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मंडन के साथ-साथ खंडन भी क्यूँ आवश्यक हैं?

कुछ मित्रों का यह मत हैं कि आर्यसमाज को केवल मंडन करना चाहिए खंडन नहीं करना चाहिए। एक आर्यसमाजी अध्यापक से यह शंका एक छात्र के अभिभावक महाशय ने की थी। अध्यापक ने उत्तर दिया कि इसका उत्तर समय आने पर आपको मिलेगा। संयोग से दो दिन के पश्चात ही उस छात्र की परीक्षा थी। अध्यापक ने उस छात्र की उत्तर पुस्तिका में सभी गलत प्रश्नों को भी सही कर दिया और उसे अभिभावक को दिखाने के लिये कहा। अभिभावक ने जैसे ही उत्तर पुस्तिका में सभी गलत उत्तर को सही देखा तो अगले दिन अध्यापक से वे मिलने आये। जब उन्होंने गलत उत्तर को भी सही करने का कारण पूछा तो आर्य अध्यापक ने बड़े प्रेम से उत्तर दिया। महाशय जी आप ही ने तो कहा था कि खंडन मत किया करो केवल मंडन किया करो, मैंने आप ही की बात का ही तो अनुसरण किया है। आपके बेटे के सभी सही के साथ-साथ गलत उत्तर  को भी सही कर दिया, किसी का भी खंडन नहीं किया। धार्मिक जगत में भी  धर्म  के नाम पर अनेक प्रकार की भ्रांतियां और असत्य बातों का समावेश कुछ अज्ञानी  लोगों ने कर दिया है, यह कुछ-कुछ ऐसा है, जैसा एक किसान के खेत में फसल के साथ खर-पतवार का भी उग जाना, अब आप बतायें कि अगर किसान उस खर-पतवार को नहीं हटायेगा तो उसकी फसल का क्या हाल होगा? हिन्दू समाज में आध्यात्मिकता का भी यही हाल है, नाना प्रकार के अन्धविश्वास, नाना प्रकार की मिथ्या प्रपंच, नाना प्रकार के गुरुडम के खेल, नाना प्रकार की देवी देवताओं के नाम पर कहानियाँ  रच ली गई हैं, जिनका सत्य से दूर दूर तक भी किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है। उनका अगर खंडन नहीं करेंगे, तो क्या करेंगे ? महाशय जी चुप हो गये, उन्होंने सोचा कि बात तो सही है, खंडन करना चाहे कड़वा हो मगर है तो आवश्यक। आज हिन्दू समाज की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण अन्धविश्वास और धर्म के सही अर्थ को न समझना है।

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