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मोक्ष की आड़ में जननी माँ को कैसी दुत्कार!

उत्तर प्रदेश के मथुरा में स्थित वृंदावन को कृष्ण की नगरी माना जाता है। वह वृन्दावन जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण जी का बचपन बीता था। लेकिन अब श्रीकृष्ण जी की आस्था का स्थल वह वृंदावन विधवाओं का शहर बन चूका है। हाल ही में भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जी सपरिवार उत्तर प्रदेश के वृंदावन गये थे। यहां राष्ट्रपति जी ने गरीब और बेसहारा माताओं से मुलाकात की। अपने अनुभव और दुख-दर्द साझा करते समय बुजुर्ग माताओं के आंसू छलक पड़े। इस दौरान राष्ट्रपति भी भावुक हो गए। राष्ट्रपति जी ने अपने संबोधन में कहा कि समाज से जो तिरस्कार इन माताओं को मिला है, उसे बदलने की जरूरत है।

हालाँकि साल 2016 वृंदावन की बेसहारा और विधवा महिलाओं की दयनीय स्थिति पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जाहिर की थी। इन महिलाओं के साथ जिस तरह से व्यवहार किया जाता है उस पर कोर्ट ने राष्ट्रीय महिला आयोग को भी इस मामले की विस्तृत रिपोर्ट पेश करने को कहा था। तब सुप्रीम कोर्ट ने पूछा था, ‘आखिर क्यों विधवा हो जाने पर लड़कियों के घर वाले उन्हें विधवा आश्रम भेज देते हैं?”

आप वृन्दावन जाइये, आपको सड़कों के किनारे विधवाओं की टोली देखने को मिलेगी। ये अधिकांश उम्रदराज विधवाएं है, जो जीवन के एक यंत्रणा चक्र से गुजर रही है। चाहे वो यहाँ का प्रसिद्ध बांकेबिहारी मंदिर के आसपास का इलाक़ा हो या इस्कॉन मंदिर का इलाक़ा आपको माथे पर तिलक लगाए सैकड़ों उम्रदराज़ विधवाएँ नज़र आ जाएंगी।

यहाँ आई सभी विधवाएं वैसे तो कृष्णभक्त हैं लेकिन इनमें से बहुत सी विधवाएं ऐसी हैं जो स्वेच्छा से यहां नहीं आईं हैं। इनमें कुछ मोक्ष के नाम पर यहाँ छोड़ दिया गया है। कुछ घर से निकाली गयी हैं। कुछ अकेले होने के कारण या घरवालों के ख़राब बर्ताव से परेशान होकर यहां आईं। इनमें से किसी के बच्चें करोडपति है तो किसी के बच्चें बड़े अधिकारी। अधिकांश विधवाएं गरीब भी है, जो नेपाल और बंगाल से यहाँ आई हुई है या कहो छोड़ दी गयी है। ज़्यादातर विधवाओं के परिवार में या तो कोई सदस्य नहीं बचा है या फिर उनके परिवार वाले उनकी देखभाल करने के लिए तैयार नहीं हैं।

सैकड़ों की तादद में ये विधवाएं विभिन्न आश्रमों और मंदिरों में भजन-कीर्तन करती हैं और इसके एवज़ में उन्हें शाम को कुछ भोजन मिल जाता है। भजन-कीर्तन, सरकारी पेंशन जैसे आय के साधनों के बावजूद कुछ विधवाओं को आर्थिक तंगहाली के कारण पेट पालने के लिए भीख मांगनी पड़ती है।

83 साल की सरस्वती जिंदगी का आखिरी पड़ाव वृंदावन में काट रहीं हैं. सरस्वती के दो बेटे है। गांव में अच्छी खासी प्रॉपर्टी है। दिल्ली में दो मकान और एक होटल है। सरस्वती बताती हैं कि एक रोज बेटा-बहू और नाती वृंदावन घुमाने लाए। एक आश्रम में बात कर फटे-पुराने कपड़ों के साथ यहीं छोड़ गए। वो पीछे दौड़ी, रोई-गिड़गिड़ाई कि साथ ले चलो। वहां घर का सारा काम करूंगी। लेकिन बेटा बोला- कुछ दिन रह लो मां, जल्दी लेने आऊंगा। लेकिन डेढ़ साल बीत गया, किसी ने सुध नहीं ली। गालों पर लुढ़क आए आंसुओं को पोंछती है, फिर मुस्कुराने की पुरजोर कोशिश हुए कहती हैं कि बेटा सब किस्मत का खेल है।

किसी भी देश की तरक्की उस देश का विकास वहां की चोडी सड़कें, पुल ऊँची बिल्डिंग से नहीं आँका जाता। बल्कि पैमाना ये है कि उस देश के बुजुर्ग किस हालात मैं है। सामाजिक विकास कितना हुआ। भले ही आम भारतीय वृन्दावन जाते है। मंदिरों में प्रसाद चढाते है, परिक्रमा करते है। लेकिन विदेशी सैलानी यहाँ आकर इस विधवाओं पर डेकूमेनटरी बनाकर ले जाते है और दुनिया को बताते है देखिये है भारत!

हमारे धनाढ्यों, धर्मगुरुओं एवं सामाजिक सेवा के नाम पर दुकानें चलाने वाले लोगों के श्रद्धाभाव के पीछे छिपे इन खौफनाक दृश्यों से भले ही हमारा प्रशासन, मीडिया, समाज एवं धर्म आंखें मूंद ले, लेकिन विदेशी मीडिया में यह सब बार-बार सुर्खियों में आता रहता है, जो हमारी धार्मिकता, हमारी सामाजिकता, हमारी परोपकारिता को तार-तार कर देता है।

इन महिलाओं के चेहरे पर दर्द की इन्तहा है फिर भी चेहरे पर उफ्फ नहीं। सालों साल से सामाजिक भेदभाव का दंश झेला। वक्त की मार और अपनों की बेरुखी देखी। पेट भरने की खातिर भीख मांगनी पड़ी। आश्रम में भजन करने के बदले चंद रुपये मिलते है, लेकिन इसके लिए पुजारियों के हाथ-पैर जोड़ने पड़ते ताकि भजन-कीर्तन में उनका नंबर आ सके। इस सबके बावजूद मुख सिर्फ राधे-राधे का जाप करता है। शिकायत का एक लफ्ज नहीं बोलता है। वे जिंदगी में झेले हर दर्द का दोष भी अपनी किस्मत पर मढ़ देती हैं।

इतना ही नहीं पिछले दिनों सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक ने एक स्थानीय अख़बार में छपी ख़बर के हवाले से कहा था कि विधवाओं के जीवन का सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि उनकी मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार नहीं किया जाता। उनके शव को यमुना में फेंक दिया जाता है।

यानि विधवा महिलाओं की यह दुर्दशा वृंदावन के नाम पर एक कलंक बनता जा रहा है। जिस धर्म नगरी की कुंज गलियों में जहां कभी योगेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा नारी को गोपियों के रूप में सम्मानित एवं गौरवान्वित करने की कहानी गूंजती रही है, उस पुण्य धरा पर नारी के शोषण, उपेक्षा एवं कष्टों का होना विडम्बनापूर्ण एवं त्रासदी से कम नहीं है। वे भीख मांगने के लिए मजबूर इसलिए हैं क्योंकि उनका अपराध बस इतना है कि वे विधवा हैं।

आज के वृंदावन की गलियों अगर कुछ नजर आता है तो बस इन विधवाओं का दर्द, इनकी पीड़ा, इनका त्रासद जीवन। अगर कुछ सुनाई देता है इन विधवाओं के मुंह से निकले कृष्ण के भजन, जिसे सुनकर आने-जाने वाले लोग उन्हें भीख दे जाते हैं। बरसों से यह बात सार्वजनिक जानकारी में है कि घर-परिवार और नाते-रिश्तेदारों द्वारा दुत्कार दी गयी, उपेक्षा की शिकार ये विधवा स्त्रियां यहां किस बेचारगी में गुजारा करती हैं। दुनिया में इनका कहीं कोई और ठिकाना नहीं होता, कोई इनकी खोज-खबर लेने वाला नहीं होता, इसलिए हर कोई इनके शोषण को तैयार बैठा रहता है। यहां की हर विधवा स्त्री की दुखभरी कहानी है। किसी का बेटा उन्हें मारता था तो किसी की बहू उन्हें खाना नहीं देती थी। यहां रहते हुए इन्हें लगता है कि  काश मैं संतानहीन होती, क्योंकि ऐसी औलाद से तो बांझ कहलाना ज्यादा अच्छा है।

ये सवाल किसी सरकार से नहीं है ये सवाल किसी नेता या अधिकारी से नहीं। सवाल उन लोगों से है जिन्होंने इन माताओं के आँचल में लिपटकर दूध पिया, चलना सीखा और अंत में इतनी तेज चले कि अपनी जिम्मेदारी को अपनी माओं यहाँ सड़कों पर भीख मांगने के लिए लाचार छोड़ गये। शुक्र भारत के राष्ट्रपति जी का जिन्होंने इस विषय को अपने संबोधन में उठाया। अब सरकार को चाहिए कि आज सड़कों पर घुमती इन विधवा माताओं के ऐशो आराम भोगते उन बच्चों को दण्डित करने का कानून लेकर आये, जो जिन्होंने उमर इस पड़ाव में इन जर्जर जिन्दा शरीरों को हजारों की संख्या में वृन्दावन की सड़कों पर भीख मांगने के लिए छोड़ दिया। आखिर इन विधवा महिलाओं का ही शोषण क्यों? विश्वास की धरती में दरारें क्यों?  इन्हें निश्चित रहने का आश्वासन कौन देगा? इनकी अपेक्षाओं को भरने वाला दीया कौन जलाएगा? और अविश्वास की दरारों को फटकार उसके विश्वास को आधार कौन देगा? ऐशो आराम भोगते इनके बच्चों को सजा कौन देगा?

Rajeev Choudhary

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