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वैदिक साहित्य में विश्वकर्मा का स्थान – विश्वकर्मा पूजा

वैदिक वाडमय में विश्वकर्मा शब्द का व्यापक अर्थ है। यह शब्द गुणवाचक है व्यक्तिवाचक नहीं। अतः शब्द से किसी निश्चित विश्वकर्मा का ज्ञान न होकर अनेक विश्वकर्माओं का ज्ञान होता है। तद्यथा-सृष्टि रचयिता परमपिता परमात्मा, शिल्पशास्त्र के अविस्कार व सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता ऐतिहासिक महापुरुष विश्वकर्मा तथा सूर्य, वायु, अग्नि, पृथ्वी व वाणी आदि जड़ चेतन रूप से अनेक विश्वकर्मा हैं।

विश्वकर्मा वेद का शब्द है। यह वेद से लेकर ही लोक में प्रयुक्त हुआ। हमें दशरथनन्दन राम, योगिराज कृष्ण व शिल्पशास्त्र के ज्ञाता विश्वकर्मा आदि महापुरुषों का मानवीय इतिहास ऐतिहासिक ग्रंथों में ही ढूंढ़ना चाहिए वेद में नहीं।

वेद के विश्वकर्मा शब्द से ज्ञान परमपिता परमात्मा, उसके द्वारा सूर्य, वायु, अग्नि आदि विश्वकर्मा व ऐतिहासिक महापुरुष शिल्पशास्त्र के ज्ञाता विश्वकर्मा ये समस्त ही विश्वकर्मा हमारे जिज्ञास्य हैं, हम इन्हें  जानने का समुचित प्रयत्न करें। निरूक्तकार महर्षि यास्क विश्वकर्मा शब्द का यौगिक अर्थ लिखते हैं। ‘‘विश्वानि कर्माणि येन यस्य वा स विश्वकर्मा अथवा विश्वेषु कर्म यस्य वा स विश्वकर्मा, विश्वकर्मा सर्वस्य कर्ता’’ जगत के सम्पूर्ण कर्म जिसके द्वारा सम्पन्न होते हैं अथवा सम्पूर्ण जगत में जिसका कर्म है वह सब जगत् का कर्ता विश्वकर्मा है। विश्वकर्मा शब्द के इस यथार्थ अर्थ के आधार पर विविध कला कौशल के आविष्कार यद्यपि अनेक विश्व कर्मा सिह् हो सकते हैं। तथापि सर्वाध्रर सर्वकर्ता परमपिता परमात्मा ही सर्व प्रथम विश्वकर्मा है। ऐतरेय ब्रा२णग्रन्थ के मतानुसार ‘प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा विश्वकर्मा∑भवत्’ प्रजापति परमेश्वर प्रजा को उत्पन्न करने से सर्वप्रथम विश्वकर्मा है। वेद में परमेश्वर के विश्वकर्त्व अद्भुत व मनोरम चित्रण विश्वकर्मा नाम लेकर अनेक स्थानों पर किया गया है। सृष्टि का मुख्य निर्माण कारण रमात्मा ही है। वही सब सृष्टि को प्रकृति से बनाता है, जीवात्मा नहीं। इस कारण सर्वप्रथम विश्वकर्मा परमेश्वर है। परमेश्वर ने जगत् को बनाने की सामग्री प्रकृति से सृष्टि की रचना की है एतद्विष्यक निम्नलिखित मंत्र द्रष्टव्य है।

किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत्स्वित्कथासीत् । यतो भूमिं जनयन्विश्वकर्मा वि द्यामौर्णोन्महिना विश्वचक्षा। ऋ १०/७१/२

अर्थात् जगत को उत्पन्न करने में कौनसा अधिष्ठान था। इसे आरम्भ करने का कौनसा मूल उपदानकारण जगत को बनाने की सामग्री थी कि जिससे विश्वकर्मा परमेश्वर ने भूमि और द्यौलोक को अत्यंत कौशल से उत्पन्न किया। सर्वद्रष्टा परमेश्वर ही अपने महान् ज्ञानमय सामथ्र्य से प्रकृति को गति देकर विकसित करके सृष्टि की रचना करता हैं उसके विश्वकर्मात्व को देखकर बड़े-बड़े विद्वान आश्चर्य करते हैं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी परमेश्वर की सृष्टि रचना का वर्णन सत्यार्थ प्रकाश से निम्नलिखित शब्दों में करते हैं-“देखो! शरीर में किस प्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है कि विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ों का जोड़, नाडि़यों का बंधन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन प्लीहा, यकृत, फेफड़े, पंखा कला का स्थापन, जीव का संयोजन शिरोरूप मूल रचना, लोम नखादि स्थापन, आ°ख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत ग्रन्थन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन, जीव के जागृत, स्वप्न, सुषुप्ती अवस्था के भोगने के लिए स्थान विशेषों का निर्माण, सब ध्तु का विभागकरण, कला, कौशल स्थापनादि अद्भुत सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है? इसके बिना नाना प्रकार के रत्नध्तु से जडि़त भूमि, विविध प्रकार वटवृक्ष आदि के बीजों में अतिसूक्ष्म रचना, असंख्य हरित, श्वेत, पीत, कृकृष्ण चित्र मध्य रूपों युक्त पत्र, पुष्प, फल, अन्न, कन्दमूलादि रचना अनेकानेक छोड़ो भूगोल, सूर्य चनर्दि लोक निर्माण, ध्रण, भ्रमण नियमों से रखना आदि परमेश्वर के बिना कोई भी नहीं कर सकता।” इस प्रकार वेद व सृष्टि की रचना का अद्भुत सामथ्र्य केवल परमेश्वर का है। इसलिए सर्व प्रथम विश्वकर्मा वही है। परमेश्वर के अनन्त गुण, कर्म स्वभाव होने से उसके विश्वकर्मा नाम की भांति सच्चिदानन्द निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु व सृष्टिकर्ता आदि अनन्त नाम हैं किन्तु उसका मुख्य नाम ‘ओझ्म्’ है, यह ध्यान रखना चाहिए।

विश्वकर्मा परमेश्वर ने जगत में अनेक पदार्थ रचे हैं। उन पदार्थों में परमेश्वर ने जितने-जितने दिव्यगुण स्थापित किये हैं उतने-उतने ही दिव्यगुण हैं, न उससे अधिक और न न्यून। उन दिव्यगुणों के द्वारा विश्व में अपना-अपना कर्म करने से अग्नि, सूर्य आदि जड़ पदार्थ भी विश्वकर्मा कहलाते हैं। शतपथ ब्रा२णग्रन्थ में ‘विश्वकर्मायमग्निः’ वाक्य से अग्नि को विश्वकर्मा कहा है। गोपथ में ‘असौ वै विश्वकर्मा यो∑सौ सूर्यः तपति’ कहकर विश्व को प्रकाशित करने के कर्म से सूर्य को विश्वकर्मा कहा है। वैदिक साहित्य में इसी प्रकार से वायु, पृथ्वी व वाणी आदि तीनों लोकों के अनेक वैदिक पदार्थों को विश्वकर्मा शब्द से व्यक्त किया गया है। हमें इन पदार्थों के दिव्य विश्वकर्मत्व को जानकर विद्या, विज्ञान की वृह् िकरनी चाहिए। सृष्टि के आरम्भकाल में मनुष्य के पास नामकरण के कोश के रूप में केवल वेद थे। जिस प्रकार परमेश्वर ने सृष्टि के पदार्थों का नामकरण वेदों से ही शब्द लेकर किये हैं। महर्षि मनु जी का भी यही मन्तव्य है। इसी प्रकार का एक नाम प्राचीन इतिहास में विश्वकर्मा भी है। प्रतीत होता है कि अद्भुत कला कौशल्य के व्यवस्थापक विश्वकर्मा जी राजा इक्ष्वाकु के समय में हुए थे। इसका दिग्दर्शन महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अपने इतिहास विषयक आठवें पूना प्रवचन के निम्न शब्दों से होता है। ‘‘स्वायम्भुव मनु का पुत्र मरीचि यह

प्रथम क्षत्रिय राजा हुआ। इसके पश्चात् हिमालय के प्रदेश में छः क्षत्रिय राजाओं की परम्परा हुई। अनन्तर इक्ष्वाकु राजा राज्य करने लगा। कला कौशल्य की व्यवस्था करने वाला विश्वकर्मा नामक एक पुरुष हुआ। विश्वकर्मा परमेश्वर का भी नाम है और एक शिल्पकार का भी था। अस्तु, विश्वकर्मा ने विमान की युक्ति निकाली। फिर विमान में बैठकर आर्य लोग इधर-उधर भ्रमण करने लगे। मानव जाति के पूज्य शिल्प प्रजापति विश्वकर्मा जी शिल्पशास्त्र के अविष्कर्ता व ज्ञाता थे। भारत के वास्तु कला के ज्ञाता, शिल्प कला के विद्वान, पण्डित, इन्जीनियर आदि उन्हें अपना आदर्श व शिल्प विद्याजगत में अपना आदि पुरुष मानते हैं जो ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य है। वे विमान आदि की नियुक्ति निकाल कर शिल्पविद्या के प्रथम आविष्कारक बने। प्रतीत होता है कि तदनन्तर विश्वकर्मा शब्द उपाध्ाि के रूप प्रयुक्त होने लगा। जो नवीन-नवीन शिल्पविद्याओं के आविष्कारक महान् विद्वान विशेष दक्ष होते थे, वे विश्वकर्मा पदवी को ध्ाारण करते थे। लंका का निर्माण व पांडवों का सभागार विश्वकर्मारचित हैं, किन्तु समय की दूरी से निश्चित ही ये विश्वकर्मा पृथक्-पृथक हैं। जिन भुवनपुत्र मंत्रद्रष्टा ऋषि ने विश्वकर्मा विषयक मंत्रों का दर्शन करने पर अपना नाम भी तदनुरूप विश्वकर्मा भौवनः रख लिया वे मंत्रदृष्टा ऋषि विश्वकर्मा, ऐतिहासिक शिल्पी विश्वकर्मा जी से पृथक् हैं। इस प्रकार सृष्टि रचयिता परमात्मा, उसके द्वारा रचित सूर्य आदि वैदिक पदार्थ व ऐतिहासिक शिल्पी विश्वकर्मा को पृथक्-पृथक् समझते हुए शिल्पी विश्वकर्मा से शिल्प कौशल से शिक्षा लेकर विद्वानों को जगत में शिल्पविद्या की वृह् िकरना चाहिए।

– आचार्य रामज्ञानी आर्य मन्त्री, जिला आर्य सभा देवरिया लार चैक, लार-देवरिया ;उ.प्र.द्ध