उपरोक्त प्रश्न को लेकर जान समुदाय में विभिन्न भ्रांतियां फैली हुई है । कोई केवल साक्षरता मात्र को शिक्षा कहता है । तथा बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगो की भी है।
जो केवल रोजगार मिल जाने तक ही शिक्षा को मानते है पाठको की जानकारी के लिए बता दे की ये दोनों ही विचार धाराएं अपूर्ण है ये विचार समाज को पूर्ण सुखी नहीं कर सकते है इसका परिणाम हम और आप दोनों ही जनसमाज में चल रहे पारिवाहिक कलह सामाजिक ढांचा एवं राष्ट्रीय स्तर किस किस प्रकार से “किकर्त्तव्यविमूढ” है विचार सकते है।
तो आइये चलते है इसके पूर्ण समाधान की ओर ऋषि दयानन्द द्वारा प्रणीत पठन की तृतीया पुस्तक व्यव्हार भानु मैं शिक्षा की परिभाषा लिखते हुए कहते है की जिससे मनुष्य विद्या आदि शुभ गुणों की प्राप्ति और अविद्यादि दोषो को छोड़ के सदा आनंदित हो सके वह शिक्षा कहलाती है ।
इसके आगे संस्कृत भाषा की एक सूक्ति सन्देश देती है।
कि “सा विद्या या विमुक्तये ” विद्या वही जो मुक्ति को प्राप्त कराये अर्थात (शिक्षा वही जो प्राणी को मात्र पूर्ण सुखी कर सके) शिक्षा का मुख्य उद्देश्य !
मनुष्य में विवेक शक्ति को जाग्रत करना उसके चरित्र को शुद्ध और पवित्र बनाना उसकी वौद्धिक शक्ति का विकास करना ।
शारीरिक मानसिक और आत्मिक उन्नति करना निकृष्ट स्वार्थ भाव को नष्ट करके नि:स्वार्थभाव जाग्रत करना और जीवन को सर्वप्रकारेण उन्नत करना तथा शिक्षा ही मनुष्य को पशु से पृथक (अलग) करती है शिक्षा के द्वारा मनुष्य बुद्धिमान और विद्वान होता है । शिक्षा के द्वारा मनुष्य शुभ, अशुभ, पाप , पुण्य, उचित, अनुचित, धर्म, अधर्म, को ठीक – ठीक समझता है । वह उनमे से उत्तम वस्तुओं गुणों को स्वीकार कर लेता है और अनुचित को छोड् देता है।
शिक्षा से मनुष्य अपने कर्त्तव्य को जानकर एक सुयोग्य नागरिक होता है । वह जनोपार्जन करके अपनी उन्नति करता है और अपनी विद्या के द्वारा समाज और विश्व को उन्नत करता है।