धृतव्रताः क्षत्रिया यज्ञनिश्कृतो बृहाद्दिवा अध्वराणामभिश्रियः। अग्निहोतार ऋतसापो अदुहोऽपो असृजन्ननु त्रतेर्ये।। ऋ. 10/66/8
अर्थ-(धृतव्रताः) अन्याय को दूर करने का व्रत किया हो जिसने (क्षत्रियाः) पर पीड़ा-निवारक (यज्ञ निश्कृतः) यज्ञादि उत्तम कर्मों को निःषेश रुप से करने वाले (बृहत् दिवा) महा तेजस्वी (अध्वराणाम् अभिश्रियः) अंहिसा की श्री से षोभित (अग्नि होतारः) अग्निहोत्र करने वाले (ऋतसापः) सत्य से युक्त (अद्वहः) द्रोह-रहित क्षत्रिय (वृत्र तूर्ये) दुश्टों या बढ़ते षत्रु को नाष करने के कार्य में (अनु) निरन्तर (अपः असृजन्) उद्योग, परिश्रम करते हैं।
ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैष्य, षूद्र ये षब्द जातिवाचक न होकर गुणवाचक हैं। विद्याध्ययन के पष्चात् जैसे आजकल विष्वविद्यालयों में उपाधियां प्रदान की जाती हैं वैसे ही अपने गुण, कर्म, स्वभाव और रुचि के विशय में दक्षता प्राप्त विद्यार्थी को प्राचनी समय में ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैष्य, षूद्र की उपाधि या उक्त वर्ण में दीक्षित किया जाता था। इनमें प्रथम तीन इन वर्णों की दीक्षा व्रत या षपथ ग्रहण करते थे। इसलिए इन्हें ‘धृतव्रता कहा जाता था। तद्यथा-ब्रह्मण व्रत चारिणः (ऋ. 7.103.1) व्रतों का पालन करने वाले ब्रह्मण, धृतव्रता क्षत्रियाः धृतव्रतो धनदाः सोमवृद्धः (ऋ. 6.19.5) धनैष्वर्य की वृद्धि करने वाले कर्मों में प्रवृत वैष्य जन। इन तीनों वर्णों वालों ने अपने वर्ण के अनुसार कार्य करने का संकल्प लिया है। षूद्र का बौद्धिक विकास उतना नहीं हो पाया कि जिससे वह इनमें से किसी दायित्व का वहन कर सके, परन्तु वह षरीर से सुदृढ़ औश्र धार्मिक है इसीलिये उसे इन तीनों वर्णों के कार्यांे में सहयोग देने का विधान किया है जहां प्रषिक्षण प्राप्त कर वह भी अपना वर्ण परिवर्तन कर सकता है।
1. धृतव्रताः क्षत्रिय उसे कहते हैं जिसने अन्याय का निवारण करने का व्रत या दीक्षा ग्रहण की है और वेदों तथा मनुस्मृति आदि में वर्णित सभी कत्र्तव्यों के पालन का व्रत ग्रहण किया है। इसलिए उसे धृतव्रत या क्षात्रधर्म में दीक्षित मन्त्र में कहा है।
2. क्षत्रियाः क्षतात् त्रायते जो प्रजा को अन्याय, अत्याचार से बचाये वह क्षत्रिय कहलाता है।
3. यज्ञ निश्कृतः यज्ञादि उत्तम कर्मों को करने और उनकी रक्षा करने वाले। जैसे श्रीराम-लक्ष्मण ने विष्वमित्र के यज्ञ की रक्षा की।
4. बृहद दिवा- महातेजस्वी, जिसके बल-पराक्रम की दुन्दुभि द्युलोक तक गूंज रही हो।
5. अध्वराणामभिश्रियः– अहिंसा की री से सुषेभित, बडे़-बडे़ अष्वमेध, राजसूय आदि के करने से लब्धप्रतिश्ठित।
6. अग्निहोतारः– अग्निहोत्र, यज्ञ करने वाले।
7. ऋत सापः सत्य से युक्त, जिनकी कथनी-करनी एक जैसी हो प्राण जाय पर वचन न जाई।
8. अद्वहः– द्रोह से रहित, पुत्रवत् प्रजा के पालन में तत्पर।
9. अपो असृजन्ननु वृत्रतूर्यें- दुश्टों के विनाष में सदैव प्रयत्नषील क्षत्रियों का कर्म षरीर-आत्मा का बल बढ़ा साम्राज्य की स्थापना करना है-
ऋतावाना नि शेदतुः साम्राज्याय सुक्रतू। धृतव्रता क्षत्रिया क्षत्रमाषतुः।। ऋ. 8.25.8
नियमों का पालन करने वाले, सत्याचरण वाले क्षत्रिय सर्वप्रथम क्षत्रमाषतुः क्षात्र तेज प्राप्त करते हैं। वे षरीर की बल वृद्धि, संयम, सदाचार से युक्त और षस्त्रास्य एवं युद्धकला का प्रषिक्षण प्राप्त कर साम्राज्याय निशेदतुः साम्राज्य की स्थापना के लिये प्रयत्न करते हैं।
क्षत्रिय के कर्म-प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च। विशयेध्व प्रसक्त्ष्चि क्षत्रियस्य समासतः।। मनु. 1.89
न्याय से प्रजा की रक्षा करना, विद्या, धर्म की वृद्धि और सुपात्रों को दान देना, अग्निहोत्र करना, वेद का स्वाध्याय करना और विशयों में न फंसकर जितेन्द्रिय तथा षरीर-आत्मा से बलवान् रहना ये संक्षेप में क्षत्रिय के कर्म है। जो अपने मन एवं इन्द्रियों को वष में रखता है, वही साम्राज्य या चक्रवर्ती साम्राज्य की प्राप्ति में सफलता प्राप्त कर सकता है।
षौर्य तेजो धूतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्। दानमीष्वर भावष्च क्षात्रकर्म स्वभावजम्।। गीता 18.6।।
षूरवीरता-अकेला होने पर भी सैकड़ों के साथ युद्ध करने में समर्थ, सदा तेजस्वी-दीनता रहित, धैर्यवान होना, राज और प्रजा सम्बन्धी व्यवहार और सब षास्त्रों में अति चतुर होना, रणभूमि में पीठ न दिखाना, दान षीलता और ईष्वरभाव अर्थात् पक्षपातरहित हो सबसे यथायोग्य व्यवहार करना ये गुण क्षत्रिय के हैं।
महाभारत षान्तिपर्व अध्याय 60 में क्षत्रिय का धर्म विस्तार से बतलाया है- नासय कृत्यतमं किंचिदन्यत् दस्यु निबर्हणात्। दस्यु, लुटेरों को मारने से बढ़कर दूसरा कोई श्रेश्ठतम कार्य क्षत्रिय का नहीं है। क्षत्रिय इसीलिये षस्त्रास्त्र धारण करता है कि नार्तनादो भवैदिति किसी निरपराध का आर्तनाद न होने पाये। क्षत्रिय दान तो करे परन्तु किसी से दान नहीं ले। वह यज्ञ करे किन्तु किसी का पुरोहित बन यज्ञ न करवाये। वह अध्ययन करे किन्तु अध्यापक न बने। उसका मुख्य कार्य प्रजा का पालन करना है।
जो क्षत्रिय षरीर पर घाव हुये बिना ही समरभूमि से लौट आता है, विद्वान् लोग, उसके इ कृत्य की प्रषंसा नहीं करते है। यद्यपिद ान, अध्ययन और यज्ञादि के अनुश्ठान से भी राजाओं का कल्याण होता है तथापि युद्ध उनके लिये सबसे बढ़कर है। धर्म की इच्छा रखने वाले राजा को सदैव युद्ध के लिये उद्यत रहना चाहिये।
राजा का यह भी कत्र्तव्य है कि प्रजा को अपने-अपने धर्मों में स्थापित करके उनके द्वारा षान्तिपूर्ण समस्त कर्मों का धर्म के अनुसार अनुश्ठान कराये।
राजा दूसरा कर्म करे या न करे, प्रजा की रक्षा करने मात्र से वह कृतकृत्य हो जाता है। राजा द्वारा सुरक्षित प्रजा जब धर्माचरण करती है तो उसका छठा भाग राजा को भी प्राप्त होता है। -क्रमषः