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स्वामी श्रद्धानन्द एक महान व्यक्तित्व

स्वामी  श्रद्धानन्द जी भारत के यशस्वी नेताओं  में से एक थे। उन्हें महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने कर-कमलों से गढ़ा व राष्ट्र-सेवा हेतु प्रेरित किया। स्वामी श्रद्धानन्द आयु-भर राष्ट्र-सेवा, समाज-सुधार दलितोद्धार , वेद- प्रचार, पतिता-उद्धार, शुद्धिकरण, महिला- मंडन सरीखे पुनीत कार्यों में जुटे रहे। न थके, न रुके, बस आगे ही आगे बढ़ते गए। स्वामी श्रद्धानन्द एक चमत्कारिक व्यक्तित्व के स्वामी थे। उन द्वारा किए गए अनेक कार्यों को देख-सुनकर प्रत्येक व्यक्ति का आचंभित होना स्वाभाविक है। उनके कुछ एक अनोखे कार्यों का लघु-विवरण इस प्रकार हैः-

बदल गई जीवन की राह

सन् 1879 के आस-पास की बात है। अपने पिताश्री के बहुत कहने-सुनने पर वे अनमने मन से बरेली में चल रही महर्षि की एक सभा में जा पहुँचे। इससे पूर्व वे सभी साधु- संन्यासियों को समाज पर भार ही मानते थे। उन्हें कूप- मंडूक माना करते थे। महर्षि की तर्क-संगत व युक्तियुक्त बाते सीधे उनके मन में घर करती गई। वे अनायास महर्षि की ओर खिंचते चले गए। वे पक्के अनीश्वरवादी थे, महर्षि के सौजन्य से वे प्रथम श्रेणी के आस्तिक बन गए। उस समय उनका नाम था मुन्शी राम। महा-नास्तिक बन गया परम– आस्तिक युवा मुन्शीराम को महर्षि से अनेक बार वार्ता आदि करने के सुअवसर मिलते रहे। महर्षि-प्रदत्त  शंका समाधानों ने उनके समस्त संशय, भ्रम आदि समूल नष्ट कर डाले थे। उन्होंने महर्षि को अपना पथ-प्रदर्शक एवं गुरु मान लिया था। एक बार, उन्होंने महर्षि से पूछा, आपने मुझे प्रभु-दर्शन तो कराए ही नहीं। मैंने तुम्हें प्रभु-दर्शन कराने संबंधी वचन बोला ही कब था? ऋषिवर  ने उत्तर  दिया था। तत्पश्चात् उन्होंने यह मंत्र कह सुनाया – नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यों, न मेद्यया न बहुना श्रुतेनपि अर्थात् ‘प्रभु की प्राप्ति ईश-संबंधी प्रवचनों के सुनने अथवा तीव्र बुद्धि से या अत्याधिक श्रुतिवान बनने से नहीं हो पाती। जिस किसी पर अपनी कृपा करके प्रभु उसे अपना भक्त चुन लेते हैं, उसे ही प्रभु का सही रूप समझ में आ पाता है। इसी महामंत्र ने मुंशीराम को सदा हेतु आस्तिक बना दिया था। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ से मिला महा-प्रकाश सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने के बाद मुन्शीराम जी का जीवन ही बदल गया। यह सन् 1890 की बात है। उनके मन में आर्य समाज के प्रति समर्पण की भावना जाग उठी। शीघ्र ही वे लाहौर आर्य-समाज के अग्रणी नेता माने जाने लगे। धीरे-धीरे वे पूरे राष्ट्र के आर्य नेता बन गए।

मानव-निर्मात्री शिक्षा प्रणाली का उपयोग मुन्शीराम जी प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति के परिपोषक थे। उन्हें दृढ़ विश्वास था कि गुरुकुलीय शिक्षा-प्रणाली द्वारा ही मानव-मात्र का बहुमुखी विकास संभव है। इसी लिए उन्होंने गुरुकुल, कांगड़ी की स्थापना की थी। यहाँ  पर वैदिक शिक्षा के साथ रसायन- विज्ञान, भौतिकी, प्राणी-विज्ञान आदि जैसे विषय भी पढ़ाए जाते थे। आज यह गुरुकुल  एक अग्रणी विश्व विद्यालय के रूप में विश्वभर की ख्याति अर्जित कर रहा है। राष्ट्र-प्रेम का अनुकरणीय उदाहरण गांधी जी मुंशीराम जी से बहुत  प्रभावित थे। दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने पर वे सबसे पहले मुंशीराम जी से मिलने हरिद्वार गए थे। वे, मुंशीराम जी को ‘बड़ा भाई’ कहा करते थे। मुंशी राम जी ने ही सबसे पहले उन्हें ‘महात्मा’ कहकर पुकारा था। गांधी जी ने उन्हें अमृतसर के कांग्रेस- अधिवेशन  का स्वागताध्यक्ष बनाया था। इससे कुछ ही समय पूर्व अमृतसर का जलियांवाला बाग काण्ड घटित हुआ था। वहां के लोग सहमे- सहमे से थे। वहाँ पर कांग्रेस का अधिवेशन करवाना एक असंभव-सी बात व टेढ़ी खीर जैसा ही था। पर महर्षि के उस अनन्य भक्त ने असंभव को संभव कर दिखाया। इस सफलता के पीछे थी उनकी राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना। उन्होंने असहयोग आंदोलन में एक अग्रणी नेता के रूप में कार्य किया। देश – प्रेम की भावना उनकी रग-रग में समायी थी। इसीलिए अंग्रेज शासक उन्हें शक की निगाहों से देखा करते थे। एक बार एक अंग्रेज अधिकारी  ने उनसे पूछा था, आप अपने गुरुकुल में बम भी बनाते है? बनाता  हूँ । मेरा प्रत्येक छात्र एक बम ही तो है, उनका सपाट उत्तर था।

राष्ट्र – भाषा से अनन्य प्रेम स्वामी श्रद्धानन्द  जी को अपने श्रेद्धेय  गुरु से स्वराज्य, स्वदेश, स्वभाषा आदि के उच्च आदर्श मानो बपौति में प्राप्त हुए थे। इसीलिए वे हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक बन कर सामने आए। उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद पर पर्याप्त ख्याति पाई थी। अमृतसर के कांग्रेस अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष के रूप में उन्होंने अपना भाषण हिन्दी में दिया। कांग्रेस पार्टी के मंच से  इससे पूर्व सभी भाषण इंगलिश में ही दिए जाते थे। स्वामी जी ने वर्षों से चली आ रही परंपरा को एक किनारे रख कर अपनी राष्ट्र – भाषा का मान बढ़ाया। उन द्वारा स्थापित ‘गुरुकुल कांगड़ी’ में विज्ञान आदि विषयों सहित सभी विषय हिन्दी में ही पढ़ाए जाते थे। उस काल में विज्ञान आदि विषयों की स्नातक स्तर की पुस्तकें हिन्दी में तैयार करवाना कितना दुष्कर कार्य रहा होगा। महान व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धाभाव रेम्जे मेकनाल्ड इंग्लैड के प्रधानमंत्री थे। सन् 1924 में उन्होंने लिखा था, यदि कोई ईसा मसीह की मूर्ति बनाना चाहे तो वह स्वामी श्रद्धानन्द जी को अपने सम्मुख बिठा ले तथा उनकी ही प्रतिमूर्ति बना ले। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका से स्वामी श्रद्धानन्द जी को अपने एक पत्र में लिखा था, आप अपने गुरुकुल के छात्रों को स्वतंत्रता-प्राप्ति के उच्च संस्कारों से सुशोभित कर रहे हैं। भारत लौटने पर मैं आपके चरणों में अपना शीश झुकाना चाहूंगा। स्वामी जी को एक मतान्ध मुस्लिम ने मार डाला था। तब गांधीजी ने कहा था, वे स्वामी श्रद्धानन्द एक वीर योद्धा थे। वीर कभी चारपाई पर पड़ा-पड़ा नही मरता। वह युह्क्षेत्र में ही वीरगति पाता है। उनकी वीरता से मुझे ईष्र्या हो रही है। डा. अम्बेडकर के अनुसार वे दलितों के सर्वोच्च नेता थे। अनेक महापुरुषों ने उनके गुणों व कार्यों की जी खोलकर प्रशंसा की है। हमें अत्यंत गर्व है कि हम सब उस संस्था से जुड़े है, जिसका नेतृत्व उस महाबली के हाथों में रहा। उन्हें हमारी ओर से शत-शत प्रणाम।

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