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सन्त गुरू रविदास और आर्य समाज

भारत के प्रसिद्ध सन्‍तों में शामिल गुरू रविदासजी ने अपनी अन्‍त: प्रेरणा पर सांसारिक भोगों में रूचि नहीं ली। बचपन में ही वैराग्‍य-वृति व धर्म के प्रति लगाव के लक्षण उनमे प्रकट हुए थे। अध्‍यात्‍म के प्रति गहरी रूचि उनमें जन्‍मजात थी और जब कहीं अवसरimage मिलता तो वह विद्धानों व साधु-सन्‍तों के उपदेश सुनने पहुंच जाया करते थे। उस समय की अत्‍यन्‍त प्रतिकूल सामाजिक व्‍यवस्‍थायें व घर में उनकेआध्‍यात्‍मिक कार्यों के प्रति गहन उपेक्षा का भाव था। बचपन में ही धार्मिक प्रकृति के कारण उनके पिता बाबा सन्‍तोख दास ने उन्‍हें अपने पारिवारिक व्‍यवसाय शू-मेकर का कार्य करने की प्रेरणा की व दबाव डाला। जब इसका कोई विशेष असर नहीं हुआ तो कम उम्र में आयु. लोनादेवी जी से उनका विवाह कर दिया गया। इस पर भी उनकी धार्मिक लग्‍न कम नहीं हुई। वह अध्‍यात्‍म के मार्ग पर आगे बढ़ते रहे जिसका परिणाम यह हुआ कि आगे चलकर वह अपने समय के विख्‍यात सन्‍त बने। सन्‍त शब्‍द का जब प्रयोग करते हैं तो अनुभव होता है कि कोई ऐसा ज्ञानी व्‍यक्‍ति जिसे वैराग्‍य हो, जिसने अपने स्‍वार्थों को छोड़कर देश व समाज के सुधार, उन्‍नति व उत्‍थान को अपना मिशन बनाया हो और इसके लिए जो तिल-तिल कर जलता हो जैसा कि दीपक का तेल चलता है। मनुष्‍य जीवन दो प्रकार का होता है एक भोग प्रधान जीवन व दूसरा त्‍याग से पूर्ण जीवन। सन्‍त का जीवन सदैव त्‍याग प्रधान ही होगा। भोग या तो होंगे नहीं या होगें तो अत्‍यल्‍प व जीवन जीने के लिए जितने आवश्‍यक हों, उससे अधिक नहीं। ऐसे लोग न तो समाज के लोगों व अपने अनुयायियों को ठगते हैं, न पूजीं व सम्‍पत्ति एकत्र करते हैं और न सुविधापूर्ण जीवन ही व्‍यतीत करते हैं। हम अनुभव करते हैं कि इसके विपरीत जीवन शैली भोगों में लिप्‍त रहने वाले लोगों की होती है। ऐसा जीवन जीने वाले को सन्त की उपमा नहीं दी सकती। सन्‍त व गुरू का जीवन सभी लोगों के लिए आदर्श होता है और एक प्रेरक उदाहरण होता है। गुरू व सन्‍तजनों के जीवन की त्‍यागपूर्ण घटनाओं को सुनकर बरबस शिर उनके चरणों में झुक जाता है। उनके जीवन की उपलब्‍ध घटनाओं पर दृष्‍टि डालने से लगता है कि वह धारण व्‍यक्‍ति नहीं थे अपितु उनमें ईश्‍वर के प्रति अपार श्रद्धा की भावना थी व समाज के प्रति भी असीम स्‍नेह व उनके कल्‍याण की भावना से वह समाहित थे। ऐसा ही जीवन गुरू रविदास का था।

      इस लेख के चरित्रनायक सन्त गुरू रविदास का जन्‍म सन् 1377 ईस्‍वी में अनुमान किया जाता है। उनकी मृत्‍यु के बार में अनुमान है कि वह 1527 में दिवगंत हुए। इस प्रकार से उन्‍होंने लगभग 130 वर्ष की आयु प्राप्‍त की। जन्‍म वर्तमान उत्तरप्रदेश के वाराणसी के विख्‍यात धार्मिक स्‍थल काशी के पास गोवर्धनपुर स्‍थान में हुआ था। यह काशी वही स्‍थान है जहां आर्य समाज के संस्‍थापक महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती ने आज से 144 वर्ष पूर्व, सन् 1869 ई. में काशी के सनातनी व पौराणिक मूर्ति पूजकों से वहां के प्रसिद्ध स्‍थान आनन्‍द बाग में लगभग 50,000 लोगों की उपस्‍थिति में काशी के राजा ईश्‍वरी नारायण सिंह की मध्‍यस्‍थता व उनके सभापतित्‍व में लगभग 30 शीर्ष विद्वान पण्‍डितों से एक साथ शास्त्रार्थ किया था। स्‍वामी दयानन्‍द का पक्ष था कि सृष्‍टि की आदि से ईश्‍वर प्रदत्त ज्ञान वेदों में ईश्‍वर की मूर्तिपूजा का विधान नहीं है। काशी के पण्‍डितों को यह सिद्ध करना था कि वेदों में मूर्तिपूजा का विधान है। इतिहास साक्षी है अकेले दयानन्‍द के साथ 30-35 पण्‍डित अपना पक्ष सिद्ध न कर सकने के कारण पराजित हो गये थे और आज तक भी कोई पारौणिक, सनातन धर्मी व अन्‍य कोई भी वेदों से मूर्ति पूजा को सिद्ध नहीं कर पाया। हम एक बात अपनी ओर से भी यहां वह यह कहना चाहते हैं कि सारा हिन्‍दू समाज फलित ज्‍योतिष की चपेट में है। फलित ज्‍योतिष का विधान भी सब सत्‍य विद्याओं की पुस्‍तक चारों वेदो में नहीं है। इसके लिए मूर्तिपूजा जैसा बड़ा शास्‍त्रार्थ तो शायद कभी नहीं हुआ। हो सकता है कि इसका कारण यह मान्‍यता रही हो कि सभी पाखण्‍डों व अन्‍ध-विश्‍वासों का मुख्‍य कारण मूर्तिपूजा है और इसकी पराजय में ही फलित ज्‍योतिष भी मिथ्‍या सिद्ध माना जायेगा। महर्षि दयानन्‍द ने अपने कार्यकाल में फलित ज्‍योतिष का भी प्रमाण पुरस्‍सर खण्‍डन किया। आज जो भी बन्‍धु फलित ज्‍योतिष में विश्‍वास रखते हैं, दूरदर्शन व अन्‍य साधनों से तथाकथित ज्‍योतिषाचार्य प्रचार करते हैं व ज्‍योतिष जिनकी आजीविका है, उन पर यह उत्तरदायित्‍व है कि वह फलित ज्‍योतिष के प्रचार व समर्थन से पूर्व इसे वेदों से सिद्ध करें। फलित ज्‍योतिष सत्‍य इस लिए नहीं हो सकता कि वह ईश्‍वरीय न्‍याय व्‍यवस्‍था व कर्म-फल सिद्धान्‍त ‘अवश्‍यमेव हि भोक्‍तव्‍यं कृतं कर्म शुभाशुभं (गीता) में सबसे बड़ा बाधक है। ईश्‍वर के सर्वशक्‍तिमान होने से यह स्‍वत: असत्‍य सिद्ध हो जाता है। सब सत्‍य विद्याओं के आकर ग्रन्‍थ वेदों में यदि फलित ज्‍योतिष का विधान नहीं है तो इसका अर्थ है कि फलित ज्‍योतिष सत्‍य विद्या न होकर काल्‍पनिक व मिथ्‍या सिद्धान्‍त व विश्‍वास है। हम समझते हैं कि गुरू रविदास जी ने अपने समय में वही कार्य करने का प्रयास किया था जो कार्य महर्षि दयानन्‍द ने 19वीं शताब्‍दी के अपने कार्यकाल में किया था। इतना अवश्‍य कहना होगा कि महर्षि दयानन्‍द का विद्या का कोष सन्‍त रविदास जी से बड़ा था जिसका आधार इन दोनों महापुरूषों की शिक्षायें व महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती के सत्‍यार्थ प्रकाश, वेदभाष्‍य सहित ऋग्‍वेदादि भाष्‍यभूमिका, संस्‍कार विधि, आर्याभिविनय व अन्‍य ग्रन्‍थ हैं। कभी कहीं किंहीं दो महापुरूषों की योग्‍यता समान नहीं हुआ करती। लेकिन यदि कोई व्‍यक्‍ति अन्‍धकार व अज्ञान के काल में व विपरीत परिस्‍थितियों में अपने पूर्वजों के धर्म पर स्‍थित रहता है और त्‍यागपूर्वक जीवन व्‍यतीत करते हुए लोगों को अपने धर्म पर स्‍थित रहने की शिक्षा देता है तो यह भी जाति व देश के हित में बहुत बड़ा पुण्‍य कार्य होता है। गुरू रविदास जी ने विपरीत जटिल परिस्‍थितियों में जीवन जिया व मुस्‍लिम काल में स्‍वधर्म मे स्‍थित रहते हुए लोगों को स्‍वधर्म में स्‍थित रखा, यह उनका बहुत बड़ा योगदान है। यह तो निर्विवाद है कि महाभारत काल के बाद स्‍वामी दयानन्‍द जैसा विद्वान अन्‍य कोई नहीं हुआ। अन्‍य जो हुए उन्‍होंने नाना प्रकार के वाद दिये परन्‍तु ‘वेदों का सत्‍य वाद-त्रैतवाद तो महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती ने ही देश व संसार को दिया है जो सृष्‍टि की प्रलय तक विद्वानों व विवेकीजनों का आध्‍यात्‍मिक जगत में मुख्‍य व एकमात्र मान्‍यता व सिद्धान्‍त रहेगा।

      पहले गुरूजी के परिवार के बारे में और जान लेते हैं। उनकी माता का नाम कलशी देवी था। जाति से गुरूजी कुटबन्‍धला जाति जो चर्मकार जाति के अन्‍तर्गत आती है, जन्‍मे थे। उनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम विजय दास कहा जाता है। उन दिनों सामाजिक व्‍यवहार में जन्‍म की जाति का महत्‍व आज से बहुत अधिक था व व्‍यक्‍ति का व्‍यक्‍तित्‍व गौण था। इस कारण गुरूजी, उनके परिवार, उनकी जाति व अन्‍य दलित जातियों के लिए जीवन जीना बहुत दुभर था। समाज में छुआछुत अथवा अस्‍पर्शयता का विचार व व्‍यवहार होता था। इन सब अनुचित कठोर सामाजिक बन्‍धनों को झेलते हुए भी आपने अपना मार्ग बना लिया और आत्‍मा व ईश्‍वर के अस्‍त्‍िात्‍व को जानकर स्‍वयं भी लाभ उठाया व दूसरों को भी लाभान्‍वित किया। सच कहें तो गुरूजी अपने समय में एक बहु प्रतिभाशाली एकमात्र आध्‍यात्‍मिक भावना व तेज से सम्‍पन्‍न महापुरूष व्‍यक्‍ति थे। यदि उन्‍हें विद्याध्‍ययन का अवसर मिलता तो वह समाज में कहीं अधिक प्रभावशाली क्रान्‍ति कर सकते थे। आगे चल कर हम उनकी कुछ शिक्षाओं, सिद्धान्‍तों तथा मान्‍यताओं को भी देखगें जो उस युग में वैदिक धर्म को सुरक्षा प्रदान करती हैं। गुरू रविदास जी ने ईश्‍वर भक्‍ति को अपनाया और अपना जीवन उन्‍नत किया। योग, उपासना व भक्‍ति शब्‍दों का प्रयोग आध्‍यात्‍मिक उन्‍नति के लिए किया जाता है। योग, स्‍वाध्‍याय व ईश्‍वर को सिद्ध हुए योगियों के उपदेशों का श्रवण व उनके प्रशिक्षण से ईश्‍वर भक्‍ति का ध्‍यान करते हुए ईश्‍वर का साक्षात्‍कार करने का कहते है। उपासना भी योग के ही अन्‍तर्गत आती है इसमें भी ईश्‍वर के गुणों को जानकर स्‍तुति, प्रार्थना व उपासना से उसे प्राप्‍त व सिद्ध किया जाता है। उपासना करना उस ईश्‍वर का धन्‍यवाद करना है जिस प्रकार किसी से उपकृत होने पर सामाजिक व्‍यवहार के रूप में हम सभी करते हैं। उपासना का भी अन्‍तिम परिणाम ईश्‍वर की प्राप्‍ति, साक्षात्‍कार व जन्‍म-मरण से छूटकर मुक्‍ति की प्राप्‍ति है। भक्‍ति प्राय: अल्‍प शिक्षित लोगों द्वारा की जाती है जो योग व उपासना की विधि को भली प्रकार व सम्‍यक रूप से नही जानते। भक्‍ति एक प्रकार से ईश्‍वर की सेवा में निरत रहना है। भक्‍त ईश्‍वर को स्‍वामी व स्‍वयं को सेवक मानकर ईश्‍वर के भजन व भक्‍ति गीतों को गाकर अपने मन को ईश्‍वर में लगाता है जिससे भक्‍त की आत्‍मा में सुख, शान्‍ति, उल्‍लास उत्‍पन्‍न होता है तथा भावी जीवन में वह निरोग, बल व शक्‍ति से युक्‍त, दीर्घ जीवी व यश: व कीर्ति के धन से समृद्ध होता है। इसके साथ ही उसका मन व आत्‍मा शुद्ध होकर ईश्‍वरीय गुणों दया, करूणा, प्रेम, दूसरों को सहयोग, सहायता, सेवा, परोपकार आदि से भरकर उन्‍नति व अपवर्ग को प्राप्‍त होता है।

      सन्‍त रविदास जी सन् १३७७ में जन्‍में व सन् 1527 में मृत्‍यु को प्राप्‍त हुए। ईश्‍वर की कृपा से उन्‍हें काफी लम्‍बा जीवन मिला। यह उस काल में उत्‍पन्‍न हुए जब हमारे देश में अन्‍य कई सन्‍त, महात्‍मा, गुरू, समाज सुधारक पैदा हुए थे। गुरूनानक (जन्‍म 1497), तुलसीदास (जन्‍म 1497), स्‍वामी रामानन्‍द (जन्‍म 1400), सूरदास (जन्‍म 1478), कबीर (1440-1518), मीराबाई (जन्‍म 1478) आदि उनके समकालीन थे। गुरू रविदास जी के जीवन काल में सन् 1395-1413 में मैहमूद नासिरउद्दीन, सन् 1414-1450 में मुहम्‍मद बिन सईद तथा सन् 1451 से 1526 से लोदी वंश का शासन रहा। लोदी वंश के बाद सन् 1526 से 1531 बाबर का राज्‍य रहा। ऐसे समय में गुरू रविदास जी भी सनातन वैदिक धर्म के रक्षक के रूप में प्राचीन आर्य जाति के सभी वंशजों जिनमें दलित मुख्‍य रूप से रहे, धर्मोपदेश से उनका मार्गदर्शन करते रहे। धर्म रक्षा व समाज सुधार में उनका योगदान अविस्‍मरणीय है जिसे भुलाया नहीं जा सकता।

      परमात्‍मा ने सभी मनुष्‍यों को बनाया है। ईश्‍वर एक और केवल एक है। जिन दैवीय शक्‍तियों की बात कही जाती है वह सब जड़ हैं तथा उनमें जो भी शक्‍ति या सामर्थ्‍य है वह केवल ईश्‍वर प्रदत्त व निर्मित है तथा ईश्‍वर की सर्वव्‍यापकता के गुण के कारण है। सभी धर्म, मत, मजहब, सम्‍प्रदायो, गुरूडमों को अराध्‍यदेव भिन्‍न होने पर भी वह अलग-अलग ने होकर एकमात्र सत्‍य-चित्त-आनन्‍द=सच्‍चिदानन्‍द स्‍वरूप परमात्‍मा ही है। इन्‍हें भिन्‍न-भिन्‍न मानना या समझना अज्ञानता व अल्‍पज्ञता ही है। विज्ञान की भांति भक्‍तों, सन्‍मार्ग पर चलने वाले धार्मिक लोगों, उपासकों, स्‍तोताओं, ईश्‍वर की प्रार्थना में समय व्‍यतीत करने वालो को चिन्‍तन-मनन, विचार, ध्‍यान, स्‍वाध्‍याय कर एवं सत्‍य ईश्‍वर का निश्‍चय कर उसकी उपासना करना ही उचित व उपयोगी है एवं जीवन की उपादेय बनाता है। वैद, वैदिक साहित्‍य एवं सभी मत-मतान्‍तरों-धर्मों, रीलिजियनों, गुरूद्वारों आदि की मान्‍यताओं, शिक्षाओं व सिद्धान्‍तों का अध्‍ययन कर परमात्‍मा का स्‍वरूप ‘सच्‍चिदानन्‍द, निराकार, सर्वशाक्‍तिमान, न्‍यायकारी, दयालु, अजन्‍मा, अनन्‍त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्‍वर, सर्वव्‍यापक, सर्वान्‍तरयामी, अजर, अभय, नित्‍य, पवित्र और सृष्‍टिकर्ता ही निर्धारित होता है। जीवात्‍मा का स्‍वरूप सत्‍य, चित्‍त, आनन्‍द रहित, आनन्‍द की पूर्ति ईश्‍वर की उपासना से प्राप्‍तव्‍य, पुण्‍य-पाप कर्मों के कारण जन्‍म-मरण के बन्‍धन में फंसा हुआ, मोक्ष प्राप्‍ति तक जन्‍म-मरण लेता हुआ सद्कर्मो-पुण्‍यकर्मों व उपासना से ईश्‍वर का साक्षात्‍कार कर मोक्ष व मुक्‍ति को प्राप्‍त करता है। ईश्‍वर, जीव के अतिरिक्‍त तीसरी सत्‍ता जड़ प्रकृति की है जो स्‍वरूप में सूक्ष्‍म, कारण अवस्‍था में आकाश के समान व आकाश में सर्वत्र फैली हुई तथा सत्‍व-रज-तम की साम्‍यवस्‍था के रूप में विद्यमान होती है। सृष्‍टि के आरम्‍भ में ईश्‍वर अपने ज्ञान व शक्‍ति से इसी कारण प्रकृति से कार्य प्रकृति-सृष्‍टि को रचकर इसे वर्तमान स्‍वरूप में परिणत करता है। इस प्रकार यह संसार वा ब्रह्माण्‍ड अस्‍तित्‍व में आता है। सृष्‍टि बनने के बाद 1,96,08,53,113 वर्ष व्‍यतीत होकर आज की अवस्‍था आई है। इससे पूर्व भी असंख्‍य बार यह सृष्‍टि बनी, उन सबकी प्रलय हुई और आगे भी असंख्‍य बार यह क्रम जारी रहेगा। मनुष्‍य जन्‍म धारण होने पर सत्‍कर्मों को करते हुए ईश्‍वर की उपासना से ईश्‍वर का साक्षात्‍कार करना जीवन का लक्ष्‍य है। यह लक्ष्‍य उपासना से जिसके साथ स्‍तुति, प्रार्थना, योगाभ्‍यास, योगसाधना, ध्‍यान, समाधि व भक्‍ति आदि भी जुड़ी हुई है, लक्ष्‍य की प्राप्‍ति होती है।

      आर्य समाज सत्‍य को ग्रहण करने व असत्य को छोड़ने व छुड़ाने का एक अपूर्व व अनुपमेय आन्‍दोलन है। यह सर्व स्‍वीकार्य सिद्धान्‍त अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि का प्रबल समर्थक है। यद्यपि आर्य समाज का यह सिद्धान्‍त विज्ञान के क्षेत्र में शत-प्रतिशत लागू है परन्‍तु धर्म व मत-मतान्‍तरों-मजहबों में इस सिद्धान्‍त के प्रचलित न होने से संसार के सभी प्रचलित भिन्‍न-भिन्‍न मान्‍यता व सिद्धान्‍तों वाले मत-मतान्‍तरो-मजहबों के एकीकरण, एकरूपता व सर्वमान्‍य सिद्धान्‍तों के निर्माण व सबके द्वारा उसका पालन करने जिससे सबकी धार्मिक व सामाजिक उन्‍नति का लक्ष्‍य प्राप्‍त हो, की प्राप्‍ति में बाधा आ रही है। आर्य समाज सत्‍य के ग्रहण व असत्‍य के त्‍याग एवं अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि के सिद्धान्‍त को धर्म, मत-मतान्‍तर व मजहबों में भी प्रचलित व व्‍यवहृत कराना चाहता है। बिना इसके मनुष्‍य जाति का पूर्ण हित सम्‍भव नहीं है। मनुष्‍य का मत व धर्म सार्वभौमिक रूप से एक होना चाहिये। सत्‍याचरण व सत्‍याग्रह, सत्‍य मत के पर्याय है। पूर्ण सत्‍य मत की संसार में हर कसौटी की परीक्षा करने पर केवल वेद मत ही सत्‍य व यथार्थ सिद्ध होता है। यह वेद मत सायण-महीधर वाले वेद मत के अनुरूप नहीं अपितु पाणिनी, पंतजलि, यास्‍क, कणद, गौतम, वेदव्‍यास, जैमिनी आदि व दयानन्‍द के वेद भाष्‍य, दर्शन व उपनिषद् आदि ग्रन्‍थों के सिद्धान्‍तों के अनुरूप ही सकता है। इसी को आर्य समाज मान्‍यता देता है व सबको मानना चाहिए।

      स्‍वामी दयानन्‍द ने पूना में समाज सुधारक ज्‍योतिबा फूले के निमंत्रण पर उनकी दलितों व पिछड़ों की कन्‍या पाठशाला में जाकर उन्‍हें ज्ञान प्राप्‍ति व जीवन को उन्‍नत बनाने की प्रेरणा की थी। इसी प्रकार से सब महापुरूषों के प्रति सद्भावना रखते हुए तथा उनके जीवन के गुणों को जानकर, गुण-ग्राहक बन कर, उनके प्रति सम्‍मान भावना रखते हुए, वेद व वैदिक साहित्‍य को पढ़कर अपनी सर्वांगीण उन्‍नति को प्राप्‍त करना चाहिये। इसी से समाज वास्‍तविक अर्थों में, जन्‍म से सब समान व बराबर, मनुष्‍य समाज बन पायेगा जिसमें

किसी के साथ अन्‍याय नहीं होगा, किसी का शोषण नहीं होगा और न कोई किसी का शोषण करेगा। सबको आध्‍यात्‍मिक व भौतिक उन्‍नति के समान अवसर प्राप्‍त होगें। समाज गुण, कर्म व स्‍वभाव पर आधारित होगा जिसमें किसी से पक्षपात नहीं होगा व सबके साथ न्‍याय होगा। गुरू रविवास जी की प्रमुख शिक्षाओं में कहा गया है कि काव्‍यमय वेद व पुराण वर्णमाला के ३४ अक्षरों से मिलकर बनाये गये हैं। महर्षि वेदव्‍यास का उदाहरण देकर कहा गया है कि ईश्‍वर के समान संसार में कोई नहीं है अर्थात् ईश्‍वर सर्वोपरि है। उनके अनुसार वह लोग बड़े भाग्‍यशाली है जो ईश्‍वर का ध्‍यान व योगाभ्‍यास करते हैं और अपने मन को ईश्‍वर में लगाकर एकाग्र होते हैं। इससे वह सभी द्वन्‍दों व समस्‍याओं से भविष्‍य में मुक्‍त हो जायेंगे। गुरू रविदास जी कहते हैं कि जो व्‍यक्‍ति ईश्‍वर की दिव्‍य ज्‍योति से अपने हृदय को आलोकित करता है वह जन्‍म व मृत्‍यु के भय व दुख से मुक्‍त हो जाता है। उनका सन्‍देश था कि सब मनुष्‍य सब प्रकार से समान हैं। जाति, रंग व भिन्‍न २ विश्‍वासों के होने पर भी सब समान ही हैं। उन्‍होंने वैश्‍विक भ्रातृत्‍व भावना अर्थात् ‘वसुदैव कुटुम्‍बकम्’ व सहनशीलता का सन्‍देश लोगों को दिया। उनके उपदेशों को ‘अमृतवाणी’ के नाम से प्रकाशित किया गया है जो हिन्‍दी, अंग्रेजी व गुरूमुखी में उनके जन्‍म स्‍थान गोवर्धनपुरी, वाराणसी स्‍थित उनके संस्‍थान से उपलब्‍ध है। गुरूजी ने अपने समय में लोगों द्वारा अस्‍पर्शयता की जो भावना थी उसका भी विरोध कर उसके स्‍थान पर ईश्‍वर भक्‍ति को अपनाने का सन्‍देश दिया। वह वैष्‍णव सम्‍प्रदाय के अनुयायी व प्रचारक थे और राम व कृष्‍ण के जीवन की उदात्त शिक्षाओं का प्रचार भी करते थे। उनकी एक शिक्षा यह भी थी कि ईश्‍वर ने मनुष्‍य को बनाया है न कि मनुष्‍य ने ईश्‍वर को बनाया है। यह एक अति गम्‍भीर बात है जिस पर मनन करने पर अनेक सम्‍प्रदायों द्वारा इस शिक्षा के विपरीत व्‍यवहार देखा जाता है। बताया जाता है कि चित्तौड़ के महाराजा व महारानी उनके शिष्‍य बन गये थे। यह भी संयोग है कि उदयपुराधीश महाराजा उम्‍मेदसिंह जी स्‍वामी दयानन्‍द सरस्‍वती के परमभक्‍त थे। मीराबाई को भी गुरूजी की अनुयायी बताया जाता है। गुरू रविदास जी के कई स्‍तोत्र सिख धर्म पुस्‍तक गुरू ग्रन्‍थ साहिब में संग्रहित हैं। सम्‍भवत: इसी से उनकी वाणी व शिक्षाओं, मान्‍यताओं व सिद्धान्‍तों की रक्षा हो सकी है।

      हम गुरू रविदास जी व अन्‍य धार्मिक गुरूओं को भी आंखें बन्‍द किये हुए ध्‍यान की मुद्रा में एकान्‍त स्‍थान पर उपासना करते हुए देखते हैं। एकान्‍त में आंखें बन्‍द कर उपासना करना निराकर, सर्वव्‍यापक, सर्वान्‍तरयामी, सच्‍चिदानन्‍द स्‍वरूप, सदैव व हर काल में आत्‍मा के अन्‍दर व बाहर उपलब्‍ध-विद्यमान व दु:ख निवारण कर सुख देने वाले ईश्‍वर की उपासना का प्रमाण है। हम तो यहां तक कहेगें कि यदि एक मूर्तिपूजक, मन्‍दिर या घर में, मूर्ति या किसी चित्र के समाने आंखें बन्‍द कर खड़ा होकर बैठकर उपासना करता है, आरती या भजन गाता है, तो यह भी निराकार सर्वव्‍यापक, सर्वान्‍तरयामी, ईश्‍वर की उपासना सिद्ध होती है। इसका कारण यह है कि कभी कोई किसी जीवित व दृश्‍य पदार्थ की उपासना आंखें बन्‍द करके नहीं करता अपितु आंखें खोलकर ही समस्‍त व्‍यवहार करता व किया जाता है। आंखे बन्‍द कर उपासना करना निश्‍चित ही सर्वज्ञ, सर्वशक्‍तिमान, सर्वव्‍यापक, निराकार, जन्‍म व मृत्‍यु से रहित ईश्‍वर उपासना है। हमारे प्राचीन गुरूओं व सन्‍तों ने निराकार व सर्वव्‍यापक, जन्‍म, मृत्‍यु से रहित ईश्‍वर की स्‍तुति, प्रार्थना व उपासना का प्रचार-प्रसार किया या नहीं, नहीं किया तो क्‍यों नहीं किया, हम पाठकों को स्‍वयं विचार कर निर्णय करने के लिए छोड़ते हैं। हम केवल यह अनुमान लगाते हैं कि आंखे बन्‍द कर, ध्‍यान की मुद्रा में एकान्‍त में बैठ उपासना कर रहे हमारे प्राचीन गुरू ईश्‍वर के निश्‍चित ही सच्‍चिदानन्‍द निराकार, सर्वव्‍यपाक, सर्वान्‍तयामी, सूक्ष्‍मातिसूक्ष्‍म, अपरिवर्तनीय, जन्‍म-मरण रहित ईश्‍वर की ही उपासना करते थे। हमें भी ऐसा ही करना चाहिए।

      गुरू रविदास जी के जयन्‍ती पर हम यह समझते है कि प्रत्‍येक आध्‍यात्‍मिक जीवन व्‍यतीत करने वाले व्‍यक्‍ति को सत्‍य की खोज करनी चाहिये। सत्‍य कहीं से भी मिले उसे शिरोधार्य करना चाहिये। यह चिन्‍ता नहीं करनी चाहिये कि उससे उसके मत को हानि हो सकती है। सत्‍य संसार में सबसे बढ़कर है।  सत्‍य से बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है। सभी मतों के अनुयायियों को सभी मतों सहित वेद, दर्शन व उपनिषदों का अध्‍ययन आवश्‍यक है व इसे करना ही करना चाहिये। तभी वह सत्‍य धर्म को प्राप्‍त हो सकेगें। ईश्‍वर एक है जिसने मनुष्‍यों को बनाया है। इस लिए ईश्‍वर के बनाये हुए सभी मनुष्‍यों का धर्म भी एक ही है। जो इस सत्‍य को जानकर व्‍यवहार करता है उसकी उन्‍नति होती है और जो मत-मतान्‍तरों क अंधकार में फंसा रहता है उसका जीवन सफल नहीं होता। आईये, मानव जीवन को सफल करने के वेद, उपनिषद, दर्शन, सत्‍यार्थ प्रकाश, संस्‍कार विधि, आर्याभिविनय, रामायण, महाभारत व सभी मतों के ग्रन्‍थों को पढ़कर सत्‍य धर्म का मंथन करें तथा परीक्षा में सत्‍य पायी जाने वाली शिक्षा, मान्‍यताओं, सिद्धान्‍तों का अध्‍ययन कर सत्‍य को अपनाये और उसे अपने आचरण में लाकर अपने जीवनों को सफल करें।

पताः 196 चुक्खूवाला - 2, देहरादून - २४८००१ दूरभाषः 09412985121

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