तारीख 6 मार्च सन 1897 स्थान लाहौर… शाम के करीब सात सवा सात बजे वक्त था, एक मजहबी मुसलमान पीठ पीछे खंजर छिपाकर आगे बढ़ रहा था.. जैसे ही वह एक घर के सामने आया तो ठिठक गया और आवाज दी कि मुझे मुसलमान से हिन्दू बनना है.. घर के अन्दर 39 वर्ष का एक युवक कागज पर कुछ लिख रहा था. तो आवाज सुनकर युवक बाहर आया..पूछा आप कौन है.. बस मजहबी मुसलमान ने एक साथ खंजर से कई वार किये और भाग गया. घायल युवक को तुरन्त अस्पताल पहुँचाया गया… पर उनको बचाया नहीं जा सका.
अगला दिन लाहौर का जनसमुदाय इस निर्भीक युवक के बलिदान पर अत्यन्त क्षुब्ध था. जब अंतिम यात्रा निकली तो सड़कों पर हर जगह फूल ही फूल दीखते थे. लोगों की आँखों में आंसू तो शरीर में एक नया आवेग था.. देखकर लग रहा था जैसे एक धर्मवीर युवक के बलिदान ने सम्पूर्ण हिन्दूजाति को नया जीवन प्रदान कर दिया हो… साहस की एक अनूठी बाढ़ सी आ गई थी. तभी लाला लाजपत राय जी सामने आये और अपने आंसूओं को अपनी पलकों में दफ़न करते हुए अपनी श्रद्धांजलि में कहा है कि पं. लेखराम कलम की तलवार लेकर कार्यक्षेत्र में आया. विरोधियों की छावनी में भगदड़ मच गई, किसमें इतना साहस था कि सामने आये.. किसमें इतनी हिम्मत थी जो उनके सवालों के जवाब दे पाए जब कोई जवाब नहीं दिया गया तो निर्दयी व क्रूर हत्यारे ने एक धर्मवीर की हत्या का पाप अपनी गर्दन पर ले लिया.
अगर आज की भाषा में कहे तो ये एक आतंकी हमला था.. जो उस समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मजहब विशेष द्वारा किया गया था.. इस हमले में जिनकी हत्या की गयी थी इस निर्भीक युवक का नाम था पं. लेखराम जी जो कुलियाते आर्य मुसाफिर के नाम से हमेशा के लिए अमर हो गये.
हिन्दू धर्म के प्रति अनन्य निष्ठा रखकर.. धर्म प्रचार में अपना जीवन समर्पण करने वाले धर्मवीर पंडित लेखराम का जन्म अप्रेल 1958 अविभाजित भारत के एक जिला झेलम तहसील थी चकवाल और इसी चकवाल में एक गाँव सैदपुर में हुआ था. ये उस समय की कहानी है जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था तो हिन्दू धर्म से लोगों को मुसलमान और ईसाई बनाया जा रहा था. हिंदी और संस्कृत भाषा मानों अमावस्या के चंद्रमा की भांति अस्त थी क्योंकि उर्दू एवं फारसी उस समय राजकाज तथा शिक्षा की भाषा के नाम पर विराजमान थी.
इसी उर्दू और फारसी में पढ़कर पंडित लेखराम बड़े हुए और 17 वर्ष की अवस्था में वे पुलिस में भर्ती हो गये. पर मन कचोटने लगा. मन में अनेकों जिज्ञासाएँ खड़ी हो रही थी, आत्मा देश और अपने धर्म के लिए कुछ करने के लिए मचल रही थी…पंडित जी ने नौकरी से एक माह का अवकाश लिया और ऋषि दयानन्द जी से मिलने अजमेर चले गये. महर्षि दयानंद जी के कहे एक एक शब्द और वाक्यों से उनकी सभी जिज्ञासाएँ शान्त हुईं. लौटकर उन्होंने पेशावर में आर्य समाज की स्थापना की और सनातन धर्म के प्रचार में लग गये.
उन दिनों पंजाब में अहमदिया नामक एक नया मुस्लिम सम्प्रदाय फैल रहा था.. इसके संस्थापक मिर्जा गुलाम अहमद स्वयं को पैगम्बर बताते और हिन्दुओं को मुसलमान बना रहा था… पण्डित लेखराम जी से यह सब सहन नहीं हुआ उन्होंने अपनी पुस्तकों और अनेकों लेख के माध्यम से मिर्जा गुलाम अहमद की सब पोल पट्टी खोल कर रख दी. इससे मुसलमान उनके विरुद्ध हो गये.
ये सनातन धर्म को बचाने का एक एतिहासिक काल था आर्य समाज के सिपाही हर मोर्चे पर डटे हुए थे.. एक और स्वामी दयानंद सरस्वती जी अपने प्रवचनों से विरोधियों के प्रपंच उगाजर कर रहे थे तो दूसरी और कमान संभाल रखी थी स्वामी श्रद्धानंद जी ने, एक छोर पर पंडित लेखराम जी खड़े थे तो एक और पंडित गुरुदत विद्यार्थी इस तरह आर्य समाज के धर्मवीर सिपाही हर एक मोर्चे पर मिशनरीज और मजहबी मुल्लाओं को जवाब दे रहे थे.
इस बढती ताकत से घबराकर विरोधियों ने स्वामी जी को जहर दे दिया महर्षि दयानन्द जी के देहान्त के बाद पंडित लेखराम जी को लगा कि सरकारी नौकरी और धर्म प्रचार साथ-साथ नहीं चल सकता. तो उपदेशक बन गये. इस नाते उन्हें अनेक स्थानों पर प्रवास करने तथा पूरे पंजाब को अपने शिकंजे में जकड़ रहे इस्लाम को समझने का अवसर मिला.
अब जहाँ लोग उनकी आवश्यकता का अनुभव करते, पंडित जी कठिनाई की चिन्ता किये बिना वहाँ पहुँच जाते थे. एक बार उन्हें पता लगा कि पंजाब के दोराहा गाँव का एक व्यक्ति हिन्दू धर्म छोड़ रहा है. वे तुरन्त रेल में बैठकर उधर चल दिये. पर जिस गाड़ी में वह बैठे, वह दोराहा स्टेशन पर नहीं रुकती थी. इसलिए जैसे ही दोराहा स्टेशन आया, लेखराम जी गाड़ी से कूद पड़े. उन्हें बहुत चोट आयी..कहा जाता है जज्बे का मारने का कोई हथियार आज तक नहीं बना बस घायल पंडित जी उक्त व्यक्ति के घर पहुंचे..जब उस व्यक्ति ने लहूलुहान पंडित लेखराम जी का यह समर्पण देखा, तो उसने धर्मत्याग का विचार ही त्याग दिया.
पंडित जी के व्यवहार से ऐसा लगता है कि मानों बड़े से बड़े संकट को भी वो कोई महत्व नही देते थे. उनके पिताजी की मृत्यु हुई तो भी वे घर में न रुक सके. बस अंत्येष्ठी में गए और चल पड़े. उन्हें भाई की मृत्यु की सूचना धर्म प्रचार यात्रा के दौरान ही मिली, फिर भी प्रचार में ही लगे रहे. एक कार्यक्रम के पश्चात् दुसरे और दुसरे के पश्चात् तीसरे में और तो और इकलौते पुत्र की मृत्यु से भी विचलित न हुए. पत्नी को परिवार में छोड़कर फिर चल पड़े. दिन रात एक ही धुन थी कि इस सनातन इस वैदिक धर्म का प्रचार सर्वत्र करूँ. एक ऐसी लगन मानो जैसे साक्षात् मृत्यु को ललकारते थे.
अब उनका नाम विधर्मियों के लिए खोफ बन चूका था सिंध से ईसाई मिशनरीज उनका नाम सुनते ही भागने लगी. हैदराबाद के मौलवी उनके सामने निरुत्तर थे तो उत्तर प्रदेश के गंगोह जिला सहारनपुर में शुद्दी ऐसी चलाई कि मुसलमान हिन्दू बनने लगे…यानि मुजफ्फरनगर से लेकर पेशावर तक जहाँ भी किसी हिन्दू पर जरा सा आघात होता लेखराम जी ना दिन देखते ना रात बस वही पहुँच जाते.
मात्र 39 वर्ष के इस युवक के शब्दों उनकी लेखनी से वो लोग घबरा उठे जो कहते है कि हमने भारत पर 800 वर्ष राज किया. जब उनसे पंडित लेखराम जी की लेखनी का कोई उत्तर नहीं दिया गया.. तो 6 मार्च 1897 को आतंक का रास्ता अपनाया और सनातन धर्म के इस महावीर धर्मवीर योद्धा की धोखे से हत्या कर दी. एक ऐसे वीर योद्धा की जिसने ऋषि दयानन्द की वैदिक मान्यताओं, सिद्धान्तों व उद्देश्यों के प्रचार को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाया था और अपनी योग्यता व पुरुषार्थ से वैदिक धर्म की महत्वपूर्ण सेवा व रक्षा की….उनकी निष्ठां बलिदान से आज भी समस्त आर्य जगत् समस्त सनातन धर्म… पंडित लेखराम जी के बलिदान के लिए सदा-सदा के लिए कृतज्ञ हैं और उनके बलिदान को शत शत नमन करता रहेगा….
विनय आर्य