वैदिक साहित्य में नारी को बहुत ही आदरणीय स्थान दिया गया है और अत्यन्त सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है । वह हर समय पुरुष के कदम से कदम मिलाकर चलनेवाली और हर क्षेत्र में पुरुष की सहयोगिनी बनकर कार्य करती है । ऋग्वेद में स्त्री को ही घर नाम से कहा गया है । “जायेदस्तम्” अर्थात् पत्नी ही घर है । इसी आधार पर संस्कृत के सुभाषित में भी कहा है कि – “न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते” अर्थात् केवल घर को ही घर नहीं कहा जाता अपितु गृहिणी को ही घर कहा जाता है क्योंकि वही सम्पूर्ण घर का आधार होती है ।
जहाँ विवाह से पूर्व अपने पिता के घर में एक लड़की सब प्रकार के जिम्मेदारियों को संभालती है, सबका ध्यान रखती है, विवाह के पश्चात् वहां पति, सास-श्वसुर, और सभी घरवालों की सेवा-शुश्रूषा करती है और साथ ही वह गृहमंत्री, गृह-स्वामिनी, मालकिन अथवा सबके मन की साम्राज्ञी बन जाती है । जैसे कि वेद में भी कहा – “साम्राज्ञी श्वशुरे भव,…ननान्दरी साम्राज्ञी भव, साम्राज्ञी अधि देवृषु”। इससे ज्ञात होता है कि पत्नी को घर की व्यवस्था का पूर्ण अधिकार दिया जाता है और उसका कथन परिवार के सबको मान्य होता है ।
महिलाओं के सम्मान की यह प्रक्रिया न केवल वैदिक युग में ही थी अपितु स्मृतिकाल में भी प्रचलन में थी इसीलिए महर्षि मनु जी ने कहा कि – “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते.रमन्ते तत्र देवता:” अर्थात् जहाँ नारियों का सम्मान होता है, वहां देवताओं का निवास होता है । इसके विपरीत जहाँ इनका आदर-सत्कार नहीं होता वहां सब काम बिगड़ते हैं इसीलिए स्त्रियों की इच्छा के अनुसार उनको अलंकार, वस्त्र, भोजन आदि से सत्कार पूर्वक सन्तुष्ट रखना चाहिये । जिस परिवार में पति-पत्नी परस्पर से सन्तुष्ट व प्रसन्न रहते हैं, वह परिवार सदा फूलता-फलता है और ऐसे परिवार में ही उत्तम सन्तानों का जन्म होता है ।
यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठानों में भी पत्नी के साथ करने का विधान है । पत्नी के बिना किये गए यज्ञ आदि धार्मिक कृत्यों को सफल या पूर्ण नहीं माना जाता । शतपथ ब्राह्मण का महत्वपूर्ण कथन है कि – “यावत् जायां न विन्दते, असर्वो हि तावत् भवति” अर्थात् जब तक मनुष्य विवाह नहीं करता और पत्नी को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक वह अपूर्ण ही होता है । इसका अभिप्राय यह है कि बिना पत्नी के एकांगी होता है । जीवन की पूर्णता पत्नी की प्राप्ति पर ही होती है । स्त्री ही वंश परम्परा चलाती है, सन्तति परंपरा, गृहस्थ का वैभव, और आमोद-प्रमोद सब कुछ पत्नी पर ही निर्भर है ।
अथर्ववेद में बताया गया है कि – “मा हिंसिष्टं कुमार्यम्…” स्त्रियों को ही नहीं बल्कि कुमारी कन्याओं को भी निरादर या असम्मान नहीं करना चाहिए, उनको ताड़ना करना या दुःख देना उचित नहीं ।
वेदों में यह भी निर्देश है कि स्त्रियों के लिए शिक्षा की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिये । पुरातन काल में उनका उपनयन संस्कार भी होता था और वे वेदादि उच्च शिक्षा भी प्राप्त करती थीं । अतः ऋग्वेद में स्त्री को ब्रह्मा कहा गया है, “स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ” । वह ज्ञान की श्रेष्ठता के कारण यज्ञादि में ब्रह्मा का पद ग्रहण कर सकती है और विविध संस्कार करा सकती है ।
ऋग्वेद में एक विदुषी स्त्री इन्द्राणी कहती है कि – “अहं केतुरहं मूर्धा अहमुग्रा विवाचनी” मैं समाज में मूर्धन्य हूँ, मैं अग्रगण्य हूँ और उद्भट वक्त्री हूँ। स्त्रियों को अध्यात्मिक शिक्षा के अतिरिक्त काव्य-कला, शस्त्र-विद्या, ललित-कला, हस्त-कला, पाकशास्त्र, संगीत, नृत्य, अभिनय आदि अनेक विद्यायें सिखाने की व्यवस्था करने का निर्देश वेद में दिया गया है ।
वेदादि शास्त्रों का अध्ययन करके वे विदुषी, मन्त्रद्रष्टा, ऋषिका बनी हैं । शास्त्र के साथ-साथ शस्त्र-विद्या सिख कर योद्धा, सेनानी आदि भी हुई हैं । उपनिषद् काल में गार्गी और मैत्रेयी जैसे आदर्श विदुषी नारियाँ हुई हैं । इससे ज्ञात होता है कि समाज में नारियों का स्थान भी किसी पुरुषों से कम नहीं । वेसे देखा जाये तो कितनी ही महिलाएं, वैज्ञानिक हुई हैं, कितनी ही महिलाएं राजनेता मन्त्री भी बनी हैं । इस प्रकार अनेक क्षेत्रों में महिलाओं का योगदान रहा है अतः सदा महिलाओं का सम्मान और आदर करना चाहिए ।