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विश्व की आध्यात्मिक व भौतिक उन्नति का आधार ‘पंचमहायज्ञविधि’

महर्षि दयानन्द जब सन् 1863 में कार्यक्षेत्र में उतरे तो उन्होंने पाया कि सारा भारतीय समाज अज्ञान, अन्धविष्वास एवं कुरीतियो से ग्रसित है। भारतीय समाज की यह दुर्दषा लगभग 5 हजार वर्ष  पूर्व हुए महाभारत युद्ध के कारण हुई थी। कारण यह था इस महायुद्ध में बड़ी संख्या में विद्वान, क्षत्रिय राजा एवं सैनिक मारे गये थे जिससे देश व समाज की सारी व्यवस्थाये कुप्र भावित हुई थीं। षिक्षा एवं राज्य व्यवस्थाओं में उत्पन्न बाधाओं के कारण दिन-प्रतिदिन देष व समाज अज्ञानता, अन्धविष्वास एवं कुरीतियों में फंसता चला गया। इस कारण पहले यहां  बौद्ध व जैन नास्तिक मतो ने अपना प्रभाव जमाया जिसे स्वामी षं कराचार्य  ने दूर किया। उसके लगभग 12 शताब्दी बाद हमारा देश पहले यवनों का एवं उसके पष्चात अंग्रेजों का गुलाम बना। इस पर भी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं  सामाजिक अज्ञानता, अन्धविष्वास व कुरीतियां कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही थीं। स्वामी दयानन्द ने  इन धार्मिक व सामाजिक रोगों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया और अपने आध्यात्मिक बल एवं योग की षक्तियों से रोग का कारण व निदान ढूंढ निकाले।

मथुरा में प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से संस्कृत के आर्ष व्याकरण के ग्रन्थों, पाणिनी अष्टाध्यायी, महर्षि पतं जलि का महाभाष्य व महर्षि यास्क का निरूक्त आदि का अध्ययन किया और इसके साथ वेद एवं वैदिक साहित्य का ज्ञान भी प्राप्त किया। अपने व्याकरण ज्ञान, वेदाध्ययन तथा योगबल से उस समय देष मे यत्र-तत्र विद्यमान अन्य अनेक संस्कृत ग्रन्थों का सूक्ष्मता से निरीक्षण भी किया। वेदों आदि के अध्ययन से उन्हें आर्ष दृष्टि की प्राप्ति हुई। यह आर्ष दृष्टि धर्म, देष व समाज के क्षेत्र मे व्यक्ति की बुद्धि का अज्ञान दूर कर उसे सत्यान्वेषी व सत्याचरण का आग्रही बनाती है व सृष्टि के सत्य रहस्यों से परिचित कराती है। अपनी इस विवेकपूर्ण मे धाबुद्धि से स्वामी दयानन्द को यह पता चला कि देष के सारे अज्ञान, अन्धविष्वास व कुरीतियों का कारण वेदों के सत्य अर्थो में भ्रन्ति व अज्ञानता तथा हमारे विद्वत्वर्ग ब्रह्मणों का आलस्य-प्रमाद रहा है। स्वामी दयानन्द ने षताब्दियों से विलुप्त वेदों के सत्य अर्थो व रहस्यों को अपनी अप्रतिम प्रतिभा से प्रकट किया। उनके इस प्रयास से सारी भ्रान्तियां दूर हो गयीं और एक नये युग का सूत्रपात हुआ। वेदों के वास्तविक अर्थो का प्रकाष हो जाने पर पता चला कि जन्म पर आधारित वर्ण एवं जातीय व्यवस्था कृत्रिम है जिसका वेदों एवं मनुस्मृति से समर्थन नहीं हो ता। जन्म से सभी मनुष्य व उनकी सन्तानें समान हो ते  हैं तथा षिक्षा, षारीरिक क्षमता एवं बौद्धिक योग्यता से उनमें अन्तर हो ता है और उनके अनुसार वह जो कार्य  करते हैं उनके अनुसार ही उनका वर्ण निष्चित होता है। मूतिपूजा व फलित ज्योतिष भी वेद, ज्ञान, बुद्धि व युक्ति के विरूद्ध है। यह करणीय व माननीय नही है। इससे  मनुष्य जीवन अवनत होता है। वैदिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार ज्ञान कार्यो यथा वेदाध्ययन, अध्यापन, षिक्षण, विज्ञान के अनुसंधान, तकनीकी व प्रौद्योगिकी का प्रचार व प्रसार तथा वेद प्रचार आदि करने वालों को ब्रह्मण कहा जाता था। वाणिज्य, कृषि, गोरक्षा, गोसंवृद्धि व पषु पालन आदि कार्य करने वाले वैष्य, राज्य-षासन का संचालन, सेना व पुलिस आदि के कार्य करने वाले क्षत्रिय तथा षारीरिक श्रम के कार्य करने वाले विद्याहीन लोग षूद्र नाम से कहे जाते थे। यह जानना भी उचित होगा कि यथार्थ वर्ण व्यवस्था में  अस्पर्ष यता या छुआछूत का कोई स्थान नहीं था। षूद्र, श्रम से  जुड़े कार्यो को करते थे सका कारण उनका अज्ञानी होना था अन्य कुछ नहीं। वेदों के अनुसार समाज मे स्त्री व पुरूष को समान अधिकार हो ते थे। सबके अपने-अपने कर्तव्य निर्धारित थे। सती-प्रथा को उन्हो ने वेद विरूद्ध सिद्ध किया तथा कम आयु  की विधवाओं के पुनर्वि वाह को विहित कर्मोमं  सम्मिलित किया।  इस प्रकार की अन्य अनेक कुप्रथाओं को स्वामी दयानन्द ने वेदों की मान्यताओं के आधार पर समाप्त कर दिया। स्त्रीषिक्षा उन दिनों एक प्रकार से वर्जित थी। वेदों के विधान को प्रस्तुत कर उन्होने स्त्री तथा षूद्रवालितों की षिक्षा की वकालत की और इस दिषा में ऐतिहासिक व अविस्मरणीय कार्य  किया।

महाभारत युद्ध के बाद हमारे पतन का सबसे बड़ा कारण हमारे आध्यात्मिक व सामाजिक विचार, ज्ञान, चिन्तन व दिनचर्या थी जो वेदों की मान्यताओं के विपरीत थी। इसके लिए स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने लगभग 140 वर्ष पूर्व ‘पंचमहायज्ञविधि’ पुस्तक की रचना की जिसका उद्देष्य विस्मृत हो चुके नित्य कर्मो व वैदिक आचरण, जिनकी ‘धर्म’ संज्ञा है, को पुनः आरम्भ करना था जिससे लक्ष्यहीन मनुष्य दैवीय सुख, आनन्द व नेमतों से वंचित न हो। अपने कर्तव्य व अधिकार को जानं और उसकी रक्षा व संवृद्धि करे। षोषण व अन्याय से बचें व दूसरों का षोषण व अन्याय करने का विचार न करे। इनको करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को सिद्ध कर जीवन को सफल करे जो कि संसार में सर्वत्र विस्मृत, उपेक्षित व तिरस्कृत थे। उनके इस कार्य का देषवासियों की दिनचर्या पर अनुकूल प्रभाव पड़ा और इससे उनमें  सुधार आया। उनके समग्र प्रयासों का प्रभाव आज देष की उन्नति में स्पष्ट परिलक्षित होता है ।

महर्षि दयानन्द ने पंचमहायज्ञविधि की रचना कर उसे मानवजति को समर्पित किया। इस ग्रन्थ में सभी मनुष्यों के पांच दैनिक कर्तव्यों का विधान है जिनका आधार वेद एवं वैदिक साहित्य है। पांच दैनिक कर्तव्यों में सबसे पहला कर्तव्य ‘सन्ध्या’ है जिसका अर्थ ईश्वर का सम्यक् ध्यान करना है। स्वामी दयानन्द तर्क प्रस्तुत कर कहते हैं कि सन्ध्या-उपासना करने से उपासक के बुरे गुण़्, कर्म व स्वभाव छूट कर ईश्वर के अनुरूप, षुद्ध व पवित्र, हो जाते हैं। इसका प्रमाण देते हुए वह कहते हैं कि जिस प्रकार षीत व ठण्ड से आतुर व्यक्ति के अग्नि के पास जाने से उसका षीत निवृत्त हो जाता है और उसमें गर्मी आ जाती है, उसी प्रकार सर्वव्यापक ईश्वर का ध्यान करने से उपासक की अज्ञानता, बुरे कार्यो में प्रवृत्ति, दुर्ब लता आदि समाप्त हो जाती है एवं उसके गुण कर्म स्वभाव ईश्वर के अनुरूप हो जाते हैं। उसका आत्मिक बल इतना बढ़ता है कि पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी घबराता नहीं है। वह पूछते हैं कि क्या यह छोटी बात है? अध्ययन, विचार व अनुभवों से स्वामी दयानन्दजी के यह विचार सत्य पाये गये हैं। 

दूसरा कर्तव्य वेदों एवं मनु स्मृति आदि प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार स्वामी दयानन्द जी ने अग्निहोत्र यज्ञ को बताया है जिससे वायु, जल, अन्न व ओषधि आदि की षुद्धि होती है। मंत्रोच्चारण से आत्मा पर अच्छे संस्कार पड़ते हैं तथा ईश्वर से अच्छे कार्यों को करने की प्रेरणा प्राप्त हो ती है। घर में  जो रोग के किटाणु या बैक्टिरिया आदि नष्ट हो जाते हैं और अग्निहोत्र के प्रभाव से शरीर में विद्यमान साध्य व असाध्य अनेक रोग ठीक हो जाते हैं।  एनबीआरआई, लखजहां यज्ञ होता है वहां रोग या तो होते ही नहीं और यदि हो ते भी है तो षीघ्र ही ठीक हो जाते  हैं।नऊ के वैज्ञानिकों द्वारा किए गये अध्ययन से पता चला है कि रोगकारक बैक्टिरिया यज्ञ से  94 प्रतिषत तक नष्ट हो जाते  हैं । अग्निहोत्र यज्ञ के करने से  ईश्वर की आज्ञा का पालन भी होता है जिससे प्रत्येक छोटे-बड़े कार्यो में ईश्वर की सहायता मिलने से सफलता प्राप्त होती है। बच्चों पर भी अच्छे संस्कार पड़ते है और इससे परिवारों मे सुख, शांति व समृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त भी अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। यह सब लाभ अध्ययनों एवं अनुभवो   से सिद्ध हैं।

नत्य कर्मो में तीसरे स्थान पर पितृ-यज्ञ आता है जिसमें कोई हवन आदि नहीं करना होता अपितु परिवार में  माता, पिता व वृद्धो की श्रद्धापूर्वक सेवा करनी हो ती है। उन्हें समय पर भोजन, आवष्यकता की वस्तुएं, रोगी अभिवावकों को ओषधियां व उनकी सेवा-सुश्रुषा करनी होती हैं। परिवार के सभी वृद्ध लोग पितृ-यज्ञ की परिभाषा में सम्मिलित हैं और उनका भोजन, वस़्त्र, ओषधि, सेवा-सुश्रुषा के साथ उनके प्रति नम्रता व सम्मान का व्यवहार करना हो ता है जिससे स्वाभाविक रूप से उनका आषीर्वाद एवं षु भकामनायें प्राप्त हो ती हैं। इससे जीवन में बहुत लाभ होता है और सबसे बड़ी बात यह है कि इस परम्परा के स्थापित हो जाने पर जब आज के युवा भविष्य में वृद्ध व दुर्बल हो जायेगें तो उनकी भेाजन, वस्त्रों एवं ओषधियों आदि आवष्यक वस्तुओं से  उनके बच्चे व परिवार के लोग सेवा करेगें ।मनुस्मृति तो निष्चयात्मक रूप से बताती है कि अभिवादनषील व वृद्धों की सेवा करने वाले व्यक्तियों की आयु , विद्या, यष व बल में वृद्धि होती है। आज इस दिषा़ में समाज को पुनः सक्रिय करने की आवष्यकता है।

चौथे स्थान पर बलिवैष्वदे व यज्ञ आता है जिसमें प्रत्येक गृहस्थी को कीट-पतंग, कृमियों व पषु-पक्षियों के पालनार्थ कुछ भोजन कराया जाता है। कारण है कि मनुष्य अपने कर्मानु सार जन्म-जन्मान्तरों मे विभिन्न योनियों में संचरण करता है। आज के मनुष्य पूर्व जन्मो में इन सभी योनियों मे रह चुके हैं और इस जन्म के पष्चात कई पुनः इन निम्न यो नियों में जायेगें। इस व्यवस्था के अनुसार कृमि व पषु -पक्षियों की योनियों से  मनुष्य योनि में आने वाले व मनुष्य-योनि से इन योनियों मे जाने वाले जीवो के भोजन संबधी समस्या का समाधान होता है। वेदों एवं मनुस्मृति आदि प्राचीन ग्रन्थों में इनका विधान इसी भावना से किया गया है जिसे महर्षि दयानन्द ने अपनी पंचमहायज्ञ-विधी पुस्तक के माध्यम से पुनर्जी वित एवं प्रचलित किया है। इस दिषा में  और भी आगे बढ़ना उचित होगा। इसके अनुसार मांसाहार का सर्वथा त्याग आवष्यक है जिसका कारण है कि पशुओ को पीड़ होती है और भविष्य मे इन योनियों मे हमें भी यही दुःख भोगने होगें।

अन्तिम पांचवा कर्तव्य अतिथि-यज्ञ है जिसमें विद्वानो, संन्यासियों व परोपकार के कार्यो को करने वाले निष्काम व्यक्तिों का सम्मान करना होता है। महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जो धार्मिक, परोपकारी, सत्यो पदेषक, पक्षपातरहित, षान्त, सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा, उन से प्रष्नोत्ततर आदि करके विद्या प्राप्त होना ‘अतिथियज्ञ’ कहाता  है। इसके अनुसार यदि कोई विद्वान व सन्यासी हमारे घर आता है तो इस पांचवें यज्ञ के अनुसार हमें उसके प्रति कोमल, नम्र व सम्मानजनक व्यवहार करना तथा उसे जल व भोजन आदि से सत्कृत करना होता है। उसकी संगति से हमे उसके ज्ञान व अनुभव से अपनी समस्याओं का निवारण और कुछ नया सीखने को मिलता है। उसे  जो अनुभव वर्षो तक परिश्रम व कष्ट सहकर हुए, वह हमें अनायास प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रथा का व्यापक रूप आज हम समाज मे भी देखते हैं। जब भी कोई बड़ा आयोजन व उत्सव करते हैं तो वहां विषेष विद्वान अतिथियों को आमंत्रित कर उनके व्याख्यान कराये जाते हैं और बाद में उन्हें भो जनादि कराकर दक्षिणा देते हैं। उनका सम्मान तो होता ही है, इससे श्रोताओं व आयोजकों को इन विद्वान व्यक्तियो के जीवन के कई  अनुभवों व रहस्यों का पता चलता है जिससे अन्य लोगों को प्रेरणा मिलती है। इस प्रकार के कार्यो से देष, समाज व परिवार उन्नति को प्राप्त होता है ।

उपर्युक्त आधार पर पंचमहायज्ञविधि का मूल्यांकन कर हमें इसको अधिक से अधिक समझने की आवष्यकता अनुभव होती है। इसके व्यवहार से समाज व देश को नैतिक, आध्यात्मिक व भौतिक प्रगति सुख-समृद्धि के मार्ग पर अग्रसर कर सकते हैं। अतः समाज, देश व विष्व की सुख-समृद्धि में पंचमहायज्ञविधि की भूमिका उपयोगी, उपादेष्य व प्रासंगिक है।

पताः 196 चुक्खूवाला - 2, देहरादून - २४८००१ दूरभाषः 09412985121

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