हाल ही दंगल फिल्म में गीता फोगाट के बचपन की भूमिका निभाने वाली 16-वर्षीय ज़ायरा वसीम भी कुछ उसी तरह मजहबी आलोचना का शिकार बनी जिस तरह पिछले सप्ताह क्रिकेटर मोहमम्द सामी की पत्नी अपनी ड्रेस को लेकर बनी थी. आलोचना के बाद जायरा वसीम ने माफ़ी मांगते हुए कहा कि मुझे उम्मीद है कि लोगों को याद रहेगा कि मैं सिर्फ 16 साल की हूं, और वे मुझसे वैसा ही व्यवहार करेंगे, जैसा 16 साल की किसी बच्ची से किया जाता है मैंने जो भी किया, उसके लिए मैं माफी मांगती हूं, हालाँकि यह कोई नया मामला नहीं है इसके साथ में एक दो खबर की और बात करे तो अभी कुछ समय पहले बिलकुल इसी तरह का सामना बालीवुड कलाकार सना अमीन शेख अपनी मांग में सिंदूर लगाकर कट्टरपंथ का शिकार हो चुकी है. यह मामला सिर्फ भारत तक ही सीमित नहीं है बल्कि यदि बाहर की दुनिया का रुख करें तो अभी हाल ही में सउदी अरब में एक महिला को इस अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया कि उसने बिना हिजाब के सोशल मीडिया पर अपनी तश्वीर पोस्ट की थी.
इन सभी खबरों को पढ़कर शायद हर कोई यही सोच रहा होगा कि आखिर मुस्लिम समाज में महिलाओं की हिस्सेदारी कितनी है? क्यों उन्हें थोड़ी भी आजादी के लिए प्रताड़ित अपमानित होना पड़ता है? आतंक पर मौन रखने वाले लोग अक्सर महिला स्वतन्त्रता पर मुखर दिख जाते है. फ़िलहाल यदि कश्मीर का ही रुख करे तो इन दिनों वहां हिजबुल आतंकी बुरहान वानी की तश्वीर वाले कलेंडर घाटी में वितरित किये जा रहे है. जिस पर भारत के सभी दल और घाटी के मुस्लिम मौलाना खामोश दिख रहे है. इस कृत्य पर तो घाटी का गौरव लेकिन ज़ायरा वसीम पर हंगामा. आखिर इस समुदाय की यह सोच किस तरह तैयार की गयी कि जितना इनके धर्मगुरु सोचे उतना ही वो सोचेंगे यदि इससे आगे सोचा थो मजहब का खतरा या अपमान? शनिवार को एक न्यूज़ प्रोग्राम में सबने देखा एक मौलवी एक महिला को कैसे छड़ी से मारकर सही करने की बात कह रहा था.
अच्छा तब करोड़ों मुस्लिम बेटियाँ आधुनिक शिक्षा से महरूम रहे तो चुप्पी. पर जब कोई मलाला आधुनिक स्कूली शिक्षा की मांग करे तो उसे गोली क्यों?
अच्छा जब मजहब के नाम पर 200 लोगों के सर कलम किये जाये तब तो नैतिकता पर कोई सवाल नहीं!! लेकिन जब कोई महिला स्कूटी चलाये तो संस्कृति पर भूकम्प के झटकों की अजान क्यों?
अच्छा जब नाइजीरिया में 10 से 12 साल की करीब 400 बच्चियों को बोकोहरम वाले मजहब के नाम पर उठाकर आतंकियों को बांटते है तब नैतिकता ऊँची. पर जब टीवी कलाकार सना अमीन शेख मांग में सिंदूर डाल लेती है संस्कृति का नीचापन क्यों?
अच्छा जब हजारों महिला तलाक का दंश झेले तब तो संस्कृति और मजहबी तकरीर का हिस्सा.. पर जब कोई शायरा बानो या आफरीन सुप्रीम कोर्ट में खड़ी हो जाये तो मजहब का रोना क्यों?
अच्छा जब पराये पुरुष से पर्दा रखना शालीनता और संस्कृति है, तब तलाक के बाद हलाला पर चुप्पी क्यों?
अच्छा सिनेमा के पर्दे पर कम कपड़ों में नायिका की एंट्री पर सीटी बजाये पर जब अपनी पत्नी बिना हिजाब के बाहर मिल जाये तो सम्मान पर खतरा या फिर तलाक क्यों?
अच्छा जब 90 प्रतिशत महिलाएँ पुरुष की अनुमति के बिना घर से बाहर न निकल सकें और कोई मिनरा सलीम अन्टार्कि्टका पर कदम रख दे… तब औरत की हद का रोना क्यों?
अच्छा जब लाखों रूपये के फतवे गर्दन उड़ाने के आते है तब शान की बात. पर तसलीमा और सलमान रुश्दी की किताब की निंदा क्यों?
अच्छा जब 95 प्रतिशत बलात्कार से प्रभावित महिलाएँ और उनके परिजन चादर में मुँह छिपाए छिपाए घूमें और पाकिस्तान में कोई मुख़्ताराँ माई सर उठा कर खड़ी हो जाए तो मजहबी फुंकार क्यों?
अच्छा जब इराक में यजीदी समुदाय की बच्चियों को उठकर सेक्सस्लेव बनाकर सिगरेट के दाम पर बेचा जाता है तब संस्कृति के चाँद पर तो सितारे. लेकिन जब एक लड़की बुर्का उतारकर टेनिस खेले तब शालीनता का राग क्यों?
अच्छा जब किसी मेले के रंगारंग कार्यक्रम में लडकियां नाचती है तो 50 लोगों के खड़े होने की जगह में 200 खड़े हो जाते है तब मनोरंजन. पर जब अपनी बहन बेटी किसी गीत पर थिरके तो शर्म की बात या परिवार की इज्जत पर खतरा क्यों?
अच्छा मजहब के नाम पर कोई महिला आत्मघाती बनकर खुद को उड़ा ले तो जिहाद पर जब कोई नन्ही बच्ची ज़ायरा वसीम फिल्म में पहलवान का भूमिका निभा दे तो शर्मनाक क्यों?
अच्छा एक बात और बताओं महिला दुनिया की आधी आबादी है ना इन्हें घर से बाहर निकलने दो, ना इन्हें पढने दो, न खेलने कूदने दो, न पसंद के कपडे पहनने दो फिर इनका क्या करोंगे? इस आधी आबादी के लिए अलग से कानून क्यों? मेरे पास सवाल है जवाब नहीं..
राजीव चौधरी