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मेरा व्यवहार

हम अपने तीनों साधनों (मन, वाणी और शरीर) के माध्यम से ही कुछ क्रिया-व्यवहार करने में समर्थ हो पाते हैं। अर्थात् मानसिक, वाचनिक और शारीरिक रूप में हमारा व्यवहार का क्षेत्र पृथक-पृथक रहता है। हम अपने व्यवहार को पाँच भागों में बाँट सकते हैं जैसे कि व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, और वैश्विक। जो भी हमारे कर्त्तव्य हैं उनको यदि हम ठीक-ठीक निभाते हैं तो हम एक व्यावहारिक व्यक्ति माने जाते हैं। चाहे हम किसी भी क्षेत्र में कार्य करें परन्तु हमारा व्यवहार उत्तम ही हो ऐसी अपेक्षा सभी की रहती है। यदि हमारे व्यवहारों का परिणाम व प्रभाव कल्याणकारी हो, लाभदायी हो तो व्यवहार उत्तम माना जाता है। व्यवहार की उत्तमता का मापदण्ड यह है कि मुख्यतः हमारे व्यवहार से सुख की ही प्राप्ति हो। यदि हम व्यक्तिगत क्षेत्र में व्यवहार करते हैं तो सुख भी व्यक्तिगत ही होता है। ठीक इसी प्रकार यदि हम अपने परिवार को सुख पहुंचाते हैं तो हमारा व्यवहार पारिवारिक क्षेत्र में उत्तम माना जाता है। सामाजिक क्षेत्र में भी हम तभी अच्छे माने जाते हैं जब हमारे व्यवहार से समाज को सुख पहुँचता है। जो भी हमारा राष्ट्रीय कर्त्तव्य हैं उनको जब हम उचित ढंग से संपादन करते हुए राष्ट्र को हित पहुंचाते हैं तो राष्ट्रीय दृष्टिकोण से हम उत्तम नागरिक कहलाते हैं। ऐसे ही हमारा कुछ कर्त्तव्य विश्व कल्याण के लिए भी होता है। हम प्रत्येक कार्य को तीनों ही साधनों के माध्यम से कर पाएं यह आवश्यक नहीं है। अपनी-अपनी योग्यता व सामर्थ्य के अनुरूप कुछ कार्य हम मानसिक रूप में ही कर सकते हैं तो कुछ कार्य वाचनिक रूप में और कुछ शारीरिक रूप में। यदि हमारा सामर्थ्य उतना अधिक नहीं है और हम किसी को शारीरिक रूप में सहयोग नहीं कर सकते, लाभ नहीं पहुंचा सकते, सुख नहीं दे सकते तो प्रयास यह करना चाहिए कि वाचनिक रूप में सुख पहुंचाएं और यदि उतना भी सामर्थ्य नहीं है तो मानसिक रूप में उनके कल्याण की कामना तो कर ही सकते हैं।

 हम अपने व्यक्तिगत व्यवहारों को पुनः दो भागों में विभाजित कर सकते हैं  एक तो ईश्वर के प्रति और दूसरा स्वयं के प्रति। हम यह तो विचार कर लेते हैं और अपने कर्त्तव्यों के प्रति सावधान भी रहते हैं कि दूसरों के प्रति हमारा व्यवहार कहीं गलत न हो जाये। यह उचित भी है और हमें सावधान भी रहना चाहिए इसका निषेध नहीं है परन्तु संसार के सभी लोगों के साथ व्यवहार करते हुए एक व्यक्ति के प्रति अपना कर्त्तव्य हम भूल जाते हैं अथवा उसके प्रति व्यवहार ही ठीक नहीं कर पाते। वह व्यक्ति और कोई नहीं जिसने हमें यह सब साधन प्रदान करके कर्म करने के योग्य बनाया है, जिसने हमें विचार, चिंतन-मनन के लिए मन, निर्णय करने हेतु बुद्धि, सब भोगों को भोगने हेतु इन्द्रियाँ और सुन्दर शरीर बना के दिया उसके प्रति भी तो हमारा कुछ कर्त्तव्य बनता है। उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना, उसको धन्यवाद देना तथा मुख्य रूप से  उसकी आज्ञाओं का ठीक-ठीक पालन करना। जब हम उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं तो उसमें भी अपना ही लाभ है, कल्याण है, हमें ही सुख मिलता है। इस दृष्टिकोण से इस व्यवहार को हम व्यक्तिगत व्यवहार के अन्तर्गत ही ले सकते हैं क्योंकि इसका परिणाम या फल आदि ईश्वर को तो प्राप्त होगा नहीं और ईश्वर को चाहिए भी नहीं। हम किसी भी क्रियाओं को करने में स्वतन्त्र हैं, अच्छे कार्यों को करने में, बुरे कार्यों को करने में या फिर अच्छे-बुरे मिलाकर मिश्रित कार्यों को करने में। परन्तु हमें यह सदा के लिए स्मरण रखना चाहिए कि जब-जब हम अच्छे कार्यों को करते हैं तो परिणाम स्वरूप सुख ही होता है और जब हम बुरे कार्यों को करते हैं तो उसके परिणाम स्वरूप दुःख की ही प्राप्ति होती है, चाहे हम व्यक्तिगत स्तर पर करें या फिर पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर। यदि हम केवल ईश्वर के प्रति भी अपने व्यवहार में सजग-सावधान रहते हैं तो भी अपना समस्त व्यवहार उत्तम ही बनता  जायेगा और यदि हम ईश्वर को ही छोड कर सब व्यवहार करते रहेंगे तो हमारा व्यवहार दोषयुक्त ही रहेगा। जैसा कि कहा भी जाता है कि एक साधे सब सधे और सब साधे सब जाए। इसीलिए हम ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा व भक्ति से व्यवहार को उत्तम बनाये रखने में प्रयत्नशील रहें। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान, सर्वज्ञ और कर्मफल प्रदाता हैं। इतना मात्र ध्यान रखने से हमसे कभी कोई गलत कार्य हो ही नहीं सकता और हम सदा अच्छे कार्यों में ही प्रवृत्त होते रहेंगे। और जहाँ तक ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करने की बात है तो यदि हम एक भी ईश्वरीय आदेश को देखें तो भी हमारा कल्याण सुनिश्चित है, जैसे कि सत्य बोलना। हम यदि केवल सत्य का ही पालन करने लग जाएँ तो भी कल्याण हो जायेगा। और देखा जाये तो जो व्यक्ति ईश्वर को सर्वत्र विद्यमान ही मानेगा तो उससे असत्य का व्यवहार तो वैसे भी नहीं होगा क्योंकि अत्यन्त-दुष्ट स्वभाववालों को छोड़ कर प्रायः सामान्य व्यक्तियों में तो यही प्रवृत्ति देखी जाती है कि किसी दूसरों के सामने स्थूल रूप में कभी कोई बुरा कर्म नहीं करते,अपने को अच्छा ही दिखाते हैं। वैसे भी ईश्वर हमें अच्छे कार्यों में प्रेरित करने हेतु और बुरे कार्यों से रोकने के लिए निर्देश करते रहते हैं। जब हम ईश्वरीय आन्तरिक प्रेरणा को सुनते हैं और उत्तम व्यवहार करते हैं तो इस प्रकार हम सभी बुरे कर्मों से बच जाते हैं और उनके परिणामरूप दुखों से भी ।
ईश्वर के साथ व्यवहार के पश्चात् हम अपने साथ भी उचित व्यवहार करें जिससे हर प्रकार से हमें सुख प्राप्ति हो। आत्मा की उन्नति कैसी हो ? हमारा शरीर कैसे बलवान स्वस्थ व दीर्घायु हो ? हमारा मन कैसे प्रत्येक कार्य में एकाग्रयुक्त हो ? बुद्धि कैसे कुशाग्र हो, निर्णय करने में समर्थ हो ? सभी इन्द्रियाँ स्वस्थ-बलवान हों ? इन सबके लिए सदा प्रयत्नशील रहें। शरीर आदि साधनों को किसी भी प्रकार से हानि हो ऐसा कोई उल्टा कार्य न करें। आत्मा की उन्नति के लिए ईश्वर की उपासना, शरीर की उन्नति के लिए व्यायाम, आसन, प्राणायाम, उत्तम आहार-विहार, मन की एकाग्रता के लिए ध्यान का अभ्यास, बुद्धि के लिए बुद्धि-वर्धक पदार्थों का सेवन करना, यह सब व्यक्तिगत क्षेत्र में अपने प्रति उत्तम व्यवहार है।
 हमारा कुछ कर्त्तव्य अपने परिवार के प्रति, परिवार के सभी सदस्यों के प्रति भी होता है। जिन माता-पिता ने हमें जन्म दिया और बाल्यकाल से ही उत्तम रूप से लालन-पालन करके हमें योग्य बनाया, अच्छी शिक्षा दी और अपना सुख छोड़ कर भी हमारे सुख-सुविधाओं का ध्यान रखा, उनका भी हमारे ऊपर महान ऋण है। ठीक उसी प्रकार हम भी उनका सम्मान करें, आदर-सत्कार करें, श्रद्धा पूर्वक उनकी सेवा करें, उनकी आज्ञाओं का पालन करें और हर प्रकार से उनको सुख पहुँचाने का प्रयत्न करें। अपने भाई-बहनों के प्रति भी प्रेम पूर्वक व्यवहार करें, उनकी उन्नति में सदा सहायक हों, यदि हम विवाहित हैं तो अपनी धर्म-पत्नी व बच्चों के प्रति भी अपने कर्तव्यों का निर्वहन उचित रूप में करें।
 जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त हम दूसरों से ही सहयोग लेते रहते हैं। समाज में अनेक प्रकार की योग्यता व विशेषताओं से युक्त लोग रहते हैं, हम अपनी छोटी से छोटी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी दूसरों के आश्रित रहते हैं। बिना दूसरों से सहयोग लिए हमारा जीवन व्यतीत करना भी दुष्कर है। हम दूसरों से सहयोग लेते हैं तो दूसरा भी हमसे सहयोग लेता है। इस प्रकार सारा समाज परस्पर के सहयोग से ही गतिमान है इसीलिए हम भी समाज की उन्नति में अपनी योग्यता व सामर्थ्य के अनुसार कुछ योगदान करें। एक दूसरे से बात-चीत, लेन-देन अदि सब कार्य प्रेम पूर्वक तथा सबके साथ न्याय व धर्मयुक्त मधुर व्यवहार ही करें।  इस समाज में न केवल मनुष्य ही रहते हैं अपितु पशु-पक्षी भी रहते हैं अतः उन सबकी सुरक्षा और पालन-पोषण की व्यवस्था का ध्यान रखना भी एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हमारा कर्त्तव्य बनता है, जिनका हमें उचित रूप में संपादन करना चाहिए।
ठीक इसी प्रकार आगे जाकर हमारा व्यवहार का क्षेत्र राष्ट्रीय स्तर का हो जाता है। देश की उन्नति में जो कुछ भी हमसे बन पाए अपनी योग्यता व सामर्थ्य के अनुरूप करना चाहिए। उत्तम राजाओं वा मंत्रियों का चयन करना तथा देश में अन्याय, अधर्म, अत्याचार, भ्रष्टाचार, आतंकबाद आदि हो तो उसके विरुद्ध में जनता को जागरुक करना चाहिए। राष्ट्र में अविद्या, अन्याय और अभाव को दूर करने का सदा प्रयत्न करते रहना चाहिए। इसी प्रकार पूरे विश्व में सुख-शान्ति की स्थापना हो सके तथा सत्य-धर्म का प्रचार-प्रसार हो ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। जहाँ एक धर्म, एक भाषा, एक राज्यीय व्यवस्था, एक संविधान, एक दण्ड-व्यवस्था, एक नीति-नियम, एक ईश्वर, एक पूजा-पद्धति हो ऐसा एक आदर्शरूप विश्व के निर्माण के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। आईये! इस प्रकार हम अपने व्यक्तिगत स्तर से लेकर विश्वस्तरीय व्यवहारों को समझें और कर्तव्यों का ठीक-ठीक सम्पादन करते हुए अपने जीवन के साथ-साथ विश्व के प्राणिमात्र के जीवन को भी सुखमय बनायें।     लेख प्रस्तुतिकर्ता – आचार्य नवीन केवली

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