दूसरे अनुकूल हो यह गुण मिलान है। दोनों पढ़े-लिखे, दोनों धार्मिक प्रवृति के है। दोनों के विचार एक-दूसरे के विपरीत तो नहीं है, क्योंकि विचार एक होंगे तो गृहस्थ सुख से चलेगा। आनंद में रहेगा। किसी की संपत्ति से विवाह मत करो।
शुभ विचारों को सत्कर्मों में परिणित करने के लिए एक क्षण का भी विलम्ब न करने के लिए सत्य शास्त्रों में निर्देश किया गया है कि मृत्यु के द्वारा एक हाथ में हमारे बालों को पकड़ा हुआ है। और दूसरे में तलवार तनी हुई है। न जाने उसका वार कब हो जाये और न जाने कौन सा शुभ मनोरथ अधुरा पड़ा रहा जाय इसलिए शुभ प्रयोजन में तनिक भी देर न करनी चाहिए तो शीघ्रता कीजिए अपने ग्राम के मंदिर में वेद नहीं तो मंदिर में स्वयं द्वारा वेद स्थापना कराईये। वेद नहीं तो मंदिर नहीं, बिना मंदिर के वेद नहीं-यह शुभ अवसर न गंवाए।