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यही देश की आध्यामिक गरीबी है

आमतौर पर गरीबी की परिभाषा यही समझी जाती है कि जिनके पास धन दौलत गाड़ी बंगले नहीं और मेहनत मजदूरी करने के बाद भी अपना जीवन यापन सही ढंग से नहीं कर पाते वो गरीब लोग होते है। माना जाता है ये सब चीजें हमारे रहन-सहन से जुडी होती है। इसे आर्थिक तंगी भी कहा जाता है। इस तंगी पर समाज शास्त्री राजनेता और सरकारें अपनी चिंता भी प्रकट करती है और इससे निपटने के लिए योजनाओं का निर्माण भी किया जाता रहा है। ताकि लोग समाज में बराबर हो उनका सशक्तिकरण हो और समाज को नई ऊंचाई प्रदान हो।

किन्तु एक गरीबी और भी हमें खाएं जा रही है वह है धार्मिक, आध्यात्मिक गरीबी यानि अभी भी लोग धर्म और भगवान बदल बदलकर देख रहे है ताकि उन्हें सब कष्टों से छुटकारा मिल जाये। चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़ें। जैसे अभी हाल ही की घटना देखें तो बिहार के गया जिले में डोभी थाना क्षेत्र के साहपुर गाँव में एक परिवार के द्वारा धर्म परिवर्तन कर ईसाई पंथ अपना लिया। जब उससे इसका कारण पूछा तो उसनें बताया कि हम लोग पहले बहुत परेशान थे, घर में भूत प्रेत का वास था सभी देवताओं की पूजा की लेकिन कोई भी फायदा नहीं हुआ तब हम लोग पंथ परिवर्तन कर लिए।

इसे आध्यात्मिक गरीबी कह सकते है क्योंकि इस परिवार के मुखिया संजय मांझी की माने तो भगवान सिर्फ हमारे आर्थिक फायदे और कथित भूत-प्रेत भगाने के लिए है। परिवार के मुखिया को कर्म पर विश्वास न होकर चमत्कार पर विश्वास ज्यादा हो गया था। इसी कारण पहले उसने अलग-अलग भगवानों की परीक्षा ली और फिर इस परीक्षा में पंथ ही बदल डाला। हो सकता है कुछ दिन बाद इसे भी छोड़ दे।

असल में देखा जाये तो पिछले तीन हजार सालों से जब लोगों ने वैदिक मान्यताओं को छोड़कर अंधविश्वास पाखंड और चमत्कारों में विश्वास करना शुरू किया तो तब से यह आध्यात्मिक गरीबी प्रवेश कर गयी थी। झूठ का सहारा लिया गया, गीता के साथ बाइबिल की तुलना की। यूरोप के लोगों को गौरवमंडित किया। लोग राजनितिक तौर पर तो गुलाम थे, आर्थिक रूप से गरीब थे, साथ ही हमारे धर्मग्रंथो में छेड़छाड कर आध्यामिक रूप से भी गरीब बना डाला। शर्म का विषय यह भी है कि इस काल खंड में हमारे धर्मगुरुओं ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया बल्कि अपने निजी स्वार्थ और अर्थ लाभ के लिए मिलावटी झूठ को ही स्वीकार कर लिया। जिसका लाभ आज ईसाई मिशनरियों द्वारा बखूबी उठाया जा रहा है। जबकि जीसस के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह मांसहारी थे, शराब पीते थे क्या यह सब करने वाला कोई इन्सान धर्म और ध्यान की ऊंचाई को पा सकता है? बस यही उनके महापुरुष होने पर सवाल उठता है कि जो इन्सान अपने पेट की भूख मिटाने के लिए जो अपने कथित पिता के बनाए जीवों पर रहम न करता हो वह कैसे भगवान का पुत्र हुआ?

बावजूद इन उत्तरों के जीसस के अनुयायी जीसस की चमत्कारों से भरी कहानियाँ भारत के गरीब पिछड़े इलाकों में परोस रहे है। उन कहानियों में जीसस पानी पर चलता हैं, बादलों में उड़ता है हवाओं में तैरता हैं और मुर्दों को जिन्दा करता हैं। क्या जीसस के अनुयायी मिशनरी जवाब दे सकते है कि अगर जीसस पानी पर चलता था तो वेटिकन के पोप को किसी छोटे-मोटे तालाब या स्वीमिंग पूल पर चलकर दिखा देना चाहिए। किसी चर्च के पादरी को दो चार फिट हवा में तैरकर दिखा देना चाहिए ताकि लोगों को पता चले कि ये जीसस के प्रतिनिधि है। क्योंकि बाइबिल कहती है जो जीसस पर विश्वास करेगा वो जीसस से ज्यादा चमत्कार करेगा। क्या आज ये समझा जाये कि पोप से लेकर दुनिया भर के पादरी जीसस पर विश्वास नहीं करते? किन्तु दुखद बात है कि आध्यामिक रूप से गरीब भारत का एक तबका यह बात समझ नहीं पा रहा है और इन झूठी कहानियों में फंसकर वेटिकन का गुलाम बनता जा रहा है।

ईसाइयों की पुस्तक कहती है कि जीसस ने एक लाश को जिन्दा किया जिसका नाम लजारस था। भला सोचने की बात है लोग तो रोज मरते थे, जीसस के सामने उनके परिवार के लोग मरें, खुद उन्हें भी सूली पर टांग दिया सिर्फ एक को जिन्दा किया और जिसे जिन्दा किया वह उनका खास मित्र लजारस था। लेकिन इसके बाद भी लोग सोचना समझना नहीं चाहते। जो कोई कुछ भी कह देता है उसी पर विश्वास कर लेते है। इनकी इस नासमझी का लाभ वो बड़े मजे से उठाते है। इसी कारण ईसाई मिशनरीज के चेहरों पर मुस्कान छा जाती है। और इन्हें धार्मिक शिकार बनाया जाता है। इन्हें बताते है कि जीसस के कारण तुम्हारी दरिद्रता दूर तुम्हारा दुःख दूर हो सकता है। लेकिन लोग भूल रहे है कि आज भी अमेरिका और यूरोप में लाखों भिखारी है भला जो दुनिया के दूसरे देशों में जाकर गरीबों को ईसाई बनाने में लगे है वो अपने भिखारियों के लिए कुछ भी नहीं कर पाए, न जीसस उनकी दरिद्रता दूर कर पाया न मरियम। शायद यही कारण है कि अब यूरोप के लोग गिरजाघरों से दूर भाग रहे है।

देखा जाये तो आज ईसाईयत पुराने कपड़ों की तरह हो गयी पहले यूरोप और अमेरिका के लोगों ने पहनी आज जब वह मैली हो गयी तो एशियाई देशों में बांटी जा रही है। पहले ईसाइयत के माध्यम से जीसस से उनके दुखड़े दूर करने के प्रलोभन दिए जाते है। फिर इन गरीबों का भार देश के सरकार पर डालते हुए इनके लिए आरक्षण इत्यादि की मांग करने लगते है। मसलन पहले इनकी गरीबी का कारण हिन्दू धर्म होता है और जब ये धर्मान्तरित हो जाते है तब इनकी दरिद्रता का कारण सरकारे हो जाती है ताकि जीसस को बचाया जा सके, उसकी भगवत्ता पर कोई सवाल न उठ सके। बस यही एजेंडा देश में चल रहा है और संजय मांझी जैसे लोग अशिक्षा के कारण ईसाईयत का यह प्याला पी रहे है, यही देश की आध्यामिक गरीबी है। क्योंकि जिस जीसस को ये लोग ईश्वर समझ रहे है वह ईश्वर नहीं है। और जो ईश्वर है उसका इन्हें पता ही नहीं कि वह एक निराकार शक्ति है जो समस्त ब्रह्माण्ड को संचालित कर रही है।

राजीव चौधरी 

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