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अनुष्ठान के नाम पर तपस्या या शोषण..?

कुछ पल को सोचिये! धार्मिक अनुष्ठान के नाम पर आज के भारत में पांच से 12 साल के मासूम बच्चों के शरीर को लोहे के हुक से छेदा जाता हो, परम्परा के नाम पर बांह के नीचे त्वचा में लोहे के हुक से छेद करने के बाद उसे धागे से बांध दिया जाता हो और यह पीड़ादायक परंपरा लगातार सात दिन चलती हो तो क्या इसे धार्मिक अनुष्ठान कहा जायेगा? यदि हाँ तो फिर कठोर मानसिक और शारीरिक शोषण किसे कहा जाता है? केरल में एक सरकारी अधिकारी श्रीलेखा राधाम्मा ने एक हिंदू मंदिर में इस धार्मिक परंपरा का विरोध किया हैं

दरअसल दक्षिण भारत के एक राज्य केरल के एक हिंदू मंदिर में धार्मिक  परंपरा पूरी श्रद्धा से चल रही है. इनमें अधिकांश बच्चें श्रद्धालुओं के होते हैं और उन्हें अपने जीवन में इससे एक बार गुजरना होता है. इस शारीरिक प्रताड़ना को तपस्या बताया जाता है, जिसमें बच्चे को जमीन पर सोना पड़ता है और 1008 बार दंडवत प्रणाम करना पड़ता है. इस अनुष्ठान के दौरान सभी बच्चे बलि के बकरे की तरह दिख रहे होते है.

हालाँकि राज्य में इसके खिलाफ कानून है, इस कृत्य को अपराध की श्रेणी में भी गिना जाता है लेकिन जब परम्परा के प्रति श्रद्धा में डूबे लोग इसके खिलाफ कुछ नहीं करना चाहते तो कौन इसकी शिकायत करेगा? मां-बाप तो नहीं करेंगें और जो लोग यह सब देखते हैं उनकी सुनी नहीं जाएगी.”

बताया जा रहा है कि इस परम्परा में शामिल बच्चें सिर्फ एक कमर वस्त्र पहनते हैं, तीन बार ठंडे पानी में डूबे होते हैं, इस धार्मिक परंपरा का अभ्यास तिरुवनंतपुरम के अत्तुकल भागवती मंदिर में किया जाता है, जिसे वो कुथीयोट्टम कहते हैं.कहा जाता इस परम्परा में अधिकांश गरीब तबके के परिवारों के बच्चों को पैसों के बदले अमीर परिवारों के द्वारा खरीदा जाता है. विडम्बना देखिये इस परम्परा में शामिल बच्चों को उनके माता पिता को देखने तक नहीं दिया जाता.

सबसे हैरान कर देने वाली बात है वो यह कि इस त्यौहार के बाद इन बच्चों का क्या होता है? चूंकि इस प्रथा का मतलब यह है कि भगवान को मानव बली प्रदान की गई है, अत: बाद में उन बच्चों का पूरी तरह से सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है, यह समाज उन्हें हमेशा के लिए मृत मान लेता है. लोग उन्हें मनहूस मानते हैं और यही व्यवहार उनके साथ जीवन भर किया जाता है.

राजनीतिक संरक्षण प्राप्त इस मंदिर से इस प्रथा को बंद करने की सभी कोशिशें अब तक बेकार ही गईं हैं. ये बेहद दुखद है कि यह सब उस राज्य में हो रहा है जहां पर साक्षरता का पैमाना देश में सबसे ज्यादा है. और उससे भी दुखद है कि कुछ बेहद ही रसूखदार और मजबूत लोगों के शामिल होने की वजह से अबतक इसपर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है. इस दमनकारी प्रथा से लड़ रहे सभी लोगों के पास बस एक ही रास्ता बच जाता है, वो है उम्मीद का रास्ता. उम्मीद यह कि एक दिन इतनी जागरूकता होगी कि लोग इसको गलत मानेंगे और सरकारी तंत्र नींद से जागेगा. ताकि हर साल कम से कम 24 मासूम बच्चे बचाए जा सकें.

हालाँकि भारतीय संस्कृति सदियों से कई कुप्रथाओं, परंपरा और रीति रिवाजों को आस्था के नाम ढो रही है. मसलन परेशानी कितनी भी हो लेकिन पूर्वजों द्वारा दी आज्ञा निरंतर जारी रखी जा रही है. इसमें किसी कुप्रथा को, बिना सोचे समझे बिना तर्क की कसोटी पर कसे और बिना किसी परिवर्तन के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ियों में सदियों श्रद्धा के नाम दिया जा रहा है. लोग अपने निजी स्वार्थ के चलते इन परंपराओं को धर्म का हिस्सा बनाकर गर्व से अपने भाव व्यक्त भी करते है.

हम सभी परम्पराओं पर प्रश्न चिन्ह नहीं उठा रहे है क्योंकि यज्ञ, हवन जैसी बहुत सारी परम्पराएँ हमारी वैदिक कालीन आज भी बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी शोषण के अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है. ये परंपराएं हमारे ऋषि मुनियों द्वारा द्वारा निर्मित हैं. यह सदियों से निरंतर जारी हैं. इन परंपराओं के पीछे उद्देश्य यह था कि हम अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज और भारतीय संस्कारों को न भूलें. लेकिन एक 250 साल पहले बनी परम्परा को धर्म का हिस्सा बताकर मासूम बच्चों का शोषण करना कहाँ तक उचित है?

दरअसल, परम्पराओं का रुपांतरण प्रथाओं में बदलाव कुछ लोगों द्वारा किया जाता है. जो परंपराओं की छांव में लालच, असहिष्णुता और कई तरह की सामाजिक विसंगतियों की पूर्ति करना चाहते हैं. हालांकि यह काफी हद तक अपने कार्य में सफल भी हो जाते हैं. इसी कारण लाख कोशिशों के बाद भी अपने देश से यह कुप्रथा पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाई.

जिस तरह शरीर को कष्ठ देकर इसे तपस्या का नाम देकर ढोंग किया जा रहा है ऐसे ढोंग आप देश के भिन्न-भिन्न धर्म स्थलों में देख सकते है. कोई एक मुद्रा से, यथा–हाथों को उठाए खड़ा मिलेगा, कोई पैर पर खड़ा दिखता है. कोई काँटों पर लेटा है. तो कोई रेंग-रेंगकर मंदिर दर्शन को जाता है. ऐसे अनेक कथित तपस्वी और हठयोगी भारतवर्ष के सभी कोनों, विशेषत तीर्थों, आश्रमों, नदी के किनारों और पर्वतों की कंदराओं में मिलेंगे. सर्वसाधारण वर्ग विश्वासी और श्रद्धालु समाज ऐसे तपस्वियों का बखान करने से नहीं चुकता उनमें किसी अतिमानवीय अथवा आध्यात्मिक शक्ति के प्रतिष्ठित होने में विश्वास भी करने लगते है.

सामाजिक मान्यता मिलने के कारण इन्हें बढ़ावा मिलता रहा है. इसी कारण कुप्रथाओं ने विकराल रूप धारण कर लिया. अशिक्षा और अज्ञानता की वजह से कुछ लोग इन कुप्रथाओं को अब भी ढोए जा रहे हैं.जबकि सब जानते है कि यह संसार हर क्षण बदलता है, इसलिये उसके पीछे कोई ऐसी सत्ता अवश्य होनी चाहिये जो कभी न बदलती हो. वही सत्ता परमात्मा है, वही सत्य है. ऐसे में हमें वास्तविक परंपराओं को ही जीवित रखना चाहिए. कुप्रथाओं का अंत देश, समाज और परिवार सभी के लिए मंगलकारी होगी….विनय आर्य

 

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