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भगत फूल सिंह हरियाणा में नारी शिक्षा के लिए लड़ाई लड़ने वाला एक योद्धा

भगत फूल सिंह  के बलिदान दिवस और बहन सुभाषनी जी के जन्मदिवस के रूप में हर साल 14 अगस्त को इन पिता-पुत्री को याद किया जाता है। भैंसवाल के गुरुकुल का ये 100वां वर्ष है। इन संस्थानों और भगत फूल सिंह की वजह से यह जमीं शिक्षा के साथ-साथ राजनीतिक रूप से उपजाऊ बन सकी।

इतिहासकार लिखते हैं कि सैकड़ों वर्ष पहले गोहाना के एक गांव से गुज़रते हुए कुछ लोगों ने एक हिरणी को लोमड़ी के साथ लड़ते देखा और कहा कि जिस धरती पर एक हिरणी को एक लोमड़ी से लड़ने की ताकत मिल जाए, उससे ताकतवर धरती नहीं हो सकती।

हरियाणा मे लड़कियों की शिक्षा की अलख जगाने वाले भगत फूल सिंह का जन्म सोनीपत के नज़दीक माहरा गांव (जुआं) में 24 फरवरी 1885 को हुआ था। इनका आरम्भिक नाम हरफुल सिंह था और आठवीं तक की शिक्षा लेने के बाद 1904 में सींक-पाथरी गांव में पटवारी के रूप उन्होंने अपनी पहली नौकरी शुरू की।

एक साथी पटवारी प्रीत सिंह के कहने पर हरफुल पानीपत में आयोजित एक आर्य समाज के कार्यक्रम में गये। जिसके बाद हरफुल जी के जीवन में बड़ा परिवर्तन आया और गांव-गांव घुमकर जनेऊ और ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ की प्रतियां बांटकर आर्य समाज का प्रचार-प्रसार करने लगे।

1916 में पटवारी की नौकरी से एक वर्ष की छुट्टी लेकर उन्होंने आर्य समाज का गहराई से अध्ययन शुरू कर दिया। हरफुल सिंह जी गुरुकुल कांगड़ी के संस्थापक स्वामी श्रधानंद जी से काफी प्रभावित थे। हरफुल जी ने 1917 में पटवारी की सरकारी नौकरी छोड़ दी।

नौकरी के साथ-साथ उन्होंने वानप्रस्थ धारण करके गांव माहरा की अपनी 100 बिगाह ज़मीन भी छोड़ दी। पत्नी और 2 बेटियों के साथ भेसवाल कलां के पास के वन में उन्होंने रहना शुरू कर दिया। इसी जगह पर 1918 में स्वामी श्रधानंद जी के हाथों से गुरुकुल की नींव रखवाई।

मलिक खाप के मुखिया दादा घासी राम जी को गुरुकुल का अध्यक्ष बनाया गया। गुरुकुल में मुख्य आय का स्त्रोत आसपास के सभी गांवों से चंदा था। अब हरफुल सिंह जी को भगत फूल सिंह कहा जाने लगा था। इस गुरुकुल में सिर्फ लड़कों को पढ़ाया जाता था, इसलिए खुद की बेटी सुभाषनी को देहरादून स्थित गुरुकुल मे पढ़ने के लिए भेजा।

उसके बाद दिल्ली और साबरमती आश्रम में उन्होंने अपनी बेटी को पढ़ने भेजा। सुभाषनी जी ने 1933 में पलवल में अध्यापिका की नौकरी शुरू कर दी थी। अभी तक हरियाणा में लड़कियों की शिक्षा के ऊपर किसी का ध्यान नहीं गया था।

सन 1936 में भगत फूल सिंह ने मलिक जाट बहुल दूसरे गांव खानपुर के समीप की लड़कियों की शिक्षा हेतु तीन कन्याओं के साथ ‘कन्या वैदिक पाठशाला’ की नींव रखी।

उसके ही अगले वर्ष 1937 में सुभाषनी जी ने एक बेटी कमला को जन्म दिया। भगत फूल सिंह ने इस दौरान कई बार सुभाषनी जी को कन्या पाठशाला का कार्यभार संभालने के लिए कहा, पर सुभाषनी इसके लिए तैयार नहीं हुईं। इसकी वजह से भगत फूल सिंह जी ने उनसे बात करना भी बंद कर दिया था।

अतः सुभाषनी जी अपने पिता की ज़िद को स्वीकारते हुए, कन्या पाठशाला में आने हेतु नौकरी छोड़ने को तैयार हो गईं। परन्तु वो वहां तक पहुंचती इसके पहले ही 14 अगस्त 1942 की रात को रांगड़ मुसलमानों के कुछ लोगों ने भगत फूल सिंह जी की छाती में गोली मार दी।

भगत फूल सिंह को शहीद फूल सिंह के नाम से याद किया जाने लगा। गुरुकुल स्थापना और आर्य समाज के प्रचार से एक तबका उनसे नाराज़ था, यही उनकी हत्या का कारण बना। आसपास के गांवों में इस घटना से काफी डर और रोष था। अब गुरुकुल की ज़िम्मेदारी पूर्ण रूप से सुभाषनी जी के कंधो पर आ गई थी।

भगत फूल सिंह की हत्या से गुरुकुल चलाने में कई बार उनको खतरा महसूस होता था। भगत फूल सिंह के अनुयायी उनकी हत्या का बदला लेना चाहते थे। जिसकी वजह से 1947 में एक अलग देश की स्थापना के समय इस क्षेत्र में ज़बरदस्त नरसंहार हुआ और आसपास के गांवों से लगभग सभी मुसलमान यहां से पलायन कर गये और जो बचे थे, उन्होंने शुधीकरण से हिंदू धर्म अपना लिया था।

आज़ादी के बाद अब गुरुकुल में नारी शिक्षा हेतु ज़्यादा कार्य किए जाने लगे। हरियाणा के साथ साथ उत्तर प्रदेश से भी काफी छात्राएं यहां शिक्षा हेतु आने लगी। आसपास के गांव भावनात्मक रूप से भगत फूल सिंह जी जुड़े रहें और 14 अगस्त को  बलिदान दिवस के रूप में हर साल होने वाले सालाना जलसे में दूर-दूर से लोग आते थे। जिस कारण बिना ज़्यादा सरकारी सहयता के भी सिर्फ चंदा राशि से ये गुरुकुल आगे बढ़ते रहे।

2003 में सुभाषनी जी के देहांत के समय ये गुरुकुल पूरे उत्तर भारत में एक जाना माना संस्थान बन चुका था, जिसमें कन्या विद्यालय के साथ-साथ दर्जनों डिग्री कोर्स थे।

सुभाषनी जी को गुरुकुल को चलाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। बिना किसी श्रृंगार के, सादे वस्त्र पहनने की उनकी शैली से प्रभावित होकर क्षेत्र की कई अन्य महिलाएं भी बिना शादी किये गुरुकुल में रहकर नारी शिक्षा से जुड़ी।

गुरुकुल चंदे पर आश्रित था, इसीलिए 1919 से ही एक प्रधान चुना जाता था। सुभाषनी जी और अलग-अलग प्रधानों के मध्य कई बार टकराव की स्थिति बनी। जिसे सुभाषनी जी ने अपने अनुभव से सुलझाया और गुरुकुल को बिखरने से रोके रखा। सुभाषनी जी को 1976 में पद्मश्री की उपाधि राष्ट्रपति द्वारा दी गई। उसके बाद उन्होंने 1977 में लोकसभा का चुनाव भी लड़ा।

सुभाषनी जी के देहांत के पश्चात 2006 में इस गुरुकुल को सरकारी महिला विश्वविद्यालय बनाकर पूर्ण रूप से सरकार के अधीन ले लिया गया, जो आज भगत फूल सिंह महिला विश्वविद्यालय और बीपीएस महिला मेडिकल कॉलेज के नाम से 10000 से भी ज़्यादा लड़कियों को शिक्षा दे रहा है।

इन संस्थानों ने हज़ारों युवाओं को रोज़गार और लाखों लड़कियों को शिक्षा प्रदान की है। आज भी सुभाषनी जी की बेटी बहन कमला, यूनिवर्सिटी में ही बने एक पुराने घर में रहती हैं। अपना पूरा जीवन नारी शिक्षा के उत्थान में न्योछावर करने वाले इस परिवार को ‘बलवान दिवस’ पर सादर नमन।..लेख-सतीश जांगरा

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