कानून की नजर में 23 दिसम्बर १९४९ से चला अयोध्या राम जन्म भूमि विवाद आस्था और सवेंदनशीलता का विषय है, ये भावनाओं और धर्म के मसले हैं जिसे हिन्दुओं और मुस्लिमों को आपस में मिल बैठकर सुलझा लेना चाहिए। क्या ये महज इत्तफाक है कि उत्तर प्रदेश में नए मुख्यमंत्री के गृह प्रवेश के फौरन बाद सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद मामले में दोनों पक्षों को समझौते का रास्ता निकालने को कहा है? सुप्रीम कोर्ट ने तमाम व्यस्तताओं के बीच वक्त निकाल कर न सिर्फ सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका को सुना बल्कि घर के एक बुजुर्ग की तरह झगड़ते बच्चों को समझौता करने का सुझाव दिया। जबकि हिन्दुओं की तरफ से तर्क ये है कि बात सिर्फ मंदिर की नहीं, रामजन्म भूमि को देवत्व प्राप्त है, वहां राम मंदिर हो न हो मूर्ती हो न हो वो जगह ही पूज्य है। वो जगह हट नहीं सकती।
हालाँकि ऐसा नहीं है कि यह मामला सिर्फ १९४९ के बाद ही संज्ञान में आया बल्कि आस्था उपासना की यह जंग सदियों पूर्व तब से चली आ रही है. जब एक तुर्की लुटेरे चंगेज खान के परपोते “जहिर उद-दिन मुहम्मद बाबर’’ ने ‘वर्तमान के विवादित स्थान’ हिन्दू आस्था के प्रतीक मर्यादा पुरषोत्तम रामचंद्र का मन्दिर तोड़कर बाबरी मस्जिद का निर्माण कर दिया था। इसके सैंकड़ो साल बाद भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की अगुवाई में बाबरी मस्जिद की जगह पर ही भव्य राम मंदिर बनाने का अभियान ‘‘मंदिर वहीं बनाएँगे’’ के नारे के साथ शुरू हुआ। इसकी परिणति 6 दिसंबर 1992 को हुई जब इन सारे नेताओं के कहने पर लाखों हिंदू बाबरी मस्जिद के इर्द गिर्द इकट्ठा हुए और देखते-देखते मस्जिद गिरा दी गई।
यदि इस विषय का थोडा गंभीरता से अध्यन किया जाये तो ऐसा नहीं की यह पहली मस्जिद थी जिसके गिरने से मुस्लिम समुदाय को कोई बड़ा झटका माना जाये! या फिर आज हिन्दुस्तान के मुसलमान कह रहे हो कि मस्जिद जहां एक बार बन गई तो वो कयामत तक रहेगी, वो अल्लाह की संपत्ति है, वो किसी को दे नहीं सकते। परन्तु ऐसा नहीं है पूर्व में अरब देशों जहाँ से इस्लाम का उदय हुआ वहां पर भी मक्का में अल हरम नाम से एक विख्यात मस्जिद है इस प्राचीन मस्जिद के पिछले दिनों सऊदी सरकार के निर्देश पर इसके कई खंभे गिरा देने के अलावा 1998 में बीबी आमिना के मकबरे और कब्र को गिराने की खबरों समेत इमाम अली का वह घर जिसमे इमाम हसन और इमाम हुसैन का जन्म हुआ वह घर जिसमे 570 में नबी का जन्म हुआ गिराने के बाद उसको मवेशी बाजार में स्थानांतरित कर देने के वाकये भी सामने आये थे। ऐसी तोड़-फोड़ के लिए सऊदी अरब के शासकों से कोई पूछताछ इस्लाम के मानने वालों से ओर से नहीं होती है. इस कारण मुझे लगता है भारत का इस्लाम अन्य देशों के इस्लाम से अलग है यहाँ के मुसलमानों ये भी लगता है कि ये एक मस्जिद का मसला नहीं है, अगर हम आत्मसमर्पण कर दें तो कहीं ऐसा ना हो कि इसकी आड़ में उनके मजहब को खतरा हो जाए। इसे शेष विश्व के सामने हमारी कमजोरी न कहा जाये और शायद मुस्लिम धर्मगुरु, मौलाना, या तथाकथित मुस्लिम रहनुमा इस बात की जवाबदेही से भी डर रहे है कि शेष मुसलमान उनसे सवाल न कर बैठे कि अचानक अपना दावा क्यों छोड़ दिया?
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि भारत का इस्लाम अन्य देशों के इस्लाम के सामने सहिष्णु है। कारण हमारे पूर्वज और संस्कृति साझी है। इसलिए मुस्लिम समुदाय की तरफ से बार-बार ये कहा जा रहा है कि अगर इस मामले में सुप्रीम कोर्ट फैसला कर दे तो हमें कोई ऐतराज नहीं हैं। अब सवाल ये है कि अदालत इस मसले का फैसला क्यों नहीं कर पा रही है? इसके कई कारण है दरअसल अदालत के लिए फैसले में सबसे बड़ी दिक्कत है मामले की सुनवाई करना। सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या कम है। ये संभव नहीं है हाई कोर्ट की तरह तीन जजों की एक बेंच सुप्रीम कोर्ट में भी मामले की सुनवाई करे। इलाहबाद हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान कई टन सबूत और कागजात पेश हुए। कोई हिन्दी में है, कोई उर्दू में है कोई फारसी में है। इन कागजों को सुप्रीम कोर्ट में पेश करने के लिए जरूरी है कि इनका अंग्रेजी में अनुवाद किया जाए। अभी तक सारे कागजात ही सुप्रीम कोर्ट में पेश नहीं हो पाए हैं और सबका अनुवाद का काम पूरा नहीं हुआ है। अगर रोजाना सुनवाई करें तो कई बार जज रिटायर हो जाते हैं और नए जज आ जाते हैं। तो सुनवाई पूरी नहीं हो पाएगी। इसीलिए चीफ जस्टिस ने कोर्ट ने बाहर समझौता करने की सलाह दी है। ये भी हो सकता है कि चीफ जस्टिस के दिमाग में ये बात रही हो कि अगर कोर्ट कोई फैसला कर भी दे तो समाज शायद उसे आसानी से स्वीकार ना करे।
पुरे मामले को दूर से देखने पर कोई पेंच नजर नहीं आता किन्तु जब इसके अनेकों पक्षकार और मस्जिद एक्शन कमेटी व हिन्दू संस्थाओं के बयान सुने तो यह मामला सुलझता नजर नहीं आता क्योंकि जब समझौते की पहली शर्त यही है कि मस्जिद की जगह पर दावेदारी पर बात नहीं होगी तो फिर बात किस मुद्दे पर करनी है? हालांकि कुछ लोग ये तर्क देते हैं कि कुछ मुस्लिम देशों में निर्माण कार्य के लिए मस्जिदें हटाई गईं हैं और दूसर जगह ले जाई गई हैं तो क्यों नहीं बाबरी मस्जिद के लिए कोई अन्य जगह जमीन लेकर इसका निर्माण कर लिया जाये। नमाज कहीं भी अदा की जा सकती उसके लिए इस्लाम में कोई एक विशेष जगह मुकर्रर नहीं है। इसके बाद मुस्लिम समुदाय को खुद सोचना चाहिए कि जब अन्य समुदाय के टेक्स के पैसों से उसे हज में सब्सिडी दी जा रही है ताकि वो अपने नबी के जन्मस्थान पर जाकर अपनी उपासना कर सकें तो उसे भी बहुसंख्यक समुदाय की आस्था को ध्यान में रखकर उनके अराघ्य देव के लिए अपनी जिद छोड़ देनी चाहिए। क्योंकि यदि कल सुब्रमणियम स्वामी के अनुसार केंद्र सरकार मंदिर निर्माण के लिए कोई राज्यसभा और लोकसभा में नया कानून ले आई तब सुप्रीम कोर्ट तो बाध्य होगा ही साथ में मुस्लिम समुदाय भी उस फैसले को मानने के लिए बाध्य होगा। जिसके बाद गंगा जमनी तहजीब की बात करना बेमानी लगेगा!!
-राजीव चौधरी