Categories

Posts

गणतंत्र में एक बार फिर गनतंत्र

माओवादियों से मुठभेड़ में सुरक्षाबल के 22 जवानों की मौत ने सरकार के उन दावों को ग़लत साबित कर दिया है, जिसमें कहा जा रहा था कि पिछले दो साल में माओवादी कमज़ोर हुए हैं। हालांकि, राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने फिर दोहराया है कि माओवादी सीमित क्षेत्र में सिमटकर रह गये हैं और वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह रणनीतिक चूक थी या इसे खुफ़िया तंत्र की असफलता माना जाना चाहिये? क्या जवानों में आपसी तालमेल की कमी थी, जिसके कारण अत्याधुनिक हथियारों से लेस दो हज़ार जवान, कुछ सौ माओवादियों का मुकाबला नहीं कर पाये?

ऐसे सभी सवालों को कुछ देर अफीम सुंघा कर छोड़ दीजिये क्योंकि शहरी बोद्धिक नक्सली अपना तर्क रख रहे है कि यह हमला इसलिए किया क्योंकि उनके आधार इलाके में सुरक्षाबलों ने अपने झंडे गाड़ दिये हैं और माओवादियों के लिए अपने इलाके को बचा पाना मुश्किल हो रहा है? बताया जा रहा है कि एक दिन पहले से ही माओवादियों ने आसपास के जंगल में अपनी पोज़ीशन बना ली थी और पूरे गांव को खाली करवा दिया गया था। इसके बाद ऑपरेशन से लौट रही आखिरी टीम को निशाना बनाया गया।

भले ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कह रहे हो कि माओवादी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. लेकिन पिछले महीने भर में हुई बस्तर की इन अलग-अलग घटनाओं पर गौर करें तो 26 मार्च को बीजापुर में माओवादियों ने ज़िला पंचायत के सदस्य बुधराम कश्यप की हत्या कर दी। 25 मार्च को माओवादियों ने कोंडागांव ज़िले में सड़क निर्माण में लगी एक दर्जन से अधिक गाड़ियों को आग लगा दी। 23 मार्च को नारायणपुर ज़िले में माओवादियों ने सुरक्षाबल के जवानों की एक बस को विस्फोटक से उड़ा दिया, जिसमें 5 जवान मारे गए. इसी तरह 20 मार्च को दंतेवाड़ा में पुलिस ने दो माओवादियों को एक मुठभेड़ में मारने का दावा किया। 20 मार्च को बीजापुर ज़िले में माओवादियों ने पुलिस के जवान सन्नू पोनेम की हत्या कर दी।  

13 मार्च को बीजापुर में सुनील पदेम नामक एक माओवादी की आईईडी विस्फोट में मौत हो गई। 5 मार्च को नारायणपुर में आईटीबीपी के एक जवान रामतेर मंगेश की आईईडी विस्फोट में मौत हो गई। 4 मार्च को सीएएफ की 22वीं बटालियन के प्रधान आरक्षक लक्ष्मीकांत द्विवेदी दंतेवाड़ा के फुरनार में संदिग्ध माओवादियों द्वारा लगाये गये आईईडी विस्फोट में मारे गये।

अब राज्य के पूर्व गृह सचिव बीकेएस रे कहते हैं, “माओवादी एक के बाद एक घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। ऐसा नहीं लगता कि वे कहीं से कमज़ोर हुए हैं. सरकार के पास माओवाद को लेकर कोई नीति नहीं है। सरकार की नीति यही है कि हर बड़ी माओवादी घटना के बाद बयान जारी कर दिया जाता है कि जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी। मैं चकित हूं कि सरकार इस दिशा में कुछ भी नहीं कर रही है. कोई नीति होगी तब तो उस पर क्रियान्वयन होगा।”

बीकेएस रे की बात को सहमती की खडाऊं इस कारण मिल रही है क्योंकि देश में हर वर्ष आतंकवाद नक्सलवाद से लड़ने के मसौदे तैयार किये जाते है लेकिन बाद में या तो सरकार बदल जाती है या फिर मंत्री जिस कारण तैयार मसौदे गोलियों की तडतडाहट में कहीं उड़ जाते है। फिर ढाक के तीन पात वाली कहावत दिखाई देती है। लोगों को मुख्यधारा में लाये जाने की बात होगी या फिर सेना की और दस पांच टुकड़ी भूखे भेडियों के झुण्ड में फेंक दी जाती है।

दुनिया की कोई भी विचारधारा हो, यदि वह समग्र चिंतन पर आधारित है और उसमें मनुष्य व जीव-जंतुओं सहित सभी प्राणियों का कल्याण निहित होता है लेकिन पृथ्वी पर माओवाद नक्सलवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसके संदर्भ में गभीर चिंतन-मंथन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि मात्र कुछ समस्याओं के आधार पर और वह भी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर, इस रास्ते को खोजा गया। यही कारण है जिस तेजी से कभी यह विचारधारा पनपी थी उसी तरीके से अब यह अपने अंत की ओर अग्रसर है.यही कारण है कि  नक्सलवादी के दबदबे वाले 223 जिले थे जो अब सिकुड़ कर 107 रह गए हैं।

कोई कुछ भी कहे पर भारत में नक्सल की उम्र अभी बहुत बची है उसके कुछेक कारण है। एक तो नक्सलवाद को शहरी कलम और मगरमच्छ के मानवतावादी आसुओं से बहुत तेज डोज दी जा रही है. दूसरा नक्सलवाद का नेटवर्क कई राज्यों में फैला है और नक्सलवाद से लड़ने के लिए अलग-अलग राज्यों की एक नीति के बजाय अनेक नीति है। तीसरा नक्सल प्रभावित राज्यों में अशिक्षा और गरीबी भी इसका मूल कारण है इसके बाद प्रलोभन और भय. प्रलोभन यह कि जिस दिन नक्सलवाद जीत जायेगा उस दिन देश में समता आ जाएगी, कोई गरीब नहीं रहेगा, ना किसी पास आर्थिक परेशानी होगी न कोई दिक्कत। यह सपना कुछ इस तरह दिखाया  जाता है जैसे इस खूनी लड़ाई में भाग लेने वाला हर कोई सीधा प्रधानमंत्री बन जायेगा। यह सब बगदादी के जिहाद से मिलती जुलती प्रेरणा है, उसमे मरने के बाद लाभ दिखाया जाता है इसमें जीत सुनिश्चित होने पर। आज नक्सलवाद देश के लिए विध्वंसक साबित हो रहा है। इन कथित क्रांतिकारियों की गतिविधियों से देश की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। सुरक्षाबल और पुलिस के सैंकड़ों जवानों सहित अनगिनत निर्दोष लोग इस कथित आंदोलन के शिकार हुए हैं। आदिवासी लोगों की मुख्य समस्या यह है कि सेना और इस खुनी विचारधारा का वो लोग दोनों का शिकार बन रहे है।

पिछले कुछ सालों से भारत सरकार की तरफ से जो ये संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि नक्सली समस्या लगभग ख़त्म होने की कगार पर है, हर दिन मीडिया में नक्सली आत्मसमर्पण के ढोल बजते सुनाई देते है जिसे देखकर लगता है कि थोड़े बहुत समयमें इसका पूरा उन्मूलन हो जाएगा- ये गलत है। जब इस तरह की बात सरकार के तरफ से की जाती है तो इसकी प्रतिक्रिया नक्सलियों में होती है और वो कुछ ऐसा करके दिखाने की कोशिश करते हैं कि वो अभी ख़त्म नहीं हुए हैं। वो ये जता देना चाहते हैं कि, हमारे में अभी भी शक्ति बची हुई है और हम आपके अर्धसैनिक बलों पर हमला कर सकते हैं और उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं। बीजापुर में भी शायद उन्होंने यही संदेश देने की कोशिश की है। दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि राज्य पुलिस के एक जवान के घायल होने की भी ख़बर तक नहीं आती है, मरने की बात तो दूर रही। हालत बहुत चिंताजनक है। आज हमें नहीं दिखता कि कोई ऐसी नीति हो जिसके आधार पर भारत भर में माओवादियों के ख़िलाफ कोई अभियान चल रहा हो। सबकुछ अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग के सिद्धांत पर चल रहा है।

माना जाता है कि भारत के सैंकड़ों जिलों में से एक तिहाई नक्सलवादी समस्या से जूझ रहे हैं। विश्लेषक मानते हैं कि नक्सलवादियों की सफलता की वजह उन्हें स्थानीय स्तर पर मिलने वाला समर्थन है। सरकार को चाहिए कि कोई ठोस कदम उठाए जिससे हमारे जवान बार-बार अपने लहू से भारत माता की सेवा न करें। एक सैनिक की मौत के साथ एक पूरे परिवार के सपनों की और उम्मीदों की मौत हो जाती है। इसका दर्द नक्सली नहीं समझेंगे। क्यूंकि उनके लिए तो ये गरीब जवान केवल “व्यवस्था के दलाल” हैं. और इस तरह की अमानवीय घटना को अंजाम देने वालों के समर्थन में सबसे पहले तथाकथित माननवाधिकार संगठन झंडा बुलंद कर देते हैं। बोलते हैं, सीआरपीएफ जबरदस्ती करती है, एनकाउंटर फर्जी होते हैं। उन्हीं से हमारा यह सवाल है कि बीजापुर में जो हुआ है, उसमें किसका दोष है? किसके मानवाधिकार का हनन हुआ है? क्या ये भी फर्जी एनकाउंटर था? है कोई जवाब! नहीं होगा। क्योंकि जवाब देना इनके लिए शायद ‘राजनीति के लिहाज से सही नहीं होगा। लेकिन जवाब तो एक ना एक दिन देना ही होगा आखिर कब तक गणतंत्र में यह गनतन्त्र चलता रहेगा? शहीद हुए 22 जवानों को हमारी और अश्रुपूर्ण श्रद्धांजली।

विनय आर्य

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *