अब मामला ये उठ खड़ा हो चला है कि दलित मुस्लिम और दलित ईसाईओं को आरक्षण दे देना चाहिए। अगर ऐसा है तो इस्लाम और ईसाइयों के रहनुमाओं को स्वीकार कर लेना चाहिए कि छल बल से अपने मत में मत मतान्तरित किये गये दलितों को अब उन्हें अपने मतो से मुक्त कर देने चाहिए। क्योंकि केंद्र सरकार ने भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश के. जी. बालकृष्णन की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया है। यह आयोग उन लोगों को अनुसूचित जाति (एससी) का दर्जा देने के मामले का परीक्षण करेगा जिनका ऐतिहासिक रूप से अनुसूचित जाति से संबंध है, लेकिन जिन्होंने किसी अन्य मत सम्प्रदाय को अपना लिया है। जबकि संविधान (एससी) आदेश, 1950 कहता है कि हिंदू या सिख धर्म या बौद्ध के अलावा किसी अन्य मत को मानने वाले व्यक्ति को अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जा सकता है।
यानि आप इसे ऐसे समझिये कि लाखों करोड़ों की संख्या में जिन दलितों को कभी सम्मान दिलाने के नाम पर विभिन्न मतो में ले जाया गया था। आज भी उनकी हालत जस की तस है। वह आज भी सामाजिक आर्थिक तथा राजनितिक रूप से पिछड़े हुए है तो अब उनका उद्धार आरक्षण से किये जाने की मांग है।
यानि दलित ईसाई या दलित मुस्लिम केवल आरक्षण का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह समाज की एक बड़ी चर्चा है। और यह चर्चा देश भर होनी चाहिए। सवाल उठाये जाने चाहिए क्योंकि मुस्लिमों ने उन्हें समानता का सपना बेचा, उनसे कहा कि इस्लाम में आ जाओ हमारे यहाँ जातीय भेदभाव छुआछूत नहीं है! किन्तु अब हालात इसके बिलकुल उलट बताये जा रहें है। दूसरा इसी तरह वर्षों से भारत में ईसाई धर्मांतरण कर रहे है गरीब दलित लोगों को उनकी आर्थिक गरीबी, बीमारी आदि के लिए हिन्दू देवी देवताओं आरोपी ठहराते है। उनसे कहते है, कि जीसस की शरण में आ जाओं, तुम्हारी गरीबी दरिद्रता सब दूर हो जाएगी। जैसे ही वह मत परिवर्तन करते है और बाद में इनसे अपने कष्टों का निवारण पूछते है तो तब उनसे कहा जाता है कि इन सब की जिम्मेदार भारत सरकार है अपने लिए आरक्षण की मांग करो।
मसलन ईसाई हो मुस्लिम दलितों छुआछूत भेदभाव गरीबी दूर करने लिए अपने मत में लाया गया था। लेकिन अब इनकी समस्याओं के लिए छुआछूत भेदभाव उनकी जाति आदि में जब कोई परिवर्तन नहीं हुआ। अब यह आरक्षण की समीक्षा की जा रही है, ताकि इनकी जीवन दशा सुधारी जा सके।
दूसरा अभी तक जिन लोगों को लगता था कि इस्लाम और ईसाइयों में जाति भेद नहीं है, यहाँ दलितों के साथ भेदभाव नहीं होगा और वे सामाजिक और आर्थिक दर्जे में दूसरे मुस्लिमों और ईसाइयों के बराबर होंगे। उनके लिए यह एक खुला उत्तर है कि ऐसा नहीं हुआ, इन दोनों मतों में आर्थिक स्तर पर तो पिछड़ापन है ही लेकिन ईसाई और मुसलमान बन जाने के बावजूद उनके साथ सामाजिक भेदभाव जारी है। उन्हें अलग चर्च, मस्जिद और क़ब्रगाहों में जाने के लिए बाध्य किया जाता है। लंबे समय से इस तथ्य से इनकार करने के बाद कैथोलिक चर्च ने स्वीकार किया है कि दलित ईसाइयों के साथ भेदभाव होता है। दूसरा हक़ीक़त ये भी है कुछ समय पहले राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के लिए तैयार की गई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि शहरी क्षेत्रों में 47 फ़ीसद दलित मुस्लिम ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। रिपोर्ट में 2004-05 के आंकड़ों का हवाला दिया गया है। ग्रामीण इलाक़ों में 40 फ़ीसद दलित मुस्लिम और 30 फ़ीसद दलित ईसाई ग़रीबी रेखा से नीचे हैं।
इस्लाम और ईसाई धर्म में भी दलितों को बराबरी का हक़ दिलाने के लिए कई संगठन लंबे वक़्त से इस मुद्दे पर आंदोलन करते रहे हैं। उन्हीं में से एक नेशनल काउंसिल ऑफ़ दलित क्रिश्चियन ने रिज़र्वेशन को रिलिजन न्यूट्रल बनाने की माँग करते हुए एक याचिका दायर की थी, जिसे जनवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया था।
हालाँकि धर्मांतरण के बाद आरक्षण को लेकर अभी भी नियम है। संविधान (एससी) आदेश, 1950 कहता है कि हिंदू या सिख धर्म या बौद्ध धर्म के अलावा किसी अन्य धर्म को मानने वाले व्यक्ति को अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जा सकता है। मतलब अभी सिर्फ हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म के अनुसूचित जाति (एससी) समुदाय के लोग आरक्षण और दूसरी सुविधाओं का फायदा उठा सकते हैं। मूलतः संविधान में हिन्दू धर्म के एससी समुदाय के लिए आरक्षण की व्यवस्था थी। बाद में 1956 में इसे सिख और 1990 में बौद्ध के लिए भी जोड़ दिया गया।
अगर कोई इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाता है, तो उसे आरक्षण और अन्य दूसरी सुविधाओं का लाभ नहीं मिलता है। हां, अगर वह फिर से हिंदू धर्म में आ जाता है, तो उसे लाभ मिलना शुरू हो जाएगा। इसी को लेकर विवाद है। लंबे समय से मुस्लिम और ईसाई समूहों की मांग है कि उन दलितों के लिए आरक्षण की समान स्थिति रखी जाए, जिन्होंने उनका धर्म अपना लिया है। इसी पर फैसला करने के लिए केंद्र सरकार ने हाल ही में एक कमेटी का गठन किया है। ये कमेटी अध्ययन करके रिपोर्ट तैयार करेगी कि दलित से ईसाई या फिर इस्लाम धारण करने वालों को क्या आरक्षण का लाभ दिया जाए या नहीं?
हालाँकि इस सवाल का जवाब साल 2019 में जब ये मामला सुप्रीम कोर्ट में आया और इसने सरकार को रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफ़ारिशों पर अपना रुख़ साफ़ करने को कहा. तब सरकार ने कहा था कि ईसाइयों और मुस्लिमों में कोई जाति नहीं है इसलिए उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा देने का सवाल नहीं उठता है। किन्तु सरकार के जवाब पर पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षण और बराबरी का दर्जा मांगने वाले पसमांदा मुस्लिमों का पक्ष उठाने वाले अली अनवर ने कहते है कि मुस्लिमों में दर्जन भर जातियां दलितों में आती हैं।
ये कैसा दुमुहा सांप है मसलन एक ओर इस्लामिक मौलाना कह रहे है कि मुसलमानों में जातियां नहीं होती जातिवाद छुआछूत नहीं होता। लेकिन दलित मुस्लिम कह रहे है कि होता है और 85 फीसदी मुस्लिम पिछड़ी जातियों से आते है। अगर ऐसा है तो इस्लाम और ईसाइयत से जुडी पिछड़ी जातियों को आरक्षण दे दिया जाये, लेकिन इस शर्त को आधार बनाया जाये कि कैथोलिक चर्च और इस्लामिक मौलाना खुले तौर पर स्वीकार करें कि इस्लाम और ईसाइयत में जातिवाद भेदभाव बड़े स्तर पर व्याप्त है। साफ़ कहें कि हम दलित समुदाय के लोगों का धर्मांतरण करके उनकी सामाजिक आर्थिक दशा में कोई परिवर्तन नहीं ला सकें इस कारण हम उन्हें मुक्त करते है, अत: अब उनका भला सरकार और हिन्दू समाज अपने तरीके से कर सकता है।
BY- RAJEEV CHOUDHARY