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हमें तो ये हिंदू ही नहीं मानते

कुछ इसी तरह के शीर्षक के साथ बीबीसी ने भारतीय एकता और जातिगत समरसता पर सवाल खड़ा किया है दरअसल यह मामला उस समय उभरकर आया जब पिछले हफ़्ते सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में भड़की हिंसा के बाद दलितों के घर जलाए जाने के बाद इलाके में तनाव नजर आया. इस दलित बहुल गांव में कुछ तथाकथित ऊँची जाति के लोग महाराणा प्रताप की जयंती पर शोभायात्रा निकाल रहे थे जिसके बाद हिंसक झड़प हो गई थी. दरअसल हिंसा महाराणा प्रताप को लेकर नहीं थी. हिंसा का असली कारण तेज आवाज में संगीत और फूहड़ नाच इस हिंसा की ओर इशारा कर रहा है. इसी तरह की एक अन्य घटना अभी इससे थोड़े दिन पूर्व सहारनपुर में ही अम्बेडकर शोभायात्रा के दौरान मुस्लिम समुदाय की ओर से दलितों पर हमले की खबर के बाद अखबारों में छाई थी. लेकिन मीडिया ने उस खबर को इतनी प्रमुखता नहीं दी थी.

भले ही आज लोग इस घटना को जातिवाद से जोड़कर देख रहे हो लेकिन इसमें मेरा मानना है कि धार्मिक जुलूस, शोभायात्रायें या झांकियां जिनमे कोई जिम्मेदार व्यक्ति, समाज या संगठन नहीं होता वहां देश के कई हिस्सों में साम्प्रदायिक तनाव का कारण बन चुकी है. ऐसे आयोजनों में अधिकतर युवा वर्ग शामिल होता है जिसमें चोरी छिपे शराब तक का भी परोसा जाना नकारा नहीं जा सकता. जोशीले गीत, बढ़-चढ़ कर दिए गये भाषण कई बार हिंसा के कारक बन जाते है. यदि इस ताजा मामले को देखे तो प्रशासनिक अधिकारी भी एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करते नजर आ रहे हैं. सहारनपुर के एसडीएम मनोज सिंह ने एक टीवी चैनल को बताया कि अगर पुलिस मुस्तैद होती तो सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में हुई हिंसा को रोका जा सकता था.

सवाल सिर्फ एक शब्बीरपुर का नहीं है सवाल उठता है कि महापुरुषों के नाम पर निकाले जाने वाली शोभा यात्राएं उपद्रव और हिंसा का बारूद क्यों बनती जा रही हैं? गौरतलब है कि सहारनपुर की दोनों की घटनाओं में बिना अनुमति के जुलूस निकाले जा रहे थे. हमें नहीं पता शोभा यात्राओं के नाम पर जुलूस के जरिए दबंगई दिखाने की यह प्रवृत्ति कितनी जायज है? लेकिन पहले इस तरह की घटनाएँ सिर्फ देश के कुछ चुनिन्दा शहरों में देखनें को मिलती थी लेकिन अब यह रोग कस्बों और गांवों तक पहुँच गया.

अभी तक इस रोग से गाँव मुक्त थे किसान और मजदुर की एक दुसरे पर निर्भरता लोगों को जोड़े रखती थी. जाति सूचक शब्दों इस्तेमाल कर कथित ऊँची जाति दूसरी अन्य जातियों को प्रताड़ित ना करती हो इससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता है किन्तु वो शब्द आत्मसम्मान का सवाल नहीं बनते थे. जिस कारण जातीय संघर्ष इतना नहीं था. लेकिन जिस तरह अब जातीय नेता व मीडिया इन घटनाओं का विश्लेषण करती है उससे जातिवाद और कई गुना मजबूत हो रहा है. हर एक घटना को जातीय तराजू में तोला जाना भी राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं है. क्योंकि जातीय संगर्ष जोकि मात्र कुछ लोगों के कारण हुआ मीडिया के दुष्प्रचार की वजह से पहले अडोस-पडोस के गांवों जिलों इसके राष्ट्रीय स्तर पर फैल जाता है.

इस घटना के बाद जब आरोप-प्रत्यारोप का दौर आया तो दलित समाज से सम्बन्ध रखने वाले देशराज सिंह कहते हैं,  कि “हमें तो ये हिंदू ही नहीं समझते वरना हमारे साथ वो यह सब करते? इस तरह के सवाल भी देश की सामाजिक समरसता पर प्रहार करते है में यह नहीं कहता कि कथित ऊँची जाति के लोगों ने जो किया वह सही था नहीं बल्कि दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए ताकि निर्बलों कमजोरों की न्याय और प्रशासन के प्रति आस्था बढे पर साथ ही इस तरह की बयानबाजी से भी बचना चाहिए.

दलितों पर या कमजोरों इस या उस बहाने होने वाले अत्याचार नए नहीं है. तथाकथित अगड़ा और प्रभावशाली वर्ग, हमेशा से सत्ता से अपनी नजदीकी का फायदा उठा कर कमजोर समुदाय पर अत्याचार करता रहा है. गुजरात के ऊना में गौरक्षा के नाम पर हुई हिंसा के विपक्ष की बड़ी नेता ने तो इसे सामाजिक आतंकवाद का नाम तक दे डाला था. हालाँकि अब उत्तर प्रदेश की नई नवेली सरकार इस तरह के मामलों के प्रति सख्त रुख अख्तियार करती दिखाई दे रही है इस वर्ष अंबेडकर जयंती पर बीजेपी सरकार ने जगह-जगह समरसता भोज का आयोजन किया था वह दलितों की समानता के हक में हर कदम उठाने के लिए साथ ही उनके साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ भी खड़ी दिखाई भी दे रही है.

भारत के चुनावी बाजार में राजनीतिक निर्माताओं द्वारा तैयार किए गए और एक दूसरे से आगे बढ़कर दिए जा रहे बयान क्या कभी सामाजिक समरसता का सपना पूरा होने देंगे मुझे नहीं लगता क्योंकि ऐसी घटनाओं के बाद यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अख़बारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. इस समय ऐसे लेखक बहुत कम हैं, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत हो. दूसरा सोशल मीडिया पर भ्रामक प्रचार भी ऐसे माहोल में आग में घी का काम करता दिखाई देता है

आज समय है कि भारतीय नेता मैदान में उतरे हैं और धर्म और जाति को राजनीति से अलग करने का काम करें झगड़ा मिटाने का यह भी एक अच्छा इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं. यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो देश में सामाजिक समरसता और विकास पूर्ण कार्यों में सभी इकट्ठे हो सकते हैं. जिससे भारतीय एकता और जातिगत समरसता पर कोई विदेशी मीडिया सवाल न खड़ा कर सके.

राजीव चौधरी

 

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