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संविधान चाहिए या शरियत..?

नागरिकता बिल का प्रस्तावित संशोधन लोकसभा और राज्यसभा में बहुमत से पारित के बाद देश में मुसलमानों का एक बड़ा तबका हिंसा और उपद्रव पर उतारू है। दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में हिंसा का तांडव देखने को भी मिला। मुसलमान चाहते है कि प्रस्तावित संशोधन  बिल में मुस्लिमों को भी शमिल किया जाये क्योंकि भारत के संविधान में सभी नागरिक समान है हमारा संविधान किसी नागरिक के साथ कोई भेदभाव नहीं करता है। माना कि भारतीय संविधान सभी को समान अधिकार प्रदान करता है लेकिन मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल के दौरान जब तीन तलाक पर सरकार बिल लेकर आई थी तब मुसलमानों की ओर से कहा गया था कि मुसलमानों के लिए संविधान से बड़ा शरिया कानून है और भारत सरकार उनके शरिया कानून में हस्तक्षेप न करे।

आज दो सवाल देश के सामने खड़े है कि भारत के मुस्लिमों को संविधान चाहिए या शरियत कानून? क्योंकि एक समय पर दोनों चीजें विवादास्पद बनी रहेगी और भारत की न्याय व्यवस्था को अपने पक्ष में करने को दबाव की राजनीति में माहिर रहे कट्टर लोग हिंसा करते रहेंगे। तीन तलाक पर आये कानून के बाद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नेताओं ने देश भर में ‘शरीयत कोर्ट’ की स्थापना की घोषणा की थी। जबकि यह राष्ट्रीय संविधान की भावना के विरुद्ध थी लेकिन फिर भी कांग्रेस के कई नेताओं ने इसका समर्थन किया था।

वर्तमान स्थिति को देखे तो तर्क और तथ्य बताते है कि गत सदी से भारतीय राजनीति की मूल समस्या जस-की-तस अनसुलझी ठहरी हुई है। 1947 से पहले देखे तो नए दौर के अंत में हिन्दू नेता पहले के हिन्दू राजाओं की तुलना में धार्मिक, चारित्रिक रूप से दुर्बल खोखले साबित हुए थे क्योंकि स्वामी दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, जैसे मनीषियों की शिक्षा और चेतावनियों की उपेक्षा कर हिन्दू नेताओं ने देश का एक हिस्सा इस्लाम को सौंप देना स्वीकार कर लिया कारण बताया गया कि मुस्लिमों को शरियत चाहिए और हमें संविधान।

बंटवारा हुआ दो देश बने एक में संविधान का शासन हुआ दूसरे में शरियत का, इसके बाद हम आगे बढ़ते रहे, लेकिन भारत में बचें मुस्लिमों की जैसे ही संख्या और राजनितिक शक्ति बढ़ी उन्होंने कई चीजों में अपने मजहब का हवाला देकर नए इस्लामी नेता कह उठे कि यदि ‘शरीयत कोर्ट’ नहीं देते तो ‘हमारा अलग देश दे दो। सरकारें झुकी और कई मामलों में फिर शरीयत दे दी गयी। जबकि डॉ आंबेडकर ने एक मौके पर कहा था कि मुस्लिमों की चाह हनुमानजी की पूंछ की तरह बढ़ती जाती है. उन्होंने झूठी शिकायतों, आन्दोलनों हिंसाओं को मुस्लिम राजनीति की तकनीक बताकर इसे एक नाम दिया था। ‘फरेबी राजनीति’ यानी, झूठी शिकायतें करके सत्ता और कब्जे की ओर बढ़ना। यह सब आज फिर दिख भी रहा है। यह सब डॉ. आंबेडकर ने 1940 में लिखा था आज भी विभिन्न मुस्लिम नेता उसे प्रमाणित कर रहे हैं. इस में कुछ नया नहीं है।

बंटवारे के सात दशक पहले वाली इस्लामी अलगाववादी भाषा फिर सुनाई पड़ रही है। पर आज भी हिन्दू नेता यह नहीं जानते कि क्या करें! ये आज भी ऐसे ही असहाय लग रहे हैं जैसे 1947 में थे, जब मुट्ठीभर इस्लामी नेताओं और उनके समर्थक कम्युनिस्टों ने देश-विभाजन करा डाला था। आज हिन्दू नेताओं में यह कहने का साहस नहीं है कि मुसलमानों की सभी शिकायतों के एकमुश्त समाधान के लिए ही 1947 में देश-विभाजन हुआ था। जबकि इस सचाई को डॉ. आंबेडकर ने बखूबी समझा था और हिन्दुओं को चेतावनी दी थी कि मुस्लिम राजनीति मुल्लाओं की राजनीति है और वह मात्र एक अंतर को मान्यता देती है हिन्दू और मुसलमानों के बीच मौजूद अंतर। जीवन के किसी पंथनिरपेक्ष तत्व का मुस्लिम राजनीति में कोई स्थान नहीं, और वे मुस्लिम राजनीतिक जमात के केवल एक ही निर्देशक सिद्धांत के सामने नतमस्तक होते हैं, जिसे मजहब कहा जाता है। उन्होंने कहा था कि मुस्लिम राजनीति हिन्दुओं के साथ बराबरी नहीं, बल्कि वर्चस्व के लक्ष्य से प्रेरित है।

एक बार फिर वही दिख रहा है. यहां के सभी मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बना था, जिस के लिए उन्होंने मुस्लिम लीग को वोट दिया था। विभाजन को स्वीकार के लिए हिन्दू जनता को स्वयं नेहरू ने यही तर्क व ढाढस दिया था कि इस से ‘मुस्लिम समस्या’ सदा के लिए खत्म हो जाएगी। बात-बात में मुसलमानों के सीधे हमलों और दंगों से हिन्दुओं को मुक्ति मिलेगी। हम एक संविधान के देश में रहेंगे। खैर बटवारा हुआ 10 लाख से ज्यादा लोग मारे गये। मुस्लिम लीग को वोट करने के बाद अधिकांस मुस्लिम यही जमे रह गये स्वतंत्र भारत में कांग्रेस और दूसरी पार्टियां मुसलमानों को बढ़-चढ़कर अधिक सुविधा, अधिकार देती रहीं। संविधान को भुलाकर शिक्षा, राजनीति, कानून, आदि में इस्लामी अलगाव का सम्मान, अंतरराष्ट्रीय इस्लामी मांगों को समर्थन, इस्लामी देशों के प्रति झुकी विदेश-नीति आदि उसके बड़े उदाहरण थे।

जो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पाकिस्तान आंदोलन का केंद्र था, उसे खत्म करने के बदले विशेषाधिकार प्राप्त विश्वविद्यालय बना दिया गया! आज फिर मुस्लिम शिकायतें इतनी बढ़ कि अब फिर अलग देश की मांग, शरियत कानून की मांग इसी से उठ रही है। और कमाल देखिये इन मुस्लिम नेताओं को फटकारने के बजाय कांग्रेसी नेता हिन्दुओं को ही बुरा-भला कह रहे हैं, जैसे गांधीजी हिन्दू महासभा या वीर सावरकर को कहते थे।

आज भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है मुसलमानों जान गये है उत्पात मचाओं अधिकार और सत्ता हासिल करो इसी कारण उन्हें और, और, और चाहिए जैसे आज इन्हें पाकिस्तान और बांग्लादेश के नागरिक चाहिए। यह मांग नहीं रुकेगी जब तक सब कुछ इस्लामी न हो जाए! यही वह राजनीति-कुशलता है जिसे भूलने के कारण हिन्दू नेता तमाम चढ़ावे चढ़ाकर, बार-बार विभाजन कराकर भी समस्या का समाधान नहीं कर पाएंगे।

क्योंकि पाकिस्तान बन जाने के बाद भारत में रह गए मुसलमानों के लिए शिकायत का कोई आधार नहीं बचता था। लेकिन आज फिर वही समस्या वही मजहब वही दादागिरी वही हिंसा वही दंगे आखिर किस लिए कोई जवाब दो हमें समझाओं कि मुस्लिम लीग को वोट देकर जो मुसलमान यहाँ रह गये थे उनका हमारे ऊपर कैसा अहसान दिखाया जा रहा है। तमाम सेकुलर पार्टियों के हिन्दू नेता और बुद्धिजीवी अपनी सदिच्छाओं और शब्द-जाल में उलझकर सीधी सचाई देखना नहीं चाहते! इस भगोड़ेपन का अर्थ इस्लामी नेता अधिक अच्छी तरह समझते हैं। वे अपनी ताकत और दूसरों की कमजोरी का इस्तेमाल जानते हैं। इसीलिए वे लंदन से लेकर दिल्ली तक सत्ताधारियों को झुकाने और अपनी मनमानियां स्वीकार कराने में सफल रहते हैं। यदि भारत हिन्दू-भूमि न रहा, तो उन की स्थिति भी बदतर होगी। सारी तुलनाएं यह दिखा सकती हैं। अत: भारत की हिन्दू पहचान को बचाना, इस की रक्षा करना पहली प्रतिज्ञा होना चाहिए।

 राजीव चौधरी

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