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चिकित्‍सक आरोग्‍य प्रदान करें

शरीर-इन्‍द्रिय-मन और आत्‍मा के संयोग का नाम आयु है आयु की रक्षा का ज्ञान कराने वाले ग्रन्‍थ का नाम ‘आयुर्वेद’ है।
हिताहितं सुख दु:खमायुस्‍तस्‍य हिताहितम्। मानं च तच्‍च यत्रोक्‍तमायुर्वेद: स उच्यते।।
चरक. सू. १.४१

अर्थ-(सृण्‍या इव) दरांती के समान ये दोनों कार्य चिकित्‍सक और शल्‍य चिकित्‍सक जिनमें एक (जर्भरी) पथ्‍य, परहेज, औषध द्वारा शरीर के बल को स्‍थिर रखता है और दूसरा (तुर्फरीतू) जब कोई रोगी हुआ अंग गल-सड़ जाये तब (नैतोशेव) तीक्ष्ण शस्‍त्र से उसकी शल्‍य-क्रिया करता है (तुर्फरी पर्फरीका) शस्‍त्रच्‍छेदन और घाव के रोपण में कुशल वैद्य, चिकित्‍सक (उदन्‍यजेव) समुद्र में उत्‍पन्‍न दो मोतियों की भाँति (जेमना मदेरू) रोगों पर विजय पाने से सबकों हर्षित करने वाले (ता मे) वे दोनों मेरे (जरायु) वार्धक्‍य, बुढ़ापे के कारण (मरायु) मृतप्राय: शरीर को (अजरम्) जरा रहित कर दें।

हितकर आयु, अहितकर आयु, सुखदायक आयु और दु:ख देने वाली आयु के लिये पथ्‍य-अपथ्‍य, आयु का मान और स्‍वरूप बातने वाले शास्‍त्र को आयुर्वेद कहते हैं। इसके आठ अंग है-१. काय चिकित्‍सा, २. बाल चिकित्‍सा=कौमार भृत्‍य, ३. ग्रह-भूत चिकित्‍सा (मानसिक रोगों की चिकित्‍सा), ४. ऊर्ध्‍वांग चिकित्‍सा=शालाक्‍य अर्थात् गले से ऊपर के अंगों की चिकित्‍सा, ५. शल्‍य चिकित्‍सा (सर्जरी), ६. विष चिकित्‍सा, ७. जरा चिकित्‍सा-रसायन, ८. वृषचिकित्‍सा=वाजीकरण। इनमें काय चिकित्‍सा उसे कहते हैं जहाँ आहार-विहार, पथ्‍य-परहेज और औषधियों द्वारा जठराग्‍नि को प्रदीप्‍त करना तथा रोगों का निवारण करने का उपाय बताया हो। जैसे चरक संहिता आदि में। शल्‍य चिकित्‍सा-जब कोई अंग इतना विकृत हो जाये कि अन्‍य अंगों को भी रोगी बना दे तब उसका उपाय उसे काटकर शरीर से पृथक् कर देना और शरीर में कोई शस्‍त्र या अन्‍य पदार्थ प्रविष्‍ट हो जाये उसे बाहर निकाल देना।

प्रस्‍तुत मन्‍त्र के देवता ‘अश्‍विनौ’ हैं। कुशल चिकित्‍सक का नाम अश्‍विन् है। ये दोनों काय चिकित्‍सक और शल्‍य चिकित्‍सक रोग से आक्रान्‍त व्‍यक्‍ति की चिकित्‍सा कर उसे आरोग्‍यवान् और जरा-रहित बनायें यह मन्त्र का अभिप्राय हैं।

सृणि=दात्री (दंराती) को कहते हैं। जैसे फसल पक जाने पर किसान लोग दरांती से गेहूँ, चना, चावल, ज्‍वार आदि को काटते हैं और कटी फसल को हाथों में धारण कर उसकी पूलियां बना उन्‍हें बांध देते हैं इसी प्रकार एक चिकित्‍सक रुग्‍ण व्‍यक्‍ति के शरीर पर शल्‍यक्रिया (आपरेशन) कर पीड़ित अंग को बहार निकालने का कार्य करता है और दूसरा घाव से रक्‍त न बहे इसके लिए पट्टी बांधता और घाव को जल्‍दी भरने का औषध देता है। इन दोनों का वर्णन मन्‍त्र में किया है-सृण्‍येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरिका।

जर्भरी पथ्‍य, परहेज, औषध द्वारा शरीर के रोगों को दूर करन वाला वैद्य और तुर्फरीतू शल्‍य चिकित्‍सक (सर्जन) कुशलता से गले सड़े अंग अथवा शरीर में प्रविष्‍ट हुये शल्‍य का आहरण करे और दूसरा काय चिकित्‍सक मरहम-पट्टी, घाव को शीघ्र भरने के लिए औषध प्रदान करे। ये दोनों कुशल चिकित्‍सक उदन्‍यजेव जेमना मदेरू समुद्र से प्राप्‍त दो मोतियों के समान सफल चिकित्‍सक और रोगी को स्‍वस्‍थ बना देने के कारण सबको हर्षित करने वाले हैं।

शल्‍य चिकित्‍सा जिन यन्त्रों, शस्‍त्रों और क्षारसूत्र, तुम्‍बी, श्रृंगी एवं जलौका (जौंक) द्वारा की जाती है उनकी विस्‍तृत सूची ‘सुश्रुत’ और अष्‍टांगहृदय’ में दी गई है।

यन्‍त्र-नाना प्रकार के एवं नाना स्‍थानों को पीड़ित करने वाले शल्‍यों को बाहर निकालने का जो उपाय-साधन है, उसको यन्‍त्र कहते हैं और जो साधन रुग्‍ण अंग को देखने में उपयोगी है वह भी यन्‍त्र है। सब यन्‍त्रों में कंकमुख यन्त्र प्रधान है जो गहराई में, प्रविष्‍ट हो शल्‍य को पकड़ कर बाहर निकला देता है।

शस्‍त्र-पीड़ित, गलित, अंग का छेदन, भेदन, कर्तन, सीना, घर्षण आदि कार्यों के लिये योग्‍य कर्मार से नीली आभा वाले लोहे से बनवाये जाते हैं।

क्षार सूत्र-अर्श बवासीर और भगन्‍दर के लिये औषधियों के लेप से बनाये गये सूत्र

तुम्‍बी, श्रृंगी-पीड़ित स्‍थान पर संचित दूषित रक्‍त को निकालनें के लिये

जलौका-जौंक, यह भी दूषित रक्‍त को निकालने में प्रयुक्‍त होती है। इसी भाँति सिरा वेध, मर्म स्‍थानों पर दागना आदि विविध चिकित्‍सा का वर्णन ‘सुश्रुत’ और ‘अष्‍टांगहृदय’ में दिया गया है।

काय चिकित्‍सा-इसमें रोग, रोगों के कारण, निदान, चिकित्‍सा द्रव्‍य गुण विज्ञान, रसायन, वाजीकरण आदि का समावेश है। चरक-संहिता, वाग्‍भट, माधव-निदान, शार्ड्गधर-संहितादि में इस सम्‍बन्‍धी ज्ञान विस्‍तार से मिलता है।

शल्‍य चिकित्‍सक और काय चिकित्‍सक दोनों की ही उपयोगिता रोगों को दूर करने में है। जहाँ तक हो सके स्‍वस्‍थवृत्त, सद्वत्त अर्थात् उचित आहार-विहार और सामान्‍य औषधियों द्वारा ही काय चिकित्‍सक को चिकित्‍सा करनी चाहिये। चिकित्‍सक का उद्देश्‍य सरलतम पद्धति से रोग को दूर करना है। जैसे यदि फोड़ा मरहम लगाने से ही फूट जाये तो उसके लिये चीरा लगाना और गोली खिलाना उचित नहीं है। मंत्र में चिकित्‍सक को मदेरू अर्थात् हर्षित करने वाला कहा है। आजकल जो शल्‍य चिकित्‍सक भारी-भरकम शुल्‍क लेते हैं, उन्‍हें इस पर विचार करना चाहिये।

अन्‍तिम चरण में कहा है-ता में जराय्वजरं मरायु वे दोनों प्रकार के चिकित्‍सक मेरे बुढ़ापे या रोग के कारण मृतप्राय: शरीर को, जरावस्‍था को हटा मुझे युवावस्‍था जैसा शक्‍ति-सामर्थ्‍य प्रदान करें। आयुर्वेदोक्‍त रसायन, कायाकल्‍प, कुटी प्रवेश आदि अनेक साधनों से वृद्धावस्‍था को पर्याप्‍त समय तक दूर रखा जा सकता है और दीर्घायु की प्राप्‍ति भी की जा सकती है। विस्‍तृत ज्ञान के लिये चरक, सुश्रुत, वाग्‍भट आदि को पढ़ना चाहिये। यहाँ मन्‍त्रानुसार थोड़ा ही परिचय दिया है।      

-स्‍वामी देवव्रत सरस्‍वती

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