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सदाचार बनाम समलेंगिकता

सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैगिंकता को धारा ३७७ के अंतर्गत अपराध करार दिया गया हैं। अपने आपको सामाजिक कार्यकर्ता कहने वाले, आधुनिकता का दामन थामने वाले एक विशेष बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा सुप्रीम कोर्ट क निर्णय को हताशा पूर्ण बताया जा रहा हैं। उनका कहना हैं कि अंग्रेजों द्वारा १८६१ में बनाया गया कानून आज अप्रासंगिक हैं। कोई इस फैसले को इतिहास का काला दिन बता रहा हैं, कोई इसे सामाजिक अधिकारों में भेदभाव और मौलिक अधिकारों का हनन बता रहा हैं, कोई इसे पाषाण काल कि बात कह रहा हैं। समलैगिंकता का समर्थन करने वालो का पक्ष का कहना हैं कि इससे HIV कि रोकथाम करने में रुकावट होगी क्यूंकि समलैगिंक समाज के लोग रोक लगने पर खुलकर सामने नहीं आयेगे और दूसरे सामाजिक कार्यकर्ताओं को पुलिस इस समाज में HIV प्रचार करने से रोकती हैं।
सबसे अचरज कि बात यह हैं कि वही समुदाय कोर्ट के फैलसे का सबसे अधिक विरोध कर रहा हैं जिसने पिछले वर्ष दिसंबर महीने में घटे दामिनी बलात्कार कांड के विरुद्ध कड़े से कड़े कदम उठाने कि मांग कि थी। गौरतलब हैं कि तब सारा ठीकरा पुलिस कि नाकामयाबी पर थोप दिया गया था।
इस फैसले का अधिकतर धार्मिक संगठनों ने स्वागत किया हैं। उनका कहना हैं कि यह करोड़ो भारतियों का जो नैतिकता में विश्वास रखते हैं उनकी भावनाओं का आदर हैं। आईये समलेंगिकता को प्रोत्साहन देना क्यूँ गलत हैं इस विषय पर तार्किक विवेचना करे।
हमें इस तथ्य पर विचार करने कि आवश्यकता हैं कि अप्राकृतिक स्वछंद सम्बन्ध समाज के लिए क्यूँ अहितकारक हैं। अपने आपको आधुनिक बनाने कि हौड़ में स्वछंद सम्बन्ध कि पैरवी भी आधुनिकता का परिचायक बन गया हैं। सत्य यह हैं कि इसका समर्थन करने वाले इसके दूरगामी परिणामों कि अनदेखी कर देते हैं। प्रकृति ने मानव को केवल और केवल स्त्री-पुरुष के मध्य सम्बन्ध बनाने के लिए बनाया हैं। इससे अलग किसी भी प्रकार का सम्बन्ध अप्राकृतिक एवं निरर्थक हैं चाहे वह पुरुष-पुरुष के मध्य हो, स्त्री स्त्री के मध्य हो वह विकृत मानसिकता को जन्म देता हैं। उस विकृत मानसिकता कि कोई सीमा नहीं हैं। उसके परिणाम आगे चलकर बलात्कार(Rape) , सरेआम नग्न होना (Exhibitionism),पशु सम्भोग (Bestiality), छोटे बच्चों और बच्चियों से दुष्कर्म (Pedophilia), हत्या कर लाश से दुष्कर्म (Necrophilia), मार पीट करने के बाद दुष्कर्म (Sadomasochism) , मनुष्य के शौच से प्रेम (Coprophilia) और न जाने किस किस रूप में निकलता हैं। अप्राकृतिक सम्बन्ध से संतान न उत्पन्न हो सकना क्या दर्शाता हैं? सत्य यह हैं कि प्रकृति ने पुरुष और नारी के मध्य सम्बन्ध का नियम केवल और केवल संतान की उत्पत्ति के लिए बनाया था। आज मनुष्य ने अपने आपको उन नियमों से ऊपर समझने लगा हैं और जिसे वह स्वछंदता समझ रहा हैं वह दरअसल अज्ञानता हैं। भोगवाद मनुष्य के मस्तिष्क पर ताला लगाने के समान हैं। भोगी व्यक्ति कभी भी सदाचारी नहीं हो सकता, वह तो केवल और केवल स्वार्थी होता हैं। इसीलिए कहा गया हैं कि मनुष्य को सामाजिक हितकारक नियम पालन का करने के लिए बाध्य होना चाहिए। जैसे आप अगर सड़क पर गाड़ी चलाते हैं तब आप उसे अपनी इच्छा से नहीं अपितु ट्रैफिक के नियमों को ध्यान में रखकर चलाता हैं। वहाँ पर क्यूँ स्वछंदता के मौलिक अधिकार का प्रयोग नहीं करता? अगर करेगा तो दुर्घटना हो जायेगी। जब सड़क पर चलने में स्वेच्छा कि स्वतंत्रता नहीं हैं ,तब स्त्री पुरुष के मध्य संतान उत्पत्ति करने के लिए विवाह व्यवस्था जैसी उच्च सोच को नकारने में कैसी बुद्धिमत्ता हैं।
कुछ लोगो द्वारा समलेंगिकता के समर्थन में खजुराओ की नग्न मूर्तियाँ अथवा वात्सायन का कामसूत्र को भारतीय संस्कृति और परम्परा का नाम दिया जा रहा हैं जबकि सत्य यह हैं कि भारतीय संस्कृति का मूल सन्देश वेदों में वर्णित संयम विज्ञान पर आधारित शुद्ध आस्तिक विचारधारा हैं।
भौतिकवाद अर्थ और काम पर ज्यादा बल देता हैं जबकि अध्यातम धर्म और मुक्ति पर ज्यादा बल देता हैं । वैदिक जीवन में दोनों का समन्वय हैं। एक ओर वेदों में पवित्र धनार्जन करने का उपदेश हैं दूसरी ओर उसे श्रेष्ठ कार्यों में दान देने का उपदेश हैं । एक ओर वेद में भोग केवल और केवल संतान उत्पत्ति के लिए हैं दूसरी तरफ संयम से जीवन को पवित्र बनाये रखने की कामना हैं । एक ओर वेद में बुद्धि की शांति के लिए धर्म की और दूसरी ओर आत्मा की शांति के लिए मोक्ष (मुक्ति)की कामना हैं। धर्म का मूल सदाचार हैं। अत: कहाँ गया हैं आचार परमो धर्म: अर्थात सदाचार परम धर्म हैं। आचारहीन न पुनन्ति वेदा: अर्थात दुराचारी व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। अत: वेदों में सदाचार, पाप से बचने, चरित्र निर्माण, ब्रहमचर्य आदि पर बहुत बल दिया गया हैं जैसे-
यजुर्वेद ४/२८ –हे ज्ञान स्वरुप प्रभु मुझे दुश्चरित्र या पाप के आचरण से सर्वथा दूर करो तथा मुझे पूर्ण सदाचार में स्थिर करो।
ऋग्वेद ८/४८/५-६ –वे मुझे चरित्र से भ्रष्ट न होने दे।
यजुर्वेद ३/४५-ग्राम, वन, सभा और वैयक्तिक इन्द्रिय व्यवहार में हमने जो पाप किया हैं उसको हम अपने से अब सर्वथा दूर कर देते हैं।
यजुर्वेद २०/१५-१६– दिन, रात्रि, जागृत और स्वपन में हमारे अपराध और दुष्ट व्यसन से हमारे अध्यापक, आप्त विद्वान,धार्मिक उपदेशक और परमात्मा हमें बचाए।
ऋग्वेद १०/५/६-ऋषियों ने सात मर्यादाएं बनाई हैं. उनमे से जो एक को भी प्राप्त होता हैं, वह पापी हैं. चोरी, व्यभिचार, श्रेष्ठ जनों की हत्या, भ्रूण हत्या, सुरापान, दुष्ट कर्म को बार बार करना और पाप करने के बाद छिपाने के लिए झूठ बोलना।
अथर्ववेद ६/४५/१-हे मेरे मन के पाप! मुझसे बुरी बातें क्यों करते हो? दूर हटों. मैं तुझे नहीं चाहता।
अथर्ववेद ११/५/१०– ब्रहमचर्य और तप से राजा राष्ट्र की विशेष रक्षा कर सकता हैं।
अथर्ववेद११/५/१९-देवताओं (श्रेष्ठ पुरुषों) ने ब्रहमचर्य और तप से मृत्यु (दुःख) का नष्ट कर दिया हैं।
ऋग्वेद ७/२१/५-दुराचारी व्यक्ति कभी भी प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता।

इस प्रकार अनेक वेद मन्त्रों में संयम और सदाचार का उपदेश हैं।

खजुराओ आदि की व्यभिचार को प्रदर्शित करने वाली मूर्तियाँ , वात्सायन आदि के अश्लील ग्रन्थ एक समय में भारत वर्ष में प्रचलित हुए वाम मार्ग का परिणाम हैं जिसके अनुसार मांसाहार, मदिरा एवं व्यभिचार से ईश्वर प्राप्ति हैं। कालांतर में वेदों का फिर से प्रचार होने से यह मत समाप्त हो गया पर अभी भी भोगवाद के रूप में हमारे सामने आता रहता हैं।
मनु स्मृति में समलेंगिकता के लिए दंड एवं प्रायश्चित का विधान होना स्पष्ट रूप से यही दिखाता हैं कि हमारे प्राचीन समाज में समलेंगिकता किसी भी रूप में मान्य नहीं थी। कुछ कुतर्की यह भी कह रहे हैं कि मनु स्मृति में अत्यंत थोडा सा दंड हैं उनके लिए मेरी सलाह हैं कि उसी मनुस्मृति में ब्रह्मचर्य व्रत का नाश करने वाले के लिए मनु स्मृति में दंड का क्या विधान हैं, जरा देख ले।
इसके अतिरिक्त बाइबिल, क़ुरान दोनों में इस सम्बन्ध को अनैतिक, अवाँछनीय,अवमूल्यन का प्रतीक बताया गया हैं।
जो लोग यह कुतर्क देते हैं कि समलेंगिकता पर रोक से AIDS कि रोकथाम होती हैं उनके लिए विशेष रूप से यह कहना चाहूँगा कि समाज में जितना सदाचार बढ़ेगा उतना समाज में अनैतिक सम्बन्धो पर रोकथाम होगी। आप लोगो का तर्क कुछ ऐसा हैं कि आग लगने पर पानी कि व्यवस्था करने में रोक लगने के कारण दिक्कत होगी, हम कह रहे हैं कि आग को लगने ही क्यूँ देते हो? भोग रूपी आग लगेगी तो नुकसान तो होगा ही होगा। कहीं पर बलात्कार होगे, कहीं पर पशुओं के समान व्यभिचार होगा , कहीं पर बच्चों को भी नहीं बक्शा जायेगा। इसलिए सदाचारी बनो नाकि व्यभिचारी।
एक कुतर्क यह भी दिया जा रहा हैं कि समलेंगिक समुदाय अल्पसंख्यक हैं , उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उन्हें अपनी बात रखने का मौका मिलना चाहिए। मेरा इस कुतर्क को देने वाले सज्जन से पप्रश्न हैं कि भारत भूमि में तो अब अखंड ब्रह्मचारी भी अल्प संख्यक हो चले हैं। उनकी भावनाओं का सम्मान रखने के लिए मीडिया द्वारा जो अश्लीलता फैलाई जा रही हैं उनपर लगाम लगाना भी तो अल्पसंख्यक के हितों कि रक्षा के समान हैं।
एक अन्य कुतर्की ने कहा कि पशुओं में भी समलेंगिकता देखने को मिलती हैं। मेरा उस बंधू से एक ही प्रश्न हैं कि अनेक पशु बिना हाथों के केवल जिव्हा से खाते हैं, आप उनका अनुसरण क्यूँ नहीं करते? अनेक पशु केवल धरती पर रेंग कर चलते हैं आप उनका अनुसरण क्यूँ नहीं करते ? चकवा चकवी नामक पक्षी अपने साथी कि मृत्यु होने पर होने प्राण त्याग देता हैं, आप उसका अनुसरण क्यूँ नहीं करते?
ऐसे अनेक कुतर्क हमारे समक्ष आ रहे हैं जो केवल भ्रामक सोच का परिणाम हैं।
जो लोग भारतीय संस्कृति और प्राचीन परम्पराओं को दकियानूसी और पुराने ज़माने कि बात कहते हैं वे वैदिक विवाह व्यवस्था के आदर्शों और मूलभूत सिद्धांतों से अनभिज्ञ हैं। चारों वेदों में वर-वधु को महान वचनों द्वारा व्यभिचार से परे पवित्र सम्बन्ध स्थापित करने का आदेश हैं। ऋग्वेद के मंत्र के स्वामी दयानंद कृत भाष्य में वर वधु से कहता हैं। हे स्त्री ! मैं सौभाग्य अर्थात् गृहाश्रम में सुख के लिए तेरा हस्त ग्रहण करता हूँ और इस बात की प्रतिज्ञा करता हूँ की जो काम तुझको अप्रिय होगा उसको मैं कभी ना करूँगा। ऐसे ही स्त्री भी पुरुष से कहती हैं की जो कार्य आपको अप्रिय होगा वो मैं कभी न करूँगी और हम दोनों व्यभिचारआदि दोषरहित होके वृद्ध अवस्था पर्यन्त परस्पर आनंद के व्यवहार करेगे। परमेश्वर और विद्वानों ने मुझको तेरे लिए और तुझको मेरे लिए दिया हैं , हम दोनों परस्पर प्रीती करेंगे तथा उद्योगी हो कर घर का काम अच्छी तरह और मिथ्याभाषण से बचकर सदा धर्म में ही वर्तेंगे। सब जगत का उपकार करने के लिए सत्यविद्या का प्रचार करेंगे और धर्म से संतान को उत्पन्न करके उनको सुशिक्षित करेंगे। हम दूसरे स्त्री और दूसरे पुरुष से मन से भी व्यभिचार ना करेगे।
एक और गृहस्थ आश्रम में इतने उच्च आचार और विचार का पालन करने का मर्यादित उपदेश हैं , दूसरी ओर पशु के समान स्वछन्द अमर्यादित सोच हैं। पाठक स्वयं विचार करे कि मनुष्य जाति कि उन्नति उत्तम गृहस्थी बनकर समाज को संस्कारवान संतान देने में हैं अथवा पशुओं के समान कभी इधर कभी उधर मुँह मारने में हैं।
समलेंगिकता एक विकृत सोच हैं , मनोरोग हैं, बीमारी हैं। इसका समाधान इसका विधिवत उपचार हैं नाकि इसे प्रोत्साहन देकर सामाजिक व्यवस्था को भंग करना हैं। इसका समर्थन करने वाले स्वयं अँधेरे में हैं औरो को भला क्या प्रकाश दिखायेंगे। कभी समलेंगिकता का समर्थन करने वालो ने भला यह सोचा हैं कि अगर सभी समलेंगिक बन जायेगे तो अगली पीढ़ी कहा से आयेगी?

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