अभागः सन्नप परेतो अस्मि तव कृत्वा तविषस्य प्रचेतः। तं त्वा मन्यो अक्रतुर्जिहीलाहं स्वा तनूर्बलदेयाय मेही।। ऋग्वेद 10/83/5
अर्थ- हे (प्रचेत) परमज्ञानी परमेश्वर ! मैं (अभागाः सन्) भाग्यहीन (तविषस्य) बल उत्साह देने वाले (तव) आपके (क्रत्वा ) यज्ञिय कर्म से (परा इतः अस्मि ) दूर हो गया हूँ । (मन्यो ) हे मन्युरुप परमेश्वर ! (अहम्) मैं (आक्रतु) यज्ञादि परोपकार कर्मो से हीं (तं त्वा) उस आपका (जिहीडे ) अनादर करता हूँ ! (स्वा तनुः) मेरे शरीर एवं मन में (बलदेयाय) बल एवं उत्साह देने के लिये (मा इहि ) मुझे प्राप्त हूजिये।
संसार में शक्ति का ही जय होता हैं। शक्ति सामर्थ्य अथार्तकिसी कार्य को पूर्ण करने की क्षमता का नाम हैं जिसमें शरीर का बलए मानसिक उत्साह और आत्मा का बल तीनों का समावेश हैं। इनमे भी आत्मिक बल का सर्वोच्च स्थान हैं। मन एवं शरीर में स्फूर्ति या उत्साह में आत्मबल ही हेतु हैं। जैसे उत्तम आहार -विहार से शरीर स्वस्थ रहता हैं। सत्य धर्म के कार्यों से मन और ज्ञान -विज्ञान से बुद्धिए उसी भाँति आत्मा का बल परमात्मा की भक्ति से बढ़ता हैं। जो लोग परमात्मा की भक्तिए उपासना नहीं करते वे सचमुच में ही अभागे हैं। जैसे ज्वर का रोगी मीठे पदार्थ को भी कड़वा बताता हैं वैसे ही पूर्व जन्म के पाप या संगति के कारण ईश्वर भजन में मन लगता ही नही।परिणाम स्वरुप ऐसा व्यक्ति अधर्म और असत्याचरण के कीचड़ में धंसता ही चला जाता हैं। जब तक यह स्वास न हो जाये कि परमात्मा मेरे रे सभी कर्मो को जान रहा हैं और मुझे उनका फल मिलेगा ही तब तक शुभ कर्मो की ओर प्रवृति नहीं होती। मन्त्र में एक स्तिक की मनोवास्था का वर्णन किया हैं-
अभागाः सन्नप परेतो अस्मि मैं अभागा ही रहा जो परमात्मा के अस्तित्व को ठुकरा स्वेछाचारी बन उससे दूर चला गया। मेरी जैसी दुर्गति हुई उसका वर्णन किसी कवि ने ठीक ही किया हैं। –
पूर्वजन्म के पापन से भगवन्त कथा
न रुचे जिनको ।
तिन एक कुनारी बुलाय लई
नचवावत हैं दिन को दिन को।।
मृदंग कहे धिक् हैं धिक् हैं मञ्जीर
कहे किन को किन को।
तब हाथ उठाय के नारी कहे
इनको इनको इनको इनको।।
जिसे कुसंग के सर्प ने डस लिया हैं उसका विष जन्म-जन्मांतर में ही उतर पाता हैं। जब भी मैं किसी पापकर्म में प्रवृत हुआ तब हे प्रभो। आपने मुझ श्रद्धाहीन को भी उधर जाने से मना करने के लिए अश्रद्धा ए ग्लानि ए लज्जा के भाव प्रकट किये परन्तु मैं उन्हे समझ ही नहीं पाया की आप ही मुझे उधर जाने से रोक रहे हो। मैंने तो यही समझा की यह मेरी दुर्बलता हैं और अभ्यास से दूर हो जायेगी। धीरे -धीरे ऐसा ही हुआ। अब मुझे जघन्य कर्मो से भय नहीं लगता। परन्तु मेरे एक आस्तिक मित्र ने समझाया कि जैसे मलिन दर्पण में अपना मुख साफ दिखाई नहीं देता वैसे ही पाप कर्म से तुम्हारा चित्त इतना मलिन हो गया हैं कि ईश्वर कि प्रेरणा तुम्हें सुनाई नहीं देती।
तव कृत्वा तविषस्य प्रचेतः – हे चेतावनी देकर सावधान करने वाले ज्ञानमय प्रभो। मैं अज्ञानान्धकार से आछादित चित्त वाला हो आप द्वारा किये जा रहे यज्ञिय और परोपकारक कर्मो को करने से भी वञ्चित रहा। खाओ -पीओ मौज करो ए इस शरीर के भस्म हो जाने के पश्चात फिर जन्म लेना किसने देखा हैं ए इस भावना के वशीभूत हो मैं आपके सहाय से भी वञ्चित रहा। अनेक बार जीवन में संकट आये। उस समय भी मैं सावधान नहीं हुआ। यधपि आपने उस समय भी करुणाभाव से मुझे सावधान हो जाने की प्रेरणा दी परन्तु मैं उसे समझ ही नहीं पाया। अहा। तुम कितने दयालु हो जो अपनी प्रजा के लिए बिन मांगे ही वर्षा ए सर्दी ए ऋतुचक्र को प्रवर्तित कर नाना प्रकार के फल ए अन्न शाक ए सब्जी आदि हमारे उपभोग के लिए वायु ए जल ए और भूमि नदियाँ -नालेए पर्वत .समुद्र तथा नाना प्रकार के जीव जन्तु ए पशु -पक्षी आदि हमारे उपयोग के लिए आपने ही बनाये हैं। आज मुझे यह ज्ञान हुआ कि वे लोग कितने कृतघ्न हैं जो आप जैसे दाता का दो शब्दों में धन्यवाद भी नहीं करते।
तं त्वा मन्यो अक्रतुर्जीहीडाहम् –हे दुष्टों पर कोप करने वाले भगवन। जब आपका मन्यु प्रकट होता हैं तो पलभर में उनका मानमर्दित हो जाता हैं। मैं इस परिणाम से अनजान बना शुभ कर्मो से और भी दूर होता चला गया और अपने आपको नास्तिक कहलाने में गर्व का अनुभव करने लगा। अपने कुतर्कों से मैने कितने ही ईश्वरभक्त और धार्मिक लोगों की आस्था का उपहास कर उन्हे अपना साथी बना लिया। मैं यह भी नहीं जान पाया कि जिस कीचड़ में मैं धंसा हुआ हूँ उस कीचड़ में भोले लोगों को फंसाना घनघोर अपराध हैं। जिन्हे मैं सुख के साधन समझ रहा थाए वे फूलमाला के स्थान पर काले सर्प निकले। यद्दपि मैं अपने तर्कों द्वारा दूसरों को निरुत्तर कर देता था परन्तु अंदर ही अंदर मैं खोखला होता जा रहा था। अधर्म ए अत्याचार ए अन्याय का प्रतिकार करने की शक्ति मुझमें रह ही नहीं गई थी।
स्वातनुर्बलदेयाय मेहि – अब बस बहुत हो चुका। आज मैने यह जान लिया हैं कि लोग ‘बलमसि बलं में देहि’ – तुम बल के धाम हो मुझे भी बल प्रदान करो ‘की प्रार्थना क्यों करते हैं। ‘ सुने री मैंने निर्बल के बल राम श् का रहस्य आज मेरी समझ में आया। जिन भौतिक प्रदार्थों का चयन कर मैने अपने आप को बलवान मानाए उन प्रदार्थो में गुण भी आपने ही तो भरे हैं। अग्नि आपकी शक्ति के बिना एक तिनका भी नहीं जला सकती और वायु अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी एक तिनके को नहीं उड़ा सकता। यही अवस्था सभी देवों की हैं ये सब आपकी महिमा से ही महिमावान हुए हैं।
हे प्रभो। मैं आपके शरणागत हुआ यह प्रार्थना का कर रहा हूँ कि मेरे शरीरए मन ए बुद्दि में बल का संचार कीजिये और आत्मा को इतना सबल बनाइये कि वह पहाड़ जैसी आपत्ति में भी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं हो पाये। मैं ही नहीं सारे लोग एक स्वर में कह उठें – बलदेयाय मेहि-बलमसि बलं में देहि।