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राजा अपनी प्रजा की रक्षा कैसे करें

वेद के अनेक मन्त्र स्पष्ट संकेत देते हैं कि राजा का चुनाव प्रजा अपने में से किसी योग्य व्यक्ति को चुनकर करे. योग्य व्यक्ति भी एसा हो जिस के पास अतुलित साहस प्रेम, शक्ति आदि हो. वह सब से प्रेम करने वाला, सब का आदर करने वाला हो, सब प्रकार की प्रशस्तियों को पाने की उसमें शक्ति हो, प्रजा को अपनी संतान के सामान स्नेह देने वाला हो तथा शत्रुओं से सब की रक्षा करने में सक्षम हो. इस तथ्य का प्रकाश हमें महाभारत के शान्ति पर्व के अंतर्गत राजधर्म पर्व के अध्याय १६ में भी किया गया है द्य इस अध्याय के श्लोक संख्या ४४,४५ तथा ४६ अवलोकनीय हैं.  जो इस प्रकार हैं :-

                 भवितव्यं  सदा  राजा, गर्भिणी  सह  धर्मीणा|

                 कारणं  च  महाराज,  शणु  येनेदमिष्यते   ||४४||

                 यथा हि गर्भिणी  हितय, स्वंप्रिय  मनसोनुगम्|

                 गर्भस्य हितामाधत्ते, तथा  राज्ञाप्यसंशसम्   ||४५||

                 वर्तीतव्यं   कुरुश्रेष्ठ ,  सवा   ध्रर्मनुवर्तिना    |

                 स्वंप्रियं तू परित्यज्य, यद् यात्लोकहितं भवेत् ||४६||

||महाभारत शांतिपर्व राजधर्म पर्व अ.१६ श्लोक ४४,४५,||

            महाभारत का ये श्लोक कहते है कि प्रत्येक राजा को गर्भिणी माता के समान होना चाहिए क्योंकि सम्पूर्ण देश, सम्पूर्ण राज्य उसके अंतर्गत आने के कारण उसकी प्रजा भी उसके अन्दर ही आ जाती है. इसलिए यह राज्य की सीमा उसकी गर्भ होती है तो प्रजा उसके गर्भ में निवास करने वाले शिशु के ही समान होती है. जिस प्रकार माता अपने मन के सब भावों को छोड़कर केवल और केवल अपने गर्भस्थ शिशु का ही ध्यान करती है. उसके हित को ही अपना हित मानती है. माता अपने गर्भ में पल रहे बालक के सुख सुविधा का सदा ध्यान रखती है, उसके भरण पौषण की व्यवस्था करती है. अपने गर्भ में पल रहे शिशु को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देती तथा इस अवस्था में शिशु का कष्ट उसका अपना कष्ट होता है. अब उस के जीवन का केवल एक ही उद्देश्य रह जाता है और वह होता है उस के गर्भ में पल रहे शिशु को सुरक्षित रखना, उसे किसी प्रकार के रोग और क्लेश से दूर रखना तथा उसकी रक्षा के लिए अपने कष्ट की भी चिंता न करना आदि.

       राजा जब अपनी प्रजा को अपनी गर्भ में धारण कर लेता है, उसे अपनी गर्भ के शिशु के समान समझता है तो वह भी इस प्रजा की रक्षा को अपना प्रमुख कर्तव्य समझता हुआ, उस के लिए वह सुखों की व्यवस्था करते हुए उसके कष्टों को अपना कष्ट समझता हुआ उसके सुखों का विस्तार करने के लिए अपने राज्य में उत्तम शिक्षा की व्यवस्था करता है, उसके लिए रोगावस्था में उपचार के लिए औषधालय की एसी उतम व्यवस्था करता है कि जिस में सब प्रकार की दवाइयां निरूशुल्क अथवा नाममात्र के मूल्य पर मिलती हों. बुरे लोगों से रक्षा के लिए पुलिस थानों की व्यवस्था करता है. किसानों की सहायता करते हुए उन्हें अधिक से अस्धिक व उत्तम प्रकार के अनाजों की उत्पति के लिए उन्हें प्रात्साहित करता है. किसानों द्वारा उत्पन्न किए गए इस धान्य को जन जन तक पहुंचाया जावे, इसके लिए वह उत्तम मंडीकरण की तथा उतम व्यापारियों की व्यवस्था करता है और यदि कभी किसी प्रकार की कमी अनुभव हो, अभाव अनुभव हो, तो विदेश से भी इस सामग्री का आयात करता है.

       किसी विदेशी शत्रु के आक्रमण की आशंका होने पर वह अपने राज्य में सदा ही उतम सैनिकों की व्यवस्था करता है, जो शत्रु को मार भगाने में सक्षम हों. इस प्रकार वह अपनी प्रजा को धन धान्य संपन्न करने में ही अपनी खुशी अनुभव करता है. इस प्रकार के सब कार्य ठीक उस प्रकार ही होते हैं जिस प्रकार गर्भस्थ माता अपने गर्भ में पल रहे शिशु के लिए किया करती है. इसलिए ही कहा गया है कि राजा अपनी प्रजा का पालन गर्भस्थ शिशु के सामान करता है.

        राजा अपने सब आमोद प्रमोद को त्याग देता है, अपने कष्टों की चिंता नहीं करता. अब वह केवल और केवल जनहित को ही अपना हित मानता है तथा सदा ही जनहित के कार्यों में लगा रहता. जनहित ही उसका प्रमुख कर्तव्य होता है, जनहित ही उसका कार्य होता है तथा जनहित ही उसका व्यापार होता है. इस कार्य में जितनी उसे सफलता मिलती है, उतनी ही वह प्रसन्नता अनुभव करता है तथा उतना ही यश उसे सब और से मिलता है. इस कारण हित कारक कर्मों के कारण ही उसका यश बढ़ता है, उसकी कीर्ति दूर दूर तक जाती है. इस यश और कीर्ति को ही वह प्राप्त करने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है क्योंकि वह जानता है कि राजा की सफलता का कारण उसकी यश और कीर्ति ही होती है जो उसे प्रजा प्रेम से ही मिलती है. इसलिए वह इस प्रकार के कार्य करता है जिस से प्रजा उससे अधिकाधिक प्रेम करे तथा उसके यश की सर्वत्र चर्चा करे.

         राजा गर्भिणीवत व्यवहार करे इस बात की चर्चा यजुर्वेद के मन्त्र संख्या १२.२३ में भी बहुत ही सुन्दर की गई है. जब राजा वेदानुसार प्रजा का पालन करेगा तो निश्चय ही उस का यश बढेगा, उसकी कीर्ति बढ़ेगी यश और कीर्ति बढ़ेगी तथा वह अपने पद पर एक लम्बे अंतराल तक स्थिर रहेगा….डॉ अशोक आर्य

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