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ईद का चाँद और योगिराज श्री कृष्ण

हिन्दी भाषा के शब्द संस्कार को उर्दू भाषा में तहजीब कहा जाता है और अक्सर देश में गंगा जमुनी तहजीब के बहुत गीत गाये जाते हैं। इनके अनुसार ये तहजीब मिसाल है हिन्दू-मुस्लिम एकता की, ये तहजीब उदहारण है आपसी समरसता का। इस तहजीब के अनुसार कोई सनातन वैदिक धर्म पर कितने भी आघात करे तो तहजीब मुस्कुराती है किन्तु यदि आप किसी वर्ग विशेष के कार्यों पर सवाल उठाते हैं तो ये तहजीब भड़क उठती है इसे खतरा महसूस होने लगता है। ये देश को बाँटने तोड़ने और हिंसा तक करने की बात भी करने लगती है।

 इसी तहजीब के गर्भ से ईद के एक दिन पहले एक पेंटिंग सोशल मीडिया पर पेश हुई। एक पेंटिंग, जिसमें योगीराज भगवान श्रीकृष्ण एक चांद की तरफ उंगली से इशारा कर रहे हैं। उनके आस-पास बच्चों से लेकर बड़े-बुजुर्गों की एक टोली खड़ी है। कृष्ण एक शख्स पर हाथ रखे हुए हैं सोशल मीडिया के दावे के मुताबिक, हुलिए से मुसलमान लग रहे उस शख्स को कृष्ण ‘‘ईद का चांद’’ दिखा रहे हैं। तो इसे गंगा-जमुनी तहजीब, भारतीय संस्कार और सामुदायिक सद्भावना के प्रतीक की तरह पेश किया गया। 16 जून को स्वराज इंडिया के योगेंद्र यादव, कांग्रेस नेता शशि थरूर ने इस तस्वीर को ट्वीट किया और ईद की शुभकामनाएं भी दी थीं।

 लेकिन इस तस्वीर पर विवाद भी शुरू हुआ। लोगों को गुस्सा आया उन्होंने इस तस्वीर पर सवाल भी उठाये और इसे झूठी चाल बताया। दरअसल श्री कृष्ण जी की ये पेंटिंग पिछले तीन-चार वर्षों से शेयर की जा रही है। बताया जा रहा है कि 17वीं-18वीं सदी में बनी इस पेंटिंग में कृष्ण अपने साथियों को ईद का चांद दिखा रहे हैं और टोली में कुछ मुसलमान भी नजर आ रहे हैं। कृष्ण की इस लीला को हिन्दू-मुस्लिम एकता के चश्मे से देखा जा रहा है। साथ ही ये भी कहा जा रहा है कि डॉ दीपांकर देब की पुस्तक ‘‘मुस्लिम डिवोटिज ऑफ कृकृष्णा’’ में इस पेंटिंग को ईद से जोड़ते हुए उ(ृत किया था। जोकि 2015 में प्रकाशित हुई थी। किताब के प्रकाशित होने के बाद, शबाना आजमी जैसे कुछ और तथाकथित सेकुलर लोगों ने भी इस तस्वीर को उठाया और ईद के साथ उसे जोड़ा। इसे हिन्दू मुस्लिम से जोड़ते हुए यह दिखाने की कोशिश की जैसे इस्लाम पुरातन धर्मो से एक है जिसका इतिहास द्वापर युग से मिलता है जबकि डॉ दीपांकर देब एक स्वघोषित वैष्णवी हैं। इतिहास में उनकी नगण्य पृष्ठभूमि है। लेकिन कथित स्वयंभू सेकुलर लोग इसे कृष्ण की लीला में जोड़ने से जरा भी बाज नहीं आये।

एक प्रसिद्ध कहावत है कि किसी का भरोसा जीतकर उसे मूर्ख बनाना सबसे आसान होता है,  आँखों में धूल झोंककर किसी के साथ भी धोखा किया जा सकता है। इसी को ध्यान में रखते हुए इन लोगों ने इस पेंटिंग को परोस दिया क्योंकि ये लोग जानते है कि जब तक पेंटिंग का सच लोगों के सामने आएगा तब तक ये अपना काम कर चुके होंगे।

 हमेशा सवालों के गर्भ से जवाब पैदा होते आये हैं इस पेंटिंग में भी यही हुआ। कला-इतिहासकारों में जाने माने नाम और पद्मश्री से सम्मानित बी एन गोस्वामी ने कहा है कि इस पेंटिंग का ईद से कुछ लेना-देना नहीं है। इस तरह की अन्य पेंटिंग टिहरी-गढ़वाल कलेक्शन की हैं, जिन्हें नैनसुख पहाड़ी और मानकु के खानदान में बनाया गया था। पेंटिंग में श्री कृष्ण के जीवन की एक कम चर्चित छोटी सी घटना को दर्शाया गया है। इसके मुताबिक, श्रीकृष्ण बलराम के साथ मिलकर अपने मामा कंस का वध करने के बाद कुरुक्षेत्र में घूमे तभी वह एक नदी के किनारे आए। यहां अपने गोद लिए परिवार के साथ उन्होंने सूर्यग्रहण देखा, पेंटिंग में जो चोगा पहने बुजुर्ग दिख रहे हैं वे कृष्ण के पालक पिता नंद हैं। इस पोशाक की सबसे खास बात है कि ये बाईं बगल में बंधी है जो इसके हिन्दू पोशाक होने की बानगी है। वहीं मुगल काल में मुस्लिम पोशाक को हमेंशा दाईं बगल के नीचे बांधते थे। लेकिन जब तक इस पेंटिंग के तथ्यों पर से पर्दा उठा तब तक तो नया विवाद शुरू हो चुका था। जिसमें कई लोगों ने ये सवाल किया कि कृष्ण को ईद मनाते हुए दिखाने वाले क्या इस्लाम के पैगम्बर को दीपावली मनाते दिखा सकते हैं? वह तो कृष्ण के हजारों वर्ष बाद आये न कि पहले।

भले ही एक चित्र से कथित गंगा-जमुनी तहजीब को गाढ़ा किये जाने का प्रयास किया जा रहा हो लेकिन इतिहास में कुछ चित्र अमिट है, जबकि ये चित्र तो महज कल्पना है लेकिन यथार्थ में तो बामियान में टूटी हुई बुद्ध प्रतिमा है, तक्षशिला, नालंदा या साँची के स्तूप का विनाश है। तारीख के स्याह पन्नों पर बख्तियार खिलजी और ओरंगजेब की ज्यादतियों की कहानी कभी मिटाई नहीं जा सकेगी कृष्ण जन्मस्थान मथुरा में उनके मंदिर के आधे हिस्से को गिराकर मस्जिद का निर्माण होना हो या सोमनाथ के मंदिर को ध्वस्त कराना भला अपने मंदिरों, प्राचीन शिक्षा के केन्दों उनके बिखरे अवशेषों को आजादी के बाद तक समेटने वाले लोग एक चित्र से कैसे प्रभावित हो सकते हैं?

-राजीव चौधरी

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