जहां भारत के शिक्षित हिंदुओं में अकबर की छवि उदार व कुशल बादशाह की है वहीं पाकिस्तान में उसके प्रति घृणा का भाव है। दरअसल अकबर आध्यात्मिकता की ओर झुकाव के कारण इस्लाम से दूर होने लगा था। उसने अपने दरबार में मजहबी—वैचारिक विमर्श में इस्लाम यहां तक कि पैंगबर मुहम्मद पर भी प्रश्न उठाने की छूट दे दी थी।
योंगी आदित्यनाथ ने पिछले दिनों दो बार जोर देकर कहा कि भारतवासियों के लिए अकबर नहीं, बल्कि महाराणा प्रताप महान थे। इस पर यहां के प्रभावी बुद्धिजीवी समाज में प्रतिक्रिया हुई। कारण यह है कि अकबर बनाम प्रताप हमारी राष्ट्रीय मानसिकता का एक बुनियादी संघर्ष-बिन्दु है। इसीलिए इस पर सदैव विवाद होता है।
हालांकि महाराणा प्रताप पर अधिक विवाद नहीं है। चाहे दशकों से नेहरूवादी-मार्क्सवादी जमात ने प्रचार किया कि प्रताप तो स्थानीय राजा थे, जो अपनी गद्दी के लिए अकबर से लड़ते रहे। किन्तु हिन्दू स्मृति में राणा प्रताप और शिवाजी का विशिष्ट, अद्वितीय स्थान है, जिन्होंने इस्लामी आक्रमणकारियों के विरुद्ध हिन्दू संघर्ष को जिंदा रखा, और अंतत: जिस से इस्लामी साम्राज्यवाद हारा। महाराणा प्रताप की ध्वजा पर सनातन प्रतिज्ञा फहराती थी: ‘‘जो दृढ़ राखहीं धरम को, तौ राखहिं करतार।’’अत: उन की महानता स्थाई है। विवाद अकबर पर है। क्या वह महान भारतीय था या कि विदेशी इस्लामी आक्रमणकारी? क्या उसने यहां इस्लाम का साम्राज्य बढ़ाया या इस्लाम को किनारे कर केवल सत्ता की राजनीति की? ये बड़े विवादी सवाल हैं।
मजे की बात यह है कि भारत और पाकिस्तान में अकबर की छवि प्राय: उलटी है। भारत में शिक्षित हिन्दुओं में अकबर की छवि उदार, कुशल बादशाह की है जबकि पाकिस्तान में अकबर के प्रति घृणा-सा भाव है, कि उसने इस्लाम के प्रसार को बाधित किया। यहां भी, बड़े कांग्रेसी नेता और नेहरू के प्रधानमंत्रित्वकाल में भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था कि अकबर ने भारत से इस्लाम को खत्म कर दिया। प्रसिद्ध इतिहासकार आई.एच. कुरैशी भी अकबर को काफिर मानते थे।
वैसे, पाकिस्तान और भारत में अकबर की इन दो उलटी छवियों में एक सत्य समान है। वस्तुत: वही सामाजिक और तात्विक दृष्टि से रोचक भी है। यह सही है कि महान हिन्दू नायक हेमचन्द्र को घायल अवस्था में अपने हाथों से कत्ल करने वाला 13 वर्षीय अकबर एक कट्टर जिहादी शासक बना। अपने शासन के पहले 24 वर्षों तक उसने जो किया उस से यहां वह महमूद गजनवी, शहाबुद्दीन घूरी, मुहम्मद घूरी और अलाउद्दीन खिलजी की पंक्ति में ही आता है। बाहरी मुसलमान सैनिकों के बल पर उसने भारत के बड़े भू-भाग पर कब्जा किया। अपने को ‘गाजी’ कहते हुए, तैमूरी वंशज होने का उसे बड़ा गर्व था। मेवाड़ और गोंडवाना राज्यों में उसने जो किया, वह वीभत्स जिहाद ही था।
अकबर लंबे समय तक मोइनुद्दीन चिश्ती का अंध-भक्त रहा, जो हिन्दू धर्म-समाज पर इस्लामी युद्ध का बड़ा प्रतीक था। 1568 ई. में चित्तौड़गढ़ पर जीत के बाद अकबर ने उसी चिश्ती दरगाह-अड्डे से ‘फतहनामा-ए-चित्तौड़’ जारी किया था। उस के हर वाक्य से जिहादी जुनून टपकता है। उस युद्ध में 8 हजार राजपूत स्त्रियों ने जौहर कर प्राण दिए, और अकबर ने राजपूत सैनिकों के अलावा 30 हजार सामान्य नागरिकों का भी कत्ल किया। सभी मृत पुरुषों के जनेऊ जमा कर उन्हें तौला गया, जिसका वजन साढ़े चौहत्तर मन था। यह भी केवल एक बार में, एक स्थान पर! आज भी राजस्थान में ‘74’ का तिलक-नुमा चिन्ह किसी वचन पर पवित्र मुहर जैसा इस्तेमाल होता है, कि जो इस वचन को तोड़ेगा, उसे बड़ा पाप लगेगा!
अकबर के सूबेदारों ने उत्तर-पश्चिम भारत में हिन्दू मंदिरों का बेशुमार विध्वंस किया। इनमें कांगड़ा, नगरकोट आदि के प्रसिद्ध मंदिर शामिल थे। अकबर ने अपने शासन में शरीयत लागू करने के लिए मुल्लों के विशेष पद भी बनाये। पूरी दुनिया से महत्वाकांक्षी मुसलमान उसके पास आते थे, और उन्हें पद, जिम्मेदारी आदि मिलती थी। पहले तो मजहबी मामले में अकबर इतना कट्टर था, कि हिन्दुओं की कौन कहे, कट्टर-सुन्नी के सिवा अन्य मुस्लिम संप्रदायों के प्रति भी वह असहिष्णु था।
दूसरी ओर, यह भी सही है कि अकबर के स्वभाव में एक चिंतनशीलता, तर्कवादिता और लीक की परवाह न करने वाली साहसिक प्रवृत्ति थी। इसीलिए, जैसे ही उस की सत्ता विस्तृत और सुदृढ़ हो गई, उस ने अपने प्रिय विषय मजहब-चिंतन पर समय देना शुरू किया। यह 1574 ई. के लगभग हुआ, जब अकबर ने राजधानी फतेहपुर सीकरी में इस्लाम का बाकायदा अध्ययन शुरू किया। उस की मूल इच्छा इस्लाम को और मजबूत करने की ही थी। इसी इरादे से उस ने विभिन्न धर्म-ज्ञानियों, संतों को बुलाकर अपने चिश्ती सूफियों और उस समय के नामी सुन्नी उलेमाओं के साथ शास्त्रार्थ-सा कराना शुरू किया। इस के लिए उसने एक विशेष ‘इबादतखाना’ और उस के सामने ‘अनूप तालाब’ बनवाया। अनोखी बात है कि पहली बार अकबर ने यह संस्कृत नामकरण किया।
‘इबादतखाना’ उन्हीं सूफियों, आलिमों, ज्ञानियों के साथ अकबर के गहन ज्ञान-विमर्श का स्थान था। उस जगह कई वर्षों तक अकबर की मौजूदगी में जो विचार-विमर्श हुए, उनके काफी विवरण अलग-अलग, किन्तु प्रत्यक्ष स्रोतों से उपलब्ध हैं। जैसे, पुर्तगाली ईसाई पादरी, गुजरात से निमंत्रित पारसी विद्वान दस्तूर मेहरजी और अकबरी दरबार का मुल्ला बदायूंनी। इन तीनों के लेखन से यह प्रामाणिक जानकारी मिलती है कि समय के साथ अकबर ने महसूस किया कि जिस मजहब पर उसे इतना अंधविश्वास रहा था, वह वास्तव में दर्शन, चिंतन और ज्ञान-विज्ञान से खाली-सा है।
अबुल फजल की प्रसिद्ध पुस्तक अकबरनामा के अनुसार अकबर ने कहा, ‘‘अनेक हिन्दू विश्वासियों को हमारा मजहब अपनाने के लिए विवश किया था। अब जबकि हमारी आत्मा को सचाई की रोशनी मिली है, यह साफ हो गया है कि विरोधों से भरी इस कष्टप्रद दुनिया में, जहां परत-दर-परत नामसझी और घमंड भरा पड़ा है, कोई भी कदम बिना सबूत के नहीं उठाया जा सकता। और वही मत लाभदायक है जिसे विवेक ने स्वीकृत किया हो। सुल्तान के डर से किसी मत को बार-बार दुहराना, चमड़ी का कोई हिस्सा काटकर अलग कर देना (खतना) और अपनी (सिर की) हड्डी के सिरे को जमीन से छुआना (सिजदा करना), यह सब कोई परवरदिगार की ओर जाना नहीं है।’’
संभवत: अपने ही पुराने जिहादी अतीत पर अफसोस जताते हुए अकबर ने कहा था कि जानवर भी जान-बूझकर कोई हिंसा नहीं करते। पर ‘बुराई की ओर मनुष्य का झुकाव उस के आवेशों और कामुकता को विकृति के नए-नए रास्ते सुझाता है। उसे खून-खराबा करना और दूसरों को कष्ट देने को मजहबी आदेश समझना सिखाता है।’ यह परोक्ष, मगर लगभग खुले रूप से इस्लाम की ही आलोचना थी।
अत: कहा जा सकता है कि चूंकि अकबर में आध्यात्मिक भूख थी, इसलिए अनायास वह इस्लाम से दूर होने लगा। उसका इरादा ऐसा नहीं था। पर ईश्वर और आत्म के प्रति खोजी मानसिकता ने उसे जड़-सूत्री मतवादिता से स्वत: वितृष्ण कर दिया। इसीलिए, उस ने मजहबी-वैचारिक विमर्श में इस्लाम की मान्यताओं पर और स्वयं पैगम्बर मुहम्मद पर भी प्रश्न उठाने की छूट दी।
एक बार अकबर के दरबार में किसी आमंत्रित दार्शनिक ने पैगम्बर-वाद के सिद्धांत की ही कड़ी आलोचना की। उसने कहा कि जब पैगम्बर भी एक मनुष्य थे, तो मनुष्यों को अपने जैसे ही दूसरे मनुष्य के सामने झुकाना बहुत बड़ी बुराई है। क्योंकि किसी भी मनुष्य में मनुष्य वाली कमजोरियां कमोबेश होंगी ही। फिर उस ने पैगम्बर मुहम्मद की जीवनी से ऐसी अनेक कमियों का उल्लेख करते हुए पूछा, ‘‘जहांपनाह, तब किस विज्ञान के आधार पर ऐसे व्यक्ति के आदेश मानना जरूरी समझा जाए?’’
कहना न होगा कि अकबर के दरबार में ऐसा खुला मजहबी विचार-विमर्श इस्लाम की सत्ता और प्रवृत्ति के विरुद्ध ही था। यही नहीं, व्यावहारिक क्षेत्र में भी, अकबर ने हिन्दुओं से जबरन कन्वर्ट कराए गए मुसलमानों को फिर से अपने पुराने, हिन्दू धर्म में जाने की अनुमति दे दी। ईसाई पादरियों का स्वागत करते हुए अकबर जीसस और मेरी की प्रतिमाओं को इस प्रेम से गले लगाता था कि पादरियों को लगता कि वह ईसाई बनने के लिए तैयार है। उस ने लाहौर में एक चर्च बनाने और उसका खर्च उठाने की भी मंजूरी दी थी। उसने अपने राज्य में गो-मांस खाने का भी निषेध कर दिया। कभी-कभी अकबर हिन्दू या ईसाई (पुर्तगाली) पोशाक आदि भी पहनता था। यह सभी कदम दर्शाते हैं कि धीरे-धीरे वह इस्लाम के मूल आदेशों, निर्देशों और सिद्धांतों को कतई खारिज कर चुका था।
संभवत: इसीलिए, उसने लगभग 1582 ई. में एक नये मजहब की ही घोषणा कर डाली, जिसे ‘दीन-ए-इलाही’ का नाम दिया गया। निस्संदेह, यह अपने आप इस्लाम से हटने का अप्रत्यक्ष संकेत ही था। चाहे उसने राजनीतिक, व्यावहारिक कारणों से ऐसी कोई घोषणा नहीं की थी। पर यह तो तब भी और आज भी साफ है कि कोई मुसलमान किसी नए मजहब की घोषणा करे, तो इस्लामी मतवेत्ता उससे क्या समझेंगे। बदायूंनी ने लिखा भी है कि मिर्जा जानी जैसे जिन मुस्लिम सूबेदारों ने दीन-ए-इलाही को अपनाने की घोषणा की, उन्होंने साथ ही इस्लाम छोड़ने की भी घोषणा की थी।
निस्संदेह, दीन-ए-मुहम्मद (पैगम्बर मुहम्मद का मजहब) और दीन-ए-इलाही (ईश्वर का मजहब) एक ही चीज नहीं हो सकती थी। वरना, इसकी घोषणा की जरूरत ही न होती। हालांकि भारत में उदारवादी, वामपंथी और इस्लामी इतिहासकारों ने इस अत्यंत गंभीर बिन्दु की लीपा-पोती करने की कोशिश की है। उन्होंने इसे अकबर का चतुराई भरा राजनीतिक कदम बताया है, ताकि उसे यहां तमाम विभेदों से ऊपर उठकर एक अनूठे शासक होने का खिताब मिले। कुछ ने इसे अकबर की निजी महत्वाकांक्षा बताया है, कि वह खुद पैगम्बर बनने की लालसा पालने लगा था, आदि। पर कारण जो भी रहा हो, पैगम्बर मुहम्मद, कुरान और हदीस, यानी पैगम्बर के वचन और काम के उदाहरण के सिवा किसी चीज को महत्व तक देना इस्लाम-विरुद्ध है। इसे देखते हुए अकबर ने तो सीधे-सीधे एक नये मजहब की ही घोषणा कर डाली थी! यह सीधे-सीधे इस्लाम को ठुकराने का सुविचारित कदम था। चाहे इस का कारण कुछ भी रहा हो।
सभी स्थितियों और साक्ष्यों को दखते हुए यह सच प्रतीत होता है कि आध्यात्मिक और खोजी स्वभाव के अकबर ने अपनी ओर से भरपूर वैचारिक पड़ताल के बाद इस्लाम से छुट्टी कर ली! उसने हर किसी को अपनी-अपनी श्रद्धा और विश्वास के अनुसार किसी भी पंथ को अपनाने, छोड़ने और अपने पांथिक स्थान, मंदिर, चर्च, सिनेगॉग, मौन-स्तंभ आदि बनाने की अनुमति दे दी। बदायूंनी के अनुसार, इस संबंध में एक राजकीय आदेश जारी हुआ था। यह सब इस्लाम-विरुद्ध था।
किन्तु उस समय पूरे विश्व में सब से ताकतवर मुस्लिम शासक होने के कारण कोई मुल्ला, इमाम या दूसरे मुस्लिम शासक, यहां तक कि खलीफा भी, अकबर का कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे। मुल्ला बदायूंनी ने अपनी गोपनीय डायरी में बेहद कटु होकर लिखा है कि बादशाह काफिर हो गया है, चाहे कोई कुछ बोल नहीं सकता। यही राय उस समय के अन्य मुल्लाओं, आलिमों, सूफियों की भी थी। बदायूंनी ने यह भी लिखा है कि खुले पांथिक और तात्विक विचार-विमर्श में हिन्दू पंडितों के सामने कोई मौलाना टिक नहीं पाता था।
इसी बीच, आजीवन स्वस्थ और बलिष्ठ अकबर की मात्र 63 वर्ष की आयु में ही आकस्मिक मौत हो गई। कई विवरणों में उसे जहर देने की बात मिलती है। यहां तमाम मुस्लिम शासकों का इतिहास देखते हुए यह सामान्य बात ही थी। मध्यकालीन भारत में शासन करने वाले तमाम मुस्लिम सुल्तानों, बादशाहों, सूबेदारों आदि में तीन चौथाई से अधिक की अस्वाभाविक मौत या हत्या आदि ही हुई थी। उस में अकबर भी रहा हो, तो यह कोई बड़ी बात नहीं थी। हालांकि, यदि यह सच हो तो इस का कारण तख्त के लिए शहजादे सलीम का षड्यंत्र भी संभव है, जो वह पहले भी कई बार कर चुका था। पर निस्संदेह, कट्टर मुल्ला, सूफी और उलेमा भी अकबर से बेहद नाराज थे। यदि अकबर की अस्वाभाविक मौत हुई, तो कारण ये लोग भी रहे हो सकते थे।
यह संयोग नहीं कि जिस इबादतखाने और ‘अनूप तालाब’ के बारे में उस जमाने के अनेक विवरण तथा चित्रकारियां मिलती हैं, आज फतेहपुर सीकरी में इन दोनों का ही कोई नामो-निशान नहीं है! अकबर के बाद मुल्लों ने उसे ‘कुफ्र’ की निशानी मानकर बिल्कुल नष्ट करवा दिया। यह अकबर के शासन के उत्तरार्ध के वैचारिक इतिहास पर कोलतार पोतने का ही अंग था। संयोगवश वे लोग मुल्लाओं बदायूंनी की लिखी गोपनीय डायरी ‘मुन्तखाबात तवारीख’ की सभी प्रतियों को खत्म न कर सके, जो बहुत बाद में जाकर उजागर हुई थीं। तब तक उस की अनेक प्रतियां, प्रतिलिपियां बन कर जहां-तहां चली गई थीं।
उस जमाने के हिसाब से 1579 ई. से 1605 ई. कोई छोटी अवधि नहीं है, जिसे अकबर के इस्लाम से हट जाने का काल कहा जा सकता था। इन 26 वर्षों में अकबर ने जो सामाजिक, राजनीतिक, मजहबी व्यवहार किया, जो कहा-सुना, उस के विश्लेषण के बजाए यहां उन सब को छिपाने का ही काम हुआ। ताकि इस गंभीर सत्य पर पर्दा पड़ा रहे कि भारत के तमाम इस्लामी शासकों में जो सब से प्रसिद्ध हुआ, वह बाद में मुसलमान ही नहीं रहा! अकबर से कई बार मिले गोवा के ‘फादर जेवियर’ ने लिखा है कि अकबर इस्लाम छोड़कर कोई देशी संप्रदाय (जेन्टाइल सेक्ट) स्वीकार कर चुका था। पुर्तगाली जेसुइटों ने भी अलग-अलग बातें लिखी हैं। किसी के अनुसार, अकबर ईसाई हो गया था, तो किसी के अनुसार वह हिन्दू बन गया था। एक ने लिखा है कि अकबर दिन में चार बार श्रद्धापूर्वक सूर्य की उपासना करता था। वस्तुत: अनेक विवरणों में अकबर के इस्लाम छोड़ देने की आशंका या दावा मिलता है।
एक बार अपने बेटे को लिखे पत्र में अकबर ने कर्म-फल और आत्मा के पुनर्जन्म सिद्धांत को बिल्कुल तर्कपूर्ण और विश्वसनीय बताया था। अकबरनामा के अनुसार, जब शहजादे मुराद को मालवा का शासक बनाया गया, तो उसने विभिन्न विषयों पर अपने पिता से सलाह और निर्देश मांगे। अकबर ने उसका बिन्दुवार उत्तर दिया था। साथ ही, उसे और समझाने के लिए विद्वान अबुल फजल को भेजा। मुराद ने पढ़ने के लिए पुस्तकों की भी मांग की थी। उसे उत्तर मिला था कि उसे महाभारत का अनुवाद भेजा जाएगा। साथ ही ईश्वर के कुछ नाम भी ताकि उसे अपनी प्रार्थनाओं में मदद मिले। मुराद को जो मुख्य सलाह मिली थी, वह यह थी कि ‘राजकीय नीतियों में पांथिक विभेदों को कभी हस्तक्षेप न करने दो।’ बाद में यही सलाह अकबर ने कई विदेशी शासकों को भी दी थी।
चूँकि अकबर की मृत्यु आकस्मिक हुई, इसलिए यह अनुमान कठिन है कि यदि वह और जीवित रहता तो उस की मजहबी-राजनीतिक विरासत क्या होती? किंतु इतना तय है कि वह इस्लाम के विरुद्ध होता। यही कारण है कि भारत के मुल्ला, उलेमा और पाकिस्तानी आलिम भी अकबर के नाम से चिढ़ते हैं। कारण यही लगता है कि उन्हें अपनी परंपरा का सच अधिक विस्तार से मालूम है। हिन्दुओं को इस बाबत कम जानकारी है, क्योंकि स्वतंत्र भारत में नेहरूवादियों तथा सेकुलर-वामपंथी प्रचारकों ने शुरू से ही अकबर को ‘उदार इस्लामी-भारतीय शासन’ का प्रतीक बनाने की जालसाजी रच रखी है। वे अकबर के ही सहारे मध्यकालीन भारत में इस्लामी शासन का महिमामंडन करने में लगे रहे हैं!
सो, कहना चाहिए कि भारत के लोगों के लिए अकबर की ‘महानता’ का प्रश्न बेमानी है। जैसे, नेपोलियन, रॉबर्ट क्लाइव या लॉर्ड डलहौजी का महान होना या न होना भारतवासियों के लिए प्रसंगहीन है। वे लोग जैसे भी थे, दूसरे देशों के इतिहासों के अंग हैं। उसी तरह, अकबर भी किसी विदेशी समाज के इतिहास का अंग है। भारत के लिए उसका कोई प्रसंग है तो यही, कि चाहे सैनिक रूप से हिन्दू उसे न हरा सके, किन्तु यहां के साधारण ज्ञानियों ने उसके मतवाद को उस के सामने ही निर्णायक रूप से हरा दिया था। बड़े तत्कालीन हिन्दू संत और ज्ञानी तो अकबर के पास कभी गए तक नहीं थे!
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर और वरिष्ठ स्तम्भ-लेखक हैं)