प्रवेश (अनुरोध: आलेख धीरे-धीरे आत्मसात कर के पढ़ें)
**अंग्रेज़ों ने रामायण और महाभारत इतिहास नहीं, पर महाकाव्य माने। क्यों?
**वेदों का भी मात्र १०००-१५०० ईसा पूर्व ही, माना। क्यों?
**उपनिषदों को भी ईसा पूर्व ३००-४०० वर्ष पूर्व ही माना। क्यों
**ऐसे अनेक प्रश्नों के आंशिक या पूर्ण उत्तर आप को इस आलेख के प्रकाश में मिल सकते हैं।
(एक) कुटिल अंग्रेज़ नीति
आज के आलेख का उद्देश्य भारत में प्रायोजित “अंग्रेज़ की कुटिल नीति” का इतिहास, समझने का प्रयास है। ऐसी अंग्रेजी कुटिलता को, समझने के लिए, प्रत्येक भारतीय विचारक और शुभेच्छक को, यह विषय जानने का अनुरोध करता हूं। जब तक ऐसे विषय को समझेंगे नहीं, हम मानसिक रूपसे स्वतंत्र होंगे नहीं। अंग्रेज़ ने हमारे रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद, संस्कृत, और शेष इतिहास के प्रति आक्रामक पैंतरा लिया था। उसका यह पैंतरा कुछ मात्रा में, मैं जानता था, पर उस के पीछे का कारण समझ में नहीं आता था। यही आज के आलेख का विषय है।
(दो) क्या सारे अंग्रेज़ कुटिल ही थे?
वैसे, कुछ अलग स्वतंत्र मत रखने वाले मुक्त चिंतक अंग्रेज़ भी थे; पर उनकी शायद विवशता ही थी, जो दिया हुआ काम करते रहते थे। ऐसा उन्हीं के वचनों को परखने से पता चलता है। बाकी ऐसे सामान्य वेतनधारी अंग्रेज़ थे, जो अपनी अपनी राज्यनिष्ठा का निर्वाह कर रहे थे। शायद कुटिल नीति गढ़नेवाले नेतृत्व में होंगे। शेष आज्ञाधारक कर्मचारी ही होंगे। साथ वे अवश्य बाइबल के ज्ञान से भी प्रभावित ही थे, कैसे, जानने के लिए आगे पढ़ें।
(तीन) आक्रामक पैंतरा
ऐसा आक्रामक पैंतरा क्यों और कैसे लेते हैं; इसकी विधि मैंने मेरे पश्चिमी मित्रों से ही सीखी। आइए, पहले देखते हैं कि ऐसा ’पश्चिमी आक्रामक’ पैंतरा कैसे लिया जाता है, और उसे सफल कैसे बनाया जाता है। इस पैंतरे की सूक्ष्म जानकारी, भारत प्रेमियों को अंग्रेज़ी मानसिकता की पहचान भी करा देगी। हमें मतिभ्रमित करने में इसका बहुत उपयोग हुआ था। यह भी समझ में आ जाएगा।
(चार ) आक्रामक पैंतरे की विधि
(१) आप अपनी बात सत्य ही है, ऐसे नाटकीय ढंग से, उसे घोषित करें।
(२) जिसे सुनने पर, आपके विरोधकों को दो पर्याय उपलब्ध होंगे।
उस “तथाकथित-सत्य” को स्वीकार करें या उसका विरोध करें।
(क) जो वर्ग उस विधान की सच्चाई स्वीकार करेगा। उसे, कोई परिश्रम नहीं करना पडेगा । यह पर्याय बडा सीधा और सरल होता है। साधारण जनता परिश्रम और विचार करने से बचती है। वह इसी पर्याय को अपना लेती है। यही इस पैंतरे की यशस्वीता का रहस्य है। हमारी लघुता ग्रंथि के कारण भी “साहेब वाक्यं प्रमाणं” की स्वीकृति का सहज कारण बन जाता होगा।
(ख) दूसरा वर्ग उसे गलत मान सकता है। पर इस पर्याय को मानने पर उसे विधान को गलत प्रमाणित करना पडेगा। जिसके लिए उसे बौद्धिक परिश्रम करना पडेगा। और, गलत प्रमाणित करने का बोझ भी उसी पर होगा। प्रमाण न दे सका तो आप ही आप प्रतिपादित विधान सत्य प्रमाणित हो जाएगा।
(पांच) आक्रामक पैतरे का ऐतिहासिक उदाहरण
उदाहरणार्थ: अंग्रेज़ ने कहा, ऊंचे स्वर में कहा, कि, रामायण और महाभारत महाकाव्य है, इतिहास नहीं है। और आगे कहा, कि, इन्हें इतिहास मानने वाला भारतीय बुद्धिहीन अंधश्रद्धालु है। अब हमारे सामने दो ही पर्याय थे। एक: या तो इस विधान को, स्वीकार करो, और यदि ना करो तो अपने पक्ष में, पुष्टि देकर के उसे प्रमाणित करो। कुछ हमारे भारतीय पढत मूर्ख तो है ही, अपने आप को बुद्धिहीन अंधश्रद्धालु कहाने के बदले स्वीकार कर लेते हैं, और कहना प्रारंभ कर देते हैं; कि, ये रामायण और महाभारत कपोल कल्पित कथाएं ही हैं, यह अंधश्रद्धा है। और साथ साथ, फिर अपनी सामान्य जनता को जो युग युग से राम और कृष्ण को ऐतिहासिक राष्ट्रपुरुष मानते आए हैं, उन्हें भोले, अंधश्रद्धालु, गंवार मान लेती है जिससे स्वयं अपने आप को प्रगतिवादी का ठप्पा मिल जाता है।
ऐसी परम श्रद्धालु जनताको मैंने कुंभ मेले में चकित होकर देखा है। सरपर पोटलियां ढोना, मिलों पैदल चलना, भारत की ऐसी ७ से ८ % जनता कुंभ मेले में किस श्रद्धा से प्रेरित होकर आती होगी; आप अनुमान भी नहीं कर पाओगे। उन्हें पागल मानने वाले पढ़तमूर्खों की कमी नहीं है। पर जिन्हें विशेष जानना है, वे “भारतीय चित्त मानस और काल” नामक, धर्मपाल जी की ४८ पृष्ठों की, पुस्तिका अवश्य पढ़ें।
(छः ) अंग्रेज़ ने ऐसा क्यों कहा?
पर कुछ ही इतिहास कुरेदनें पर जान गया कि रामायण और महाभारत को महाकाव्य कहने के पीछे क्या कारण होना चाहिए?
उत्तर: बहुतेरे युरोपियन जो भारत आए थे, उनमें से कुछ बाइबल में दृढ़ श्रद्धा रखने वाले क्रीस्तानी मिशनरी अवश्य थे, दूसरे, थे विद्वान पर वे भी सहायता तो, चर्च से ही पाते थे। कुछ शासक भी थे, जो इसाइयत का प्रचार करने में विश्वास रखते थे। उनकी “रोटी” और विलासी जीवन की “रोजी” बाइबल को ही आभारी थी।
बाइबल का विरोध करने के बदले रामायण महाभारत का विरोध सस्ता था।
ऐसे बाइबल की श्रद्धासे से पश्चिमी प्राच्यविद ग्रस्त नहीं तो प्रभावित तो थे ही। वे बाइबल की अवमानना तो कर नहीं सकते थे। रोटी, रोजी और भारत में उनका विलासी जीवन इसी पर निर्भर था।
काल भी १७०० -१९०० का था, उस समय के अंग्रेज़ों की श्रद्धाएं भी दृढ़ ही रही होंगी।
(सात) बाइबल की संकीर्णता
आज यह लेखक एक प्रामाणिक पैंतरा ले रहा है। पैंतरा आक्रामक दिखाई दे सकता है। पर यह पैंतरा सच्चाई प्रतिपादित करनेवाला है।
(आठ ) सुंदर चित्र
क्या सुंदर चित्र है? आकाश एक अर्ध गोलाकार हलकी नीली छत है। इस छत पर सूर्य, चंद्र और तारों के समूह चिपके हुए दिखाई देते हैं। फिर छत के नीचे नीले रंग का पानी दिखाया है; जिसकी सीमा एक रोटी या उपले जैसी मण्डलाकार है। और इस पानी के बीच में हरे रंग में भूमि का भाग दिखाई देता है। और यह सारा मण्डल ४ खंबों पर टिका हुआ है। खम्बे किसपर टिके होंगे? इस विषय पर चित्रकार मौन है। शायद कुछ कहना नहीं चाहता। शायद वह जानता नहीं है।
(नौ) पुराने बाइबल का पाठ।
पर यह सारा वर्णन किसी कपोल कल्पित कथा का ही होता, तो, बड़ा मनोरंजक होता। बालकों की कथाओं में ऐसा वर्णन अवश्य उन्हें अद्भुत-रम्य रस से ओत-प्रोत करता। पर यह वर्णन पुराने बाइबल के संस्करण से लिया गया है। ये बाइबल के पुराने संस्करण में वर्णित सृष्टि रचना का इतिहास है।
(१) पृथ्वी को रोटी या उपले जैसी चपटी बताया गया है।
(२) इस सारी सृष्टि का निर्माण मात्र ईसा पूर्व ४००४ वर्ष पर, २३ अक्टूबर को हुआ था।
(३) सात दिन में सारी सृष्टि का निर्माण किया गया था।
(४) छठवें दिन आदम और इव को जन्म दिया गया था।
जब, सारा सृजन ७ दिन में हुआ, सातवें दिन, थके हुए भगवान ने विश्राम किया था।
(दस ) ख्रिस्ती धर्मगुरु जेम्स अश्शर
ख्रिस्ती धर्मगुरु जेम्स अश्शर (Ussher) ने १७वीं शताब्दि में बाइबल के अनुसार, विश्व के इतिहास की काल गणना की थी। और बाइबल का आधार लेकर सिद्ध कर दिया था कि सारी सृष्टि की उत्पत्ति ईसा पूर्व ४००४ वर्ष पर, २३ अक्तुबर को सबेरे ४ बजे हुयी थी।
ऐसी सूक्ष्मता सहित बाइबल इस तथ्य को रखता है कि उसमें सामान्य मनुष्य विश्वास कर लेता है। आज भी Flat Earth Socirty नामक सोसायटी कार्यरत है। और यह आज की अमरिका में भी चला करती है। इस वास्तविकता को विशेषकर आज कल उभारा नहीं जाता। अंग्रेज़ी में इसे underplay करना कहते हैं।
बात निकलनेपर उड़ा दिया जाता है। कभी-कभी अज्ञानता भी दर्शायी जाती है।
(ग्यारह) ४००४ ईसा पूर्व
जब ४००४ वर्ष ईसा पूर्व ही सृष्टि ही उत्पन्न हुयी थी, तो हिंदुओं के वेद उस से पहले कैसे मान लिए जा सकते थे? रामायण का युग भी राम की जन्म कुण्डली के अनुसार ४००४ ई. पूर्व से भी बहुत बहुत पहले हुआ था। बाइबल के काल गणना के कारण है, कि वेदों का काल भी ई पूर्व १०००-१५०० वर्ष स्वीकारा गया।
बाइबल ही है, उनकी अनेक ऐतिहासिक घटनाओं के भ्रांत काल-निर्णय की गुत्थी का कारण।
(बारह) बाइबल में सृष्टि विज्ञान के शब्द नहीं।
कुछ उन्हीं की आक्रामक शैली का प्रयोग उन्हीं पर करके देखना रोचक होगा।
एक सत्य भी इसी बाइबल से उभर कर आता है, कि, बाइबल की भाषा में (हिब्रु ) में सृष्टि विज्ञान विषयक वैज्ञानिक शब्दों का अस्तित्व ही नहीं है। ऐसे शब्द है ही नहीं।
इस से विपरित हमारे वेदों में, ब्रह्माण्ड, अंतरिक्ष, हिरण्यगर्भ, सलिल, द्यौ, बृहस्पति… इत्यादि अनेक सृष्टि विज्ञान के शब्द तो हैं ही। पर बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे शब्द उनका अर्थ भी वहन कर चलते हैं।
कुछ सीना तानकर फिर से पढ़ लीजिए। इन शब्दों के अर्थ भी उन्हीं के साथ कूट रीति से जुड़े हुए हैं।
क्या विधाता को अनुमान था कि कहीं भविष्य में मानव शब्दों के अर्थ को यदि खो दे तो यह सृष्टि विज्ञान लुप्त हो जाएगा। तो अर्थ को ही शब्द के देह में भरकर सृष्टि विज्ञान को प्रसारित करो। जब व्युत्पत्ति के आधार पर शब्दार्थ किया जा सकता है, तो सृष्टि विज्ञान का ज्ञान लुप्त होने से बच जाएगा।
और संस्कृत ही इस काम में समर्थ है, दूसरी कोई भाषा यह काम करने की सामर्थ्य नहीं रखती।
दूसरी ओर काल गणना के शब्द लीजिए। यह विषय अपने आपमें एक अलग आलेख की क्षमता रखता है। हमारी काल गणना की समृद्ध शब्दावली भी देख लीजिए। वर्ष, शताब्दी, सहस्त्राब्दी, कलियुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग, सतयुग, चतुर्युग, मन्वन्तर, कल्प।