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क्या मानवीय संवेदना का भी अंतिम संस्कार हो गया?

वो दिन 24 अगस्त 2016 का था, जब ओडिशा के कालाहांडी में दाना मांझी को अपनी पत्नी अमंग देवी का शव कंधे पर रखकर करीब 10 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ा था। उनकी 12 साल की बेटी भी रोते-बिलखते उनके साथ-साथ चल रही थी। उस समय दाना मांझी की तस्वीर सोशल मीडिया पर जैसे ही वायरल हुई विश्व भर के लोगों की मानवीय संवेदना जाग उठी, लोगों से उन्हें हमदर्दी और मदद दोनों ही मिलने लगी।

ये उस समय की बात है तब मृत दुश्मन की अर्थी को भी लोग कन्धा दे देते थे, तो अकेले शव ढोते दाना मांझी को देखकर संवेदना जागी थी। आज इन बातों को करीब पांच वर्ष हो गये। कल मेरे निवास स्थान से चार मकान छोड़कर एक 30 वर्ष के युवा की कोरोना से मौत हो गयी थी। रात के लगभग 3 बजे परिवार के दो लोग उसकी लाश को रेहडे पर रखकर गली बाहर ले जा रहे थे। घर में दो स्त्रियाँ रो रही थी। उनकी रुलाई सुनकर लोग खिड़की और दरवाजों से बाहर झांके और तुरंत दरवाजे बंद कर लिए।

अंत में परिवार शव को बाहर खड़ी एम्बुलेंस में रखकर अंतिम संस्कार को ले गया। शायद साथ में अंतिम संस्कार को चली गयी लोगों की संवेदना भी। लोगों की भी क्या गलती, पिछले साल से कोरोना की दहशत ऐसी है कि सामान्य बीमारी से भी मौत हो जाने पर पड़ोसी-रिश्तेदार नहीं पहुंच रहे हैं, अपने घरों के दरवाजे तक बंद कर ले रहे हैं।

देश के विभिन्न हिस्सों से मानवीय संवेदना को झकझोर देने वाली घटनाओं की बाढ़ सी आ गई है। एक पति की ओडिशा में पत्नी के शव को गट्ठर बना कंधे पर लादकर पैदल चलने की विवशता दुनिया ने देखी। कानपुर में एंबुलेंस न मिलने पर डॉक्टरों का चक्कर लगाते पिता के कंधे पर ही पुत्र को शव में तब्दील हो जाने की घटना लोगों ने देखी। बिहार के वैशाली में लावारिश शव को घसीटती पुलिस की तस्वीर भी तेजी से वायरल हुई,  भागलपुर में मानवता तब शर्मसार होती दिखी जब लावारिश शव को रेलवे पुलिस ने बोरे से ढककर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली।

इसी शहर के जवाहरलाल नेहरू चिकित्सा महाविद्यालय अस्पताल में मरीज के परिजन को एक ऐसे ट्राली मैन से पाला पड़ा जो टांके कटवाने के लिए दूसरे विभाग में मरीज को ले जाने के एवज में पचास रुपये की मांग कर रहा था। असमर्थता जाहिर करने पर ट्राली मैन ने मरीज को यूं ही छोड़ दिया। एक विडियो में लड़का बता रहा है कि मेरे पिता की लाश बड़ी मुश्किल से मिली हमें उसके अंतिम दर्शन के लिए 2 हजार रूपये देने पड़े लेकिन जब चेहरा देखा तो लाश किसी और की थी।

लखनऊ में अंतिम संस्कार के नाम पर एक से पांच हजार रुपये तक की वसूली की खबर पढ़ी जबकि नियमानुसार कोई शुल्क नहीं लिया जा सकता। ये मात्र कुछ उदाहरण हैं, जो हर दिन कहीं न कहीं दोहराए जाते हैं। कहीं नियम-कानून के नाम पर तो कहीं भ्रष्टाचार की वजह से, मानवीय संवेदना दम तोड़ती नजर आ रही है। संक्रमित व्यक्ति को पहले तो बमुश्किल अस्पताल मिल पाता है, अगर अस्पताल मिल जाये तो उसमें ऑक्सीजन की किल्लत जब तड़फ तड़फ कर मरीज के प्राण पखेरू उड़ जाते है तो अर्थी को कन्धा देने वाले लोग नही मिल रहे है। अगर मानक संसाधनों को पूरा करके लाश को एम्बुलेंस मिल भी जाये तो श्मशान घाट नहीं मिल रहे है। अगर श्मशान घाट मिल भी जाये तो जेब में मोटी रकम होना चाहिए। उदयपुर में स्वयं न्यायाधीश सोनी कोविड मृतक के परिजन के रूप में श्मशान पहुंचे तो हालात देखकर हैरान रह गए, कोविड मृतक का शव एम्बुलेंस से उतारकर चिता पर रखने के एवज में दलाल पंद्रह हजार रुपए वसूले जा रहे थे। दूसरा कई दिन पहले महाराष्ट्र के बीड में एक एंबुलेंस में 22 बॉडी ठूंस दीं, श्मशान में एक चिता पर 3-3 शवों का अंतिम संस्कार किया। लाशों की ये हालत देखकर इन्सान तो इन्सान शायद मुर्दे भी कह उठे कि “इंसानों सा सलूक तो करो”.

अभी तक हमें दाना मांझी और पीएमसीएच में पर्ची नहीं कटा पाने की वजह से एक प्रसूता अस्पताल के गेट पर ही एडियां रगड़ती महिला की मौत संवेदना से भर देती थी। लेकिन आज वो संवेदना कहीं दिखाई नहीं दे रही है। यह केवल कोरोना का भय नहीं बल्कि संवेदना का मर जाना भी है, क्योंकि डॉक्टर मरीज को इंजेक्शन देकर खाली सीरिंज वहीं छोड़ देते और मरीज के परिजनों से उठवाते हैं. लेकिन सियासी हाय तौबा के बीच ऐसी घटनाएं दब जाती हैं।

लगता है कोरोना के समय में भय हमारी मनुष्यता एवं मानवीयता को हरा रहा है। भय के कारण हम अपनों की मदद के लिए साक्षात उपस्थित नहीं हैं। लेकिन अगर हम आज दूसरों के लिए उपस्थित हैं तो वो हैं मशीन उत्पादित संदेशों,  एसएमएस, स्मार्टफोन्स के आईकॉन से संवेदना जाहिर करने वाले कलपुर्जे। मसलन कोरोना ने मनुष्य की संवेदना को अदृश्य कर दिया है एवं इसने वर्चुअल सच्चाई और वर्चुअल दुनिया का बहुगुणित विस्तार कर दिया। यानि इस भय ने हमें उस मुकाम पर पहुँचा दिया है जहाँ हम एक-दूसरे से डरने लगे है। हमने एक-दूसरे को एक दूसरे के लिए बायोलॉजिकल बॉम्ब के रूप में देखना और समझना शुरू कर दिया है।

इसी भय ने हमारे “मानवीय देह” को मात्र बायोलॉजिक देह में बदल दिया है, अब यह लगता है हम एक ऐसा समाज है, जिसके पास अपने को जिलाये रखने के सिवा और कोई मूल्य नहीं है। लगता है हम सिर्फ एक बेयर लाइफ यानि मात्र जीवन में विश्वास करने लगे हैं और किसी चीज में नहीं। साफ लिखू तो हम इस भय में अपने सहज जीवन के सभी मूल्य यथा मित्रता, समाजिक संबंध, काम, स्नेह, और धार्मिक लगाव सब भूलने से लगे हैं या ये कहें हमने अपनी संवेदना का अंतिम संस्कार सा कर दिया है।

 लेख-राजीव चौधरी

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