Categories

Posts

महर्षि दयानन्द जी धार्मिक व सामाजिक क्रांति के जनक

19वीं सदी जब सारा भारत अंग्रेजों की दासता को अपना भाग्य समझकर सोया था। देशवासी अपनी गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की बजाय उल्टा उनका श्रृंगार कर रहे थे। राजनैतिक और मानसिक दासता इस तरह लोगों के दिमाग में घर कर गयी थी कि आजादी की बात करना भी लोगों को एक स्वप्न सा लगने लगा था। देश और समाज को सती प्रथा, जाति प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, मूर्तिपूजा, छुआछूत एवं बहुदेववाद आदि बुराइयों ने दूषित कर रखा था, विभिन्न आडम्बरों के कारण धर्म संकीर्ण होता जा रहा था। ईसाइयत और इस्लाम अपने चरम पर था। हालाँकि भारत से मुगल शासन राजनैतिक स्तर पर खत्म हो गया था पर सामाजिक स्तर पर पूरी तरह हावी था। लोग वैदिक हिन्दू धर्म के प्रति उदासीन होते जा रहे थे। अपनी संस्कृति के प्रति कोई रुचि लोगों के अन्दर न रही थी। देश पर अंग्रेज तो धर्म पर पाखंड हावी था और सर्व समाज विसंगतियों के जाल में कैद था।

लेकिन उसी दौरान गुजरात के टंकारा नामक स्थान पर एक बालक का जन्म ;फाल्गुनद्ध  फरवरी माह सन् 1824 में हुआ था जिसका नाम मूलशंकर रखा गया। तत्पश्चात् समस्त विश्व में इन्हें स्वामी दयानन्द के नाम से जाना गया। जिसने इस समाज को जीना सिखाया, उस समाज को जो चुनौतियों के सामने समर्पण किये बैठा था और धार्मिक और राजनैतिक दासता स्वीकार किये बैठा था। छोटी-बड़ी जाति का भेद जोकि सैकड़ों साल की गुलामी का कारण थी। उसे लोग सीने से चिपकाये बैठे थे। उस समय दया के धनी देव दयानन्द जी महाराज ने जनसमूह को सच्चाई से अवगत कराया कि छुआछूत की भावना या व्यवहार एक अपराध है जोकि वेदों के सिद्धांत के विपरीत है। धर्म और जाति पर आधारित बहुत-सी बुराइयों तथा अंधविश्वास पर चोट करते हुए  स्वामी जी ने कुप्रथाओं, विसंगतियों के रखवाले  पाखंडियों को ललकारा। उन्हें बताया कि जो अपने कार्य व व्यवहार से ब्राह्मण तुल्य व्यवहार करता है वही श्रेष्ठ है न कि कोई जन्म जाति के आधार पर।

प्रार्थना के साथ-साथ प्रयास करना भी जरूरी है यह सिखाया। स्वामी जी की इस ललकार से समाज की चेतना हिली। स्वामी जी ने धार्मिक सुधार के साथ राजनैतिक सुधार की बात कर अंग्रेजों के सिंहासन तक को हिला डाला। जब अंग्रेज महारानी भारतियों को यह कहकर दासता का घूंट पिला रही थी कि हम भारतीयों का अपने बच्चों की तरह ख्याल रखेंगे तब स्वामी जी ने कहा था राजा स्वदेश की मिट्टी से पैदा होना चाहिए जिनकी जड़ें अपनी देश की मिट्टी में हां जो विदेश से आयातित न हो जिनकी आस्था अपनी धर्म संस्कृति, सभ्यताओं, परम्पराओं में हो। बाद में स्वामी जी के इन्हीं वाक्यों ने अंग्रेजी सत्ता की नींव हिला दी थी। स्वामी दयानंद सरस्वती जी सर्वदा सत्य के लिए जूझते रहे, सत्याग्रह करते रहे। उन्होंने अपने उद्देश्य-प्राप्ति के लिए कभी हेय और अवांछनीय साधन नहीं अपनाए। स्वामीजी ने आने वाली पीढ़ी के सोचने के लिए देश, जाति और समाज के सुधार, उत्थान और संगठन के लिए आवश्यक एक भी बात या पक्ष अछूता नहीं छोड़ा।

इसी समय देश में पुनर्जागरण हुआ। देश ने अंगड़ाई ली जो सैंकड़ों सालों से युवा जात-पात के लिए आपस में लड़ रहे थे। उन्हें समझाया कब तक दूसरों के लिए लड़ोगे! कभी इस राजा के लिए कभी उस राजा के लिए, कभी अपनी जाति के लिए तो कभी आडम्बरां की रक्षा के लिए? उठो जागो! अब राष्ट्र की एकता धर्म के सिद्धांत के लिए, राष्ट्र निर्माण के लिए सीना तानकर खड़े हो जाओ। इस कारण आधुनिक भारत के निर्माण को प्रोत्साहन मिला। अँग्रेजी सरकार स्वामी दयानंद से बुरी तरह तिलमिला गयी। स्वामीजी से छुटकारा पाने के लिए, उन्हें समाप्त करने के लिए तरह-तरह के षड्यंत्र रचे जाने लगे जिसमें पाखंडियों का सहयोग भी नहीं नकारा जा सकता जो इस भारत को धर्म के नाम पर लूट रहे थे। धर्म सुधार हेतु अग्रणी रहे दयानंद सरस्वती ने अप्रैल1875 में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की।  वेदों का प्रचार करने के लिए उन्होंने पूरे देश का  दौरा करके पंडित और विद्वानों को वेदों की महत्ता के बारे में समझाया।  स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुनः हिन्दू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया। पुनः वैदिक कॉलेजों की स्थापना होने लगी। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिलना आरम्भ हो गया। स्वामी जी ने एकेश्वरवाद का रास्ता दिखाया। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है जिस कारण उस समय हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन रुक गया। उन्होंने इस सर्व समाज को सत्यार्थ प्रकाश जैसा सही रास्ता दिखाने वाला ग्रन्थ दिया। अपनी युवावस्था, अपना जीवन, अपना सर्वस्व इस देश और समाज को दिया। क्या स्वामी जी का यह बलिदान कोई भूल सकता है। वे प्रत्येक की पूर्ति के लिए मनसा, वाचा, कर्मणा मरण-पर्यन्त प्रयत्नशील रहे उन्होंने अपने उपदेशों, लेखों द्वारा और लोगों के सम्मुख अपना पावन आदर्श तथा श्रेष्ठ चरित्र उपस्थित करके देश में जागृति उत्पन्न कर दी जिससे भावी राजनैतिक नेताओं का कार्य बहुत ही सुगम व सरल हो गया।निःसंदेह स्वामी दयानंद सरस्वती राष्ट्र-निर्माता थे। महर्षि देव दयानन्द जी के जन्मोत्सव पर उन्हें शत्-शत् नमन।

-राजीव चौधरी

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *